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❖ Jainism -the Philosophy ❖ ✿ ताज़ी और बासी का रहस्य ✿
एक धनी परिवार की कन्या तारा का विवाह, एक सुयोग्य परिवार मे होता है, लड़का पढ़ा लिखा और अति सुन्दर लेकिन बेरोजगार था। परिवार की आर्थिक स्थति बहुत ही अच्छी थी जिसके कारण उसके माता -पिता उसे किसी भी कार्य करने के लिये नहीं कहते थे और कहते थे कि बेटा जिगर, तू हमारी इकलौती संतान है,तेरे लिये तो हमने खूब सारा धन दौलत जोड़ दिया है और हम कमा रहे है, तू तो बस मजे ले ।
इस बात को सुनकर तारा बेहद चिंतित रहती मगर किसी से अपनी मन की व्यथा कह नहीं पाती । एक दिन एक महात्मा जो छ:माह मे फेरी लगाते थे उस घर पर पहुँच गये और बोले । माई एक रोटी की आस है तारा रोटी ले कर महात्मा फ़क़ीर को देने चल पड़ी,सास भी दरबाजे पर ही खडी थी । महात्मा ने लड़की से कहा बेटी रोटी ताजा है या वासी तारा ने जबाब दिया कि महाराज रोटी बासी है।
सास बही खडी सुन रही थी और उसने कहा हरामखोर, तुझे ताजी रोटी भी बासी दिखाई पड़ रही है । महात्मा चुप चाप घर से मुख मोड़ कर चल पड़ा और तारा से बोल़ा कि बेटी मे उस दिन वापस आऊंगा जब रोटी ताजा होगी ।
समय व्यतीत होता गया और तारा के पति को कुछ समय बाद रोजगार मिल गया। अब तारा बहुत खुश रहने लगी । कुछ दिन बाद महात्मा जी वापस फेरी लगाने आये और तारा के ससुराल जाकर रोटी मांगने लगे, महात्मा के लिये तारा रोटी लाती है । महात्मा जी का फिर बही सबाल था, बेटी रोटी ताजा है या बासी तारा ने जबाब दिया की महात्मा जी रोटी एक दम ताजी है,महात्मा ने रोटी ले ली और लड़की को खुशी से बहुत आशीर्वाद दिया।
सास दरबाजे पर खडी सुन रही थी और बोली की हरामखोर, उस दिन तो रोटी बासी थी और आज ताजा वाह! बहुत बढ़िया! संत रुके और बोले अरी पगली! तू क्या जाने, तू तो अज्ञानी है, तेरी बहू वास्तब मे बहुत होशियार है जब मे पहले आया था तो इसने रोटी को बासी बताया था क्योकि यह तुम्हारे जोड़े और कमाये धन से गुजारा कर रहे थे जो इनके लिये बासी था । मगर अब तेरा बेटा रोजगार पर लग गया है और अपनी कमाई का ताजा धन लाता है इसलिये तेरी बहू ने पहले बासी और अब ताजी रोटी बताई । माँ बाप का जुड़ा धन किसी ओखे- झोके के लिये होता है जो बासी होता है, काम तो अपने द्वारा कमाये ताजा धन से ही चलता है । सास महात्मा के पैरों मे गिर पड़ी और उसको ताजी - बासी का ज्ञान व अपनी बहू पर गर्व हुआ इसलिये मानव को हमेशा जुडे धन पर आश्रित नहीं रहना चाहिये वल्कि सदैव ताजे धन की ओर ललायित रहना चाहिये,अगर हम जुडे धन पर ही आश्रित रहेंगे तो वो भी एक दिन खत्म हो जायेगा इसलिये हमे ताजा धन की आस करके सदैव प्रगति पथ पर निरंतर प्रवाह करना चाहिये ।
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❖ Hi, Warm Welcome @ Jainism -the Philosophy ❖ Celebration moment of crossing 15k members:) share it @ your wall so your friend can join to get benefited by pleasing texts:)
Dharma is nothing but the real nature of an object. Just as the nature of fire is to burn and the nature of water is to produce a cooling effect, in the same manner, the essential nature of the soul is to seek self-realization and spiritual elevation. If we examine the matter thus, we find that Dharma acquires different definitions in different contexts but here is a simple and clear meaning of it; "Dharma is the name that can be given to all the elaborate codes of conduct and ideologies that enable life to attain nobility and spiritual exaltation". Dharma can be the only means to understand and realize the true meaning of life. Dharma in its real sense is that which leads the soul on the path of felicity, peace and spiritual bliss; and impels it to be active and progressive.
thank You & Keep Reading:) -Nipun...
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❖ Jainism -the Philosophy ❖ कर्म कैसे करें? - मुनि श्री क्षमासागर जी [ Precious n easiest explained ] ✿ आपने कितनी भी किताबे पढ़ डाली हो पर अगर 'कर्म कैसे करे' नहीं पढ़ी तो आपकी self-assessment की यात्रा एकदम अधूरी सी है.... Mind it! must read this once in a life if you wanna peaceful n successful life in this birth n in upcoming too.
संसारी जीव अनादिकाल से कर्म संयुक्त दशा में रागी- द्वेषी होकर अपने स्वीभाव से च्युरत होकर संसार-परिभ्रमण कर रहा है । इस परिभ्रमण का मुख्य कारण अज्ञानतावश कर्म-आस्रव और कर्म-बन्ध की प्रकिया है जिसे हम निरंतर करते रहते हैं । कर्म बन्धक की क्रिया अत्यञन्तव जटिल है और इसे पूर्ण रूप से जान पाना अत्यन्ति कठिन है, लेकिन यदि हमें केवल इतना भी ज्ञान हो जाए कि किन कार्यों से हम अशुभ कर्मों का बंध कर रहे हैं तो सम्भनव है हम अपने पुरूषार्थ को सहीा दिशा देकर शुभ कर्मों के बंध का प्रयास कर सकते हैं । जयपुरवासियों के पुण्योेदय से सन् 2002 में मुनि श्री क्षमासागर जी का चतुर्मास वहाँ पर हुआ था और लगभग 7-8 माह तक प्रतिदिन प्रवचन आदि का लाभ उन्हें सहज ही उपलब्धा हो गया । इस अवसर पर मुनिश्री ने 18 प्रवचनों से जन-साधारण को कर्म सिद्धान्तम के जैन दर्शन में प्रतिपादित विषयों से अवगत कराने हेतु अत्यिन्तप सरल भाषा में उन परिणामों को स्पदष्ट किया है जिनके कारण हम निरन्तयर अशुभ कर्मों का बंध करते रहते हैं । प्राय: सभी भारतीय दर्शनों में कर्म सिद्धान्त पर विचार किया गया है, लेकिन जैन आचार्यों ने कर्म बंध और कर्म फल प्रक्रिया का जैसा सूक्ष्म् वर्णन किया है, अन्यात्र प्राप्तन नहीं है ।
मुनिश्री ने अपने प्रवचनों को मुख्यक रूप से दो भागों में विभक्त किया है− पहले छह प्रवचनों में संसार में दृश्यनमान विविधता का कारण अपने स्व यं के कार्य हैं जो अज्ञानता और आसक्ति से किए जा रहे हैं, न कि ईश्वनर के द्वारा सम्पारदित और संचालित हैं, जैसा कि जैनेतर सिद्धान्तोंज की मान्य ता है, पर प्रकाश डाला है । उन्होंरने ईश्वदर की कल्पैना का तर्कपूर्ण खण्डरन किया है । इस दृश्यन जगत में सभी चीजें अपने स्व भाव व गुणधर्मों के अनुसार परिणमन करती हैं । हम जैसा करते हैं, वैसा हमें फल प्राप्तप होता है । इस संसार परिभ्रमण का कारण मेरी अपनी अज्ञानता और आसक्ति है । जो भी प्रतिकूल परिस्थिततियाँ मुझे प्राप्तण हुई हैं उनके लिए मैं स्व यं ही उत्तरदायी हूँ । कुछ कर्म हम करते हैं, कुछ कर्म हम भोगते हैं और कुछ कर्म हम नये बाँध लेते हैं । इस प्रकार यह प्रक्रिया निरन्त र चलती रहती है । यदि हम चाहें तो इस संसार परिभ्रमण की प्रक्रिया को अपनी सावधानी और अनासक्ति से क्रमश: कम करते-करते पूर्ण मुक्त हो सकते हैं ।
कर्म हम अपने मन, वाणी और शरीर की क्रियाओं से निरन्त र करते रहते हैं, चाहे वह कर्म करने वाला हो, भोगने वाला हो या संचित होने वाला हो । कर्म बंध की प्रक्रिया में मुख्य रूप से तीन चीजों की भागीदारी है− आस क्ति या मोह, वर्तमान के पुरूषार्थ में गाफिलता या लापरवाही और हमारी अज्ञानता । आसक्ति या मोह पर मेरा वश नहीं है क्योंमकि यह पुराने बँधे हुए कर्मों के फल का परिणाम है । लेकिन वर्तमान के पुरूषार्थ में सावधान होकर और कर्म बंध की प्रक्रिया का ज्ञान प्राप्तप कर मैं कर्म फल भोगने और नये कर्म बंध होने की प्रक्रिया को निश्चित दिशा दे सकता हूँ । समीचीन ज्ञान प्राप्त कर मोह को घटाते हुए वीतरागता के प्रति अपनी रूझान बढ़ाकर मैं अशुभ कर्म बंध के स्थािन पर शुभ कर्म बंध कर सकता हूँ ।
जो कर्म मैंने पूर्व में बाँध लिए हैं, वे अपना फल तो अवश्यब देंगे । लेकिन वे कर्म जैसे मैंने बाँधे हैं वैसे ही मुझे भोगना पड़े या अपना मनचाहे फल दें, ऐसी मजबूरी नहीं है । इस लिए कर्म बंध की पूरी प्रक्रिया समझना आवश्यपक है । मेरी अज्ञानता की वजय से मेरी पुरूषार्थहीनता बढ़ती है और उस कारण से मोह मुझ पर हाबी हो जाता है । ऐसे कर्म भी जो अपरिवर्तित फल देने वाले हैं उनमें भी मैं अपने पुरूषार्थ से परिवर्तन कर उनकी फल-शक्ति को कम या अधिक करने में समर्थ हूँ । कर्मोदय के समय यदि हम हर्ष-विषाद न कर संतोष और समता धारण करने का पुरूषार्थ कर सकें तो इन पूर्वोपार्जित कर्मों के फल को आसानी से भोगकर नवीन कर्मबंध की प्रक्रिया को नष्टर कर सकते हैं ।
मुनिश्री ने कर्मों पर विजय प्राप्तर करने के तीन उपाय बताये हैं−
1. बाह्य वातावरण से जितनी जल्दी् हो सके, सामंजस्य स्थाेपित कर लेना,
2. शीघ्र प्रतिक्रिया न करें और यदि करना ही पड़े तो प्रतिक्रिया सकारात्मकप और रचनात्म क ही करें, और
3. संसार के घात-प्रतिघात से बचने का प्रयत्न करें ।
संसार के घात-प्रतिघात तो हमें सिर्फ अशुभ की ओर ही ले जाते हैं । मन को शुभ कार्यों में लगाये रखने पर हम अशुभ कार्यों से बच सकते हैं । धार्मिक क्रियाएँ करते समय हम संसार के प्रपंचों से बचे रहते हैं । शुभ कार्यों का फल हमेशा शुभ ही होता है, अशुभ कार्यों का फल कभी शुभ नहीं हो सकता । शुभ क्रियाओं से हम अपने संचित कर्मों में निरन्तहर परिवर्तन कर सकते हैं और अशुभ के दबाव को कम करने में सफल हो सकते हैं । घात-प्रतिघात से बचने की कुशलता इसी में है कि अगर कोई हमारे ऊपर घात करता है तो हम प्रतिघात न करें या कि स्वसघात न करें । अपने प्राण ले लेना, जीवन को कष्टर में डालना, मन ही मन संक्ले षित होना - ये सब स्व घात हैं । प्रतिक्रिया सकारात्म क करना सरल है लेकिन घात होने पर प्रतिघात न करें, इसके लिए बहुत सजगता की आवश्य कता है । यदि हम इस प्रकार का अभ्याेस कर सकें तो इस संसार परिभ्रमण से शीघ्र पार होने में सफल हो सकते हैं ।
इस प्रकार इन छह प्रवचनों में मुनिश्री ने यह समझाने का प्रयास किया है कि हम कर्म प्रक्रिया को ठीक–ठीक समझ कर अपने वर्तमान के पुरूषार्थ द्वारा नवीन कर्म बंध को क्रमशः कम कर सकते हैं और पूर्व में संचित कर्मों में परिवर्तन कर उनकी फल - शक्ति को कम या ज्यादा करने में सफल हो सकते हैं |
जैसा पूर्व में उल्लेीख किया था, कर्म सिद्धान्त् अति कठिन विषय है । प्रकाण्डर विद्वान भी इसे समझने और समझाने में असमर्थता का अनुभव करते हैं । फिर जन-साधारण को इस विषय को प्रस्तुरत करना कितना दुरूह कार्य है, आप अनुमान लगा सकते हैं । मुनिश्री श्रेष्ठह मनीषी संत-कवि, चिंतक, प्रभावी प्रवचनकार, मौलिक साहित्यु सृष्टाु, वेज्ञानिक और अन्वेवषक हैं । उन्होंोने जनसाधारण का ध्यारन रखकर विषय को अत्यकन्तम सरल भाषा में इस तरह प्रस्तुशत किया है कि सभी को कम से कम इस बात ज्ञान हो कि उन्हें अपने दैनिक कार्यकलापों में क्याइ क्यात सावधानी रखनी है, अपने पुरूषार्थ को क्याो दिशा देनी है जिससे अशुभ से बचकर शुभ कार्यों में प्रवृत्ति बढती जाये । भाषा की सरलता का इससे ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इन प्रवचनों में मुनिश्री ने एक बार भी कहीं कर्मों के उदय, उदीरणा, संक्रमण, अपकर्षण, उत्करर्षण, निधित्त, निकाचित शब्दोंज का प्रयोग नहीं किया है क्योंंकि जनसाधारण इनके अर्थों से भलीभांति परिचित नहीं होता । उन्हों ने कर्मों की प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग आदि की भी चर्चा नहीं की है, उनका उद्देश्य तो जनसाधारण को उक प्रक्रिया से अवगत कराना मात्र प्रतीत होता है जिससे वे अशुभ कर्म के आस्रव/बंध से बचने का प्रयास करें । प्रत्येाक प्रवचन के प्रारम्भह में पूर्व प्रवचनों की संक्षेपिका प्रस्तुत कर बार-बार अशुभ क्रियाओं से बचने का उपदेश दिया गया है ।
आपकी आसानी के लिए क्षमासागर जी महाराज की आवाज में उनके ये प्रवचन 'कर्म कैसे करे' को www.jinvaani.org वेबसाइट पर अपलोड किया गया है जिसको आप डाउनलोड कर सकते है इसको आप PDF book या MP3 के रूप में डाउनलोड कर सकते है! Highly Recommended Preaching Series
mp3 डाउनलोड लिंक: http://files.jain.us.com/shrish/1.Pravachan/Munishree%20KshamaSagar%20Maharaj%20Ji/KarmaSidhant/
PDF बुक डाउनलोड लिक: http://files.jain.us.com/shrish/4.books/Karam_Kaise_Karein.pdf
या अगर आप Hard-copy से पढना चाहते पर आपको ये बुक नहीं मिल पा रही हो तो आप पंडित रत्न लाल बेनाडा जी से इंदौर से मंगवा सकते है - फ़ोन: 09837025087
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