Loftiness of Divali in Jainism [Hindi]

Author:  Image of Nipun JainNipun Jain
Published: 24.10.2011
Updated: 30.07.2015

दिवाली व् धन तेरस, गोबर्धन क्यों मनाये? लक्ष्मी,गणेश व् सरस्वती क्या और क्यों?

Jainism existed before Tirthankara Mahavira. He was one of the supreme teachers (Tirthanakara) and a reformer but due to ignorance of scriptures, manuscripts and history, misconceptions considered him as the founder of Jainism. However, now the existence of Tirthankara Parsvanatha, who preceded Lord Mahavira by 250 years, has been accepted.

In Jainism, Divali (splendor of lamps) is the jubilation to commemorate the salvation. According to Harivamsa Purana, Tirthankara Mahavira Swami had attained Nirvana just before the dawn of the Amavasya (new moon, early next morning) and according to Uttara Purana, the chief disciple of Mahavira, Gautama Svami Ganaghara also had attained complete knowledge or enlightenment (Kevalajnana) on this day in the early evening. Thus, Divali became one of the most important Jain festivals.

जैन धर्मं महावीर भगवान से पहले भी अस्तित्व में था, महावीर भगवान 24वे गुरु तीर्थंकर तथा संशोधक थे, पर धर्मपुस्तक, पाण्डुलिपि, इतिहास, विवरण भ्रांति की अज्ञानता के कारण महावीर भगवान को जैन धर्मं का संस्थापक मान लिया गया! हालाकि कुछ वर्षो में इसमें संशोधन भी किया गया है और श्रमण संस्कृति के प्रथम तीर्थंकर आदि-ब्रम्ह वृषभदेव को कर्म भूमि के प्रवर्तक के रूप में स्वीकार किया जा रहा है! वीर निर्माण संवत: 2538 - Happy New Year!

दिवाली जैन धर्मं में भगवान् महावीर स्वामी के मोक्ष प्राप्ति के स्मरणोत्सव [स्मरण के उत्सव] के रूप में मनाये जाने वाला पर्व है, दिवाली के दिन प्रातः महावीर स्वामी को मोक्ष [कार्तिक कृष्णा अमावस, प्रत्यूष बेला - हरिवंश पुराण] तथा उनके सर्वोच्च शिष्य गणधर गौतम स्वामी को संध्याकाल के समय केवलज्ञान प्राप्त हुआ [उत्तर पुराण] इसलिए ये दिन स्मरण के उत्सव के रूप में मनाया जाता है, कार्तिक कृष्णा अमावस के प्रत्यूष बेला के समय में महावीर भगवान ने मुक्ति प्राप्त की तथा हमेशा के लिए संसार छोड़ दिया, वे मोक्ष के विराजमान होगये, अब वे कभी संसार में वापस नहीं आएंगे, उनके मुक्ति के कारण से भाव दीपक मन्द हो गए, तथा वातावरण अंधकार में बदल गया, इस वजह से जो वहा पर मोजूद थे उन्होंने द्रव्य दीपक जलाये, तब से दिपालिका पर्व जैन धर्मं में मानना आरम्भ हुआ, ये महावीर स्वामी के मोक्ष तथा गौतम गणधर के केवलज्ञान होने का अध्यात्मिक उत्सव है, ना की संसारी सुख का |

दिवाली के बारे में हरिवंश पुराण में उल्लिखित मिलता है जो आचार्य जिनसेन जी ने लिखा है: दिपालिका [दीपक की ज्योति], उस दिन महावीर स्वामी को मोक्ष होने से पावगिरी दीपक की ज्योति से प्रकाशित होगई थी, इस कारण से भारत की जनता ने दिपलिका पर्व उत्सव जिनेन्द्र भगवान [महावीर भगवान] की पूजा करके विशेष मनाया! जैसा कि आचार्यश्री पूज्यपाद स्वामी ने निर्वाण भक्ति में कहा है --- तीर्थंकर भगवान महावीर ने बिहार प्रांत के पावापुरी नगर में जलमंदिर से समस्त कर्मों का नाश कर मोक्षधाम को प्राप्त किया था |

प्रभु वीर ने विपुलगिरी पर्वत पर प्रथम देशना में जो परमात्मतत्त्व बताया, अंतिम देशना में पावापुरी में भी वही परमात्मातत्त्व बताया | प्रभु की वाणी द्वारा परम शांत चैतन्यरस का पान करके लाखों-करोडों जीवों तृप्त हुए | गणधर गौतमदेव ने भी उत्कृष्टपने वीतराग-रस का पान करके केवलज्ञान की तैयारी की | तीर्थंकर प्रभुने सिद्धपद की तैयारी की, तो गणधरदेव ने अरिहंतपद की तैयारी की....तो प्रतिगणधरदेव ने (सुधर्मस्वामी ने) श्रुतकेवली होने की तैयारी की | वाह, भगवंतों! धर्मकी अछिन्नधारा आपने पंचम कालमें बहती रखी |

भगवान महावीर को मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति हुई और गौतम गणधर को कैवल्यज्ञान की सरस्वती की प्राप्ति हुई, इसलिए लक्ष्मी-सरस्वती का पूजन इस दिन की जाती है। जैन धर्म में लक्ष्मी का अर्थ होता है निर्वाण और सरस्वती का अर्थ होता है कैवल्यज्ञान, इसलिए प्रातःकाल जैन मंदिरों में भगवान महावीर स्वामी का निर्वाण उत्सव मनाते समय भगवान की पूजा में लड्डू चढ़ाए जाते हैं। लड्डू गोल होता है, मीठा होता है, सबको प्रिय होता है। गोल होने का अर्थ होता है जिसका न आरंभ है न अंत है। अखंड लड्डू की तरह हमारी आत्मा होती है जिसका न आरंभ होता है और न ही अंत। लड्डू बनाते समय बूँदी को कड़ाही में तपना पड़ता है और तपने के बाद उन्हें चाशनी में डाला जाता है। उसी प्रकार अखंड आत्मा को भी तपश्चरण की आग में तपना पड़ता है |

धन्य त्रियोदशी [धन तेरस - धन्य तेरस] जी हा.. जैन धर्मं में धन्य तेरस का बहुत महत्व है लेकिन वैसा नहीं जैसा हम लोग मानते है की सांसारिक लक्ष्मी तथा धन का पूजा करो नहीं, उस दिन को धन्य माना गया क्योंकि उस दिन के बाद भगवान ने योग निरोध किया तथा अमावस्या को मोक्ष प्राप्त कर लिया, वीर प्रभु के योगों के निरोध से त्रयोदशी धन्य हो उठी, इसीलिये यह तिथि “ धन्य-तेरस [त्रयोदशी]” के नाम से विख्यात हुई लेकिन समय से प्रभाव से यह धन्य त्रयोदशी - धनतेरस में फिर सिर्फ धन की पूजा होने लगी! धन-तेरस के दिन और दीपावली के दिन लोग धन-संपत्ति, रुपये-पैसे को लक्ष्मी मान कर पूजा करते हैं जो सर्वथा अयुक्तियुक्त है। विवेकवान जनों को इस पावन-पर्व के दिनों में मोक्ष व ज्ञान लक्ष्मी तथा गौतम गणधर की पूजा करनी चाहिये जो कि समयानुकूल, शास्त्रानुकूल, प्रामाणिक तथा कल्याणकारी है।

जब पंचम काल शुरू होने में 3 वर्ष 8 महिने और 15 दिन बाकी थे | चौथा काल अभी चल रहा था | प्रभु महावीर का विहार बंध हुआ, वाणी का योग भी मोक्षगमन के दो दिन पहले (धन तेरस से) बंद हुआ | जनता समझ गई की अब प्रभुके मोक्ष गमनकी तैयारी है | देशोदेशके राजाओं तथा प्रजाजनों भी प्रभु के दर्शन के लिए आ पहुंचे | एक परम वैराग्य के वातावरणका सर्जन हुआ | भले ही वाणी बंध थी पर प्रभुकी शांतरस झरती मुद्रा देखकर भी अनेक जीवों धर्म प्राप्त कर रहे थे | गौतम इत्यादि मुनिवरों अधिक से अधिक एकाग्र होते थे | प्रभुकी हाजरी में प्रमाद छोड़कर कई जीवों ने सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र की आराधना शुरू कर दी | इस तरह अश्विन कृष्ण त्रियोदशी एवं चतुर्दशी....यह दो दिन देवेन्द्रों तथा नरेन्द्रों ने सर्वज्ञ महावीर तीर्थंकर की अंतिम महापूजा की, वहां मोक्ष के उत्सवका बड़ा मेला लगा था....संसार को सब भूल चुके थे और मोक्ष के महिमा में ही सब मशगुल थे |

अगले दिवस चतुर्दशी को भगवान महावीर ने 18000 शीलों की पूर्णता को प्राप्त किया। वे रत्नत्रय की पूर्णता को प्राप्त कर अयोगी अवस्था से निज स्वरूप में लीन हुए। इस पर्व दिवस “रूप-चौदस” के दिन ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए व्रतादि धारण कर स्वभाव में आने का प्रयास करना चाहिये।

भगवान की दिव्यध्वनि स्यात, अस्ति-नास्ति. अवक्तव्य आदि सात रूपों में खिरी थी इसलिये यह दिन “गोवर्द्धन” के रूप में मनाया जाता है। “गो” अर्थात जिनवाणी तथा वर्द्धन का अर्थ प्रकटित वर्द्धित। क्योकि गौतम स्वामी को केवलज्ञान हो गया तो इस दिन जिनवाणी का दुबारा वाणी खीरी! इस दिन तीर्थंकर की देशना के पश्चात पुनः जिनवाणी का प्रकाश हुआ, वृद्धि हुई इसलिये जिनवाणी की पूजा करनी चाहिये।

दिवाली के रात्रि में बही पूजन के समय लक्ष्मी और गणेश की पूजा की प्रथा है, उसमें भी रहस्य है. उसी दिन पावापुर में भगवान् महावीर के मोक्ष जाने के बाद सायंकाल में श्री गौतम गणधर को केवलज्ञान प्रगट हुआ था, तत्क्षण ही इन्द्रों ने आकर उनकी गन्धकुटी की रचना करके उनके केवलज्ञान की पूजा की थी. 'गणानां ईशः गणेशः, गणधरः' ये पर्यायवाची नाम श्री गौतामस्वामी के ही हैं. सब लोग इस बात को न समझकर गणेश और लक्ष्मी की पूजा करने लगे. वास्तव में गणधर देव की, केवलज्ञान महालक्ष्मी की पूजा करनी चाहिए. ख़ास कर जैनों को तो यही कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा का नूतन वर्ष मनाना चाहिए, और मिथ्या देवों की पूजा ना कर के गणधर एवं केवलज्ञानमहालक्ष्मी की पूजा ही करनी चाहिए. दीपक केवलज्ञान रूपी ज्योति का प्रतिक है, हमको अंधकार रूपी मोह का नाश करना है केवलज्ञान प्राप्त करने के लिए...हमें महावीर भगवान - मोक्ष लक्ष्मी तथा गौतम स्वामी - गणों में ईश की पूजा करने चाहिये, जो हम लोकिक गणेश तथा लक्ष्मी पूजा करते है वो जैन धर्मं में नहीं है, इस बारे में हम शास्त्रों तथा ग्रंथो से पढ़ सकते है तथा मुनिराज से इस बारे में पूछना चाहिये, यह गृहीत मिथायात्व कर्मबंध होता है | ऐसा भी नहीं सोचना की हम तो करते आरहे है क्या होगा अगर छोड़ दिया इन लक्ष्मी गणेश की पूजा करना! अरे अगर करते रहे तो क्या होगा ये भी तो सोचो ना! धर्मं का सही स्वरुप ग्रहण करे! इस बारे में आचार्य, साधू, विद्वान् जनों से विचार ले |

चतुर्दशी की रात हुई, मध्य-रात भी बीती और...पिछली रात को (अमावस्या की सुबह होने से पहले) वीरनाथ सर्वज्ञ परमात्मा तेरहवा गुणस्थान पार करके चौदहवें गुणस्थान में अयोगी-पने विराजमान हुए | परम शुक्लध्यान (तीसरा एवं चतुर्थ) प्रकट करके बाकी के अघाती कर्मों की संपूर्ण निर्जरा होने लगी | और क्षणभर में प्रभु सर्वज्ञ भगवान महावीर मोक्षभावरूप परिणमित हुए, तत्क्षण ही सिद्धालयरूप मोक्षपुरी में पधारे | आज भी वे सर्वज्ञ परमात्मा वहां शुद्ध स्वरूप अस्तित्वमें बिराजमान है... उन्हें अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार हो....नमस्कार हो....नमस्कार हो |

पटाको से लाभ? दीपावली मनाएँ पर किसी का दीप न बुझे, किसी का घर न जले। तभी सार्थक होगी दीपावली। आपकी आतिशबाजी का जोरदार धमाका पशु-पक्षियों और जानवरों की नींद ही हराम नहीं करता, बल्कि उन्हें भयभीत कर अंधा, बहरा करके मौत के मुँह में भी डालता है। विषैला और जहरीला यह बारूद का धुआँ वातावरण को प्रदूषित कर स्वास्थ्य और पर्यावरण का नाश करता है। कुछ मिनट के enjoy के लिए लाखो रुपये बर्बाद हो जाते है, अगर कही आग लग जाती है तो पता नहीं कितनी संपत्ति का नुक्सान होता है, अगर कोई जल जाता है, किसी के कोई अंग खराब हो जाता है, कभी तो शरीर में आग से इतना नुक्सान होता है जिसका कोई इलाज नहीं, गर्भस्थ शिशु को नुकसान, वायु, जल, अग्नि, ओजोन परत को नुकसान, आँखों और कानो का बुरा प्रभाव, global warming का खतरा, किसी भी धर्म में हिंसा का उपदेश नहीं, पटाके इश्वर की वाणी का अपमान! छोटे छोटे अरबो जीव-जंतु की हत्या!! हम क्या आतंकवादी से कम है! सोचो....और तो और पटाके बनाने की फैक्ट्री में देखो...कारीगरों की जिंदगी से खिलवाड़...

अगर हम इस दिवाली के दिन हुए धटनाक्रम को प्रतिक रूप में ले तो महावीर स्वामी का मोक्ष उनके आत्मा के लिए कल्याणकारी है और गौतम स्वामी का केवलज्ञान होना उनके आत्मा के लिए कल्याणकारी होने के साथ साथ लोक कल्याण में भी सहायक है, ये दिवाली का पर्व आत्म कल्याण के साथ लोक कल्याण का भी पर्व है |

अगर हम रंगोली बनाये तो संस्कारों की रंगोली बनाये! दीपक जलाये तो विश्वास के दीपक जलाए! पूजा करे भगवान् की तो आस्था की पूजा करे! घर की सजावट करे तो सदभावना की सजावट करे! गुडधानी अगर बाटते है तो स्नेह की गुडधानी बाटे! अनार जलाते है तो आशाओ के अनार जलाये! वंदनबार बांधे तो ज्ञान के वादनबार बांधे! द्वार सजाये तो विनय से सजाये! पटाके फोड़े तो प्रसन्नता के फोड़े! फूलजड़ी जलाये तो प्रेम की फूलजड़ी जलाए! कलश रखे तो परम्पराओ के रखे और उसपर श्री फल संयम का हो और नैतिकता का उसपर स्वस्तिक बनाये तो वास्तव में हम गुणों की उपासना कर सकते है |

पटाके जलाना जिनेन्द्र देव की वाणी का अपमान है! क्योंकि "अहिंसा परमो धर्मः"

“वीतरागी देव तुम्हारे जैसा जग में देव कहा, मार्ग बताया है जो जग को, कह न सके कोई और यहाँ ”

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