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सूत्र १०: जो होता है, उसे होने दो
क्योंकि जो होता है सो न्यायपूर्वक, जैसे सूत्र २ मे हम समझ आये हैं, इसलिये जो होता है उसे होने दो।
क्योंकि जीनें में इन्द्रिय से सुखी या दुखी होने का कोई कारण नहीं, इसलिये शान्तिपूर्वक समता से सुखी और प्रसन्न जीव को रहना चाहिये।
जीवन में कर्म के निमित्त से अनेक उतार चढाव आते हैं- वे पुराने किये हुये कार्यो के ही फ़ल हैं, इसीलिये न्यायपूर्वक(justified) हैं और इसीलिये उन्हे दूर भगाने या नजदीक ही रख लेने का कोई मतलब नहीं है। इसलिये सुखी रहो। कोई कारण नहीं कि हम आयी परिस्थिति से प्रेम करे या द्वेष करे।
सुखी प्रभु की हम उपासना करे। मन्दिर में जाते हुये प्रभु के दर्शन करें, तो उनके सुख का विचार करें- उनका सुख असीम है। उसकी तुलना समुन्द्र से नहीं कर सकते क्योंकि उसकी गहराई और विस्तार की तो सीमा है, मगर प्रभु का सुख तो सीमा से परे हैं। उसकी तुलना आसमान की ऊंचाई से भी नहीं कर सकते क्योंकि उसकी भी सीमायें हैं। ना ही उसकी तुलना चन्द्रमा को देखने से मिली शान्ति से कर सकते, क्योंकि वो तो कुछ पल के लिये, मगर प्रभु का सुख तो अनन्त सुख के लिये है। ऐसे अनन्तसुखी प्रभु के दर्शन करते ही चमत्कार होता है, हमारे अन्दर भी सच्चे सुख की छोटी लहर जन्म ले लेती है, और वो ही बढते बढते मुनी अवस्था मे महा समुन्द्र का रूप ले लेती है और मुक्त अवस्था में असीम हो जाती है।
सुखी मुनिजन की हम उपासना करें। जो हर परिस्थिती में समता सुख का पान करते हैं। आहार मिला तो सुखी, नहीं मिला तो सुखी। किसी ने गाली दी तो सुखी, प्रशंसा करी तो सुखी। रोग हुआ तो सुखी, निरोग रहें तो सुखी। विरोधी मिले तो सुखी, भक्त मिले तो सुखी। जीये तो सुखी, मरे तो सुखी। सर्व अवस्था में समता।
वैसे भी देखा जाये तो दुखी होने का कोई कारण नहीं। क्योंकि आत्मा तो सदा शाश्वत है और कभी अपने स्वभाव को छोङती नहीं, तो फ़िर इन्द्रियों में सुखी दुखी होने का क्या कारण? आत्मा से कोई कुछ छीन नहीं सकता और ना ही कुछ दे सकता, तो किस बात का राग या किस बात का द्वेष।
इसका मतलब ये ना समझना कि हम तो अब सुखी, अब भक्ति, दान, स्वाध्याय इत्यादि से क्या फ़ायदा। और आलोचना, प्रतिक्रमण से क्या फ़ायदा। ऐसा समझे तो अनर्थ हो जायेगा। मार्ग निश्चय-वयवहारात्मक है, निश्चय और व्यवहार दोनो का ही हम ध्यान रखें।
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✿ सूत्र ९: कोई अच्छा नहीं, कोई बुरा नहीं
वास्तव में संसार मे अच्छे बुरे का कोई भेद नहीं। बचपन में माता पिता हमें अच्छे बुरे का भेद समझाते हैं। वास्तव में उसका मतलब ये नहीं कि बाहर में कोई अच्छा या बुरा है, वरन अमूक प्रकार के व्यक्ति का आश्रय लेकर हम कुछ अपना हित या अहित कर बैठेंगे, यही इसका मतलब है। यही बात पहले सूत्र ३ ’पर वस्तु से सुख दुख नहीं होता’ में हम समझ आये हैं। स्थूल दृष्टि में तो लौकिक जन बाहर मे अच्छे बुरे का भेद करते हैं, मगर सूक्षम दृष्टि रखने वाले ज्ञानीजन सब को एक ही दृष्टे से देखते हैं। यही समता, सुख, शान्ति उपजाने क सूत्र है।
यह भी बात समझने योग्य है: एक ही व्यक्ति के सदगुणो को आश्रय लेकर हम अपन हित कर लेते हैं, और उसी के दुर्गुणो को लेकर हम अहित कर लेते हैं- तो हम उस व्यक्ति को अच्छा या बुरा कैसे कह सकते हैं।
निम्न कविता इसी बात को और समझाती है:
जन्म लिया स्त्री कोख से, सोचा कितना दर्द सहा उसने मेरे कारण
सुख मिला मुझे उसकी सेवा से, सोचा कितना सुख मिला उसके कारण
निर्भयता मिलि, सोचा कितना सुख मिला पिता के कारण
डांट पङी, सोचा कितना दुख मिला पिता के कारण
स्कूल के विद्यार्थीयों में, मैं जब हिलने डुलने लगा
कैसे संगी से सुख दुख मिलता, यह सब सीखने लगा
माता पिता अरू गुरूऒं ने, बार बार ये समझाया
आसपास के मासूम जीवो को, अच्छा बुरा देखना बतलाया
सिद्धहस्त करने चले थे, हम स्कूल में जीने की कला को
मगर अच्छे बुरे का बोझ, वहीं से सीखता चला आया
विद्या सीखी और कला, कैसे अच्छे बुरे को पहचानू
अच्छे से प्रेम करू, और बुरे को अपना ना मानू
तोङ दिया अखण्ड दुनिया को, दो भागो मे इस तरह
एक को नाम दिया अच्छा, दूसरे को बुरा समझ दुतकार दिया
जब सिद्धहस्त हुआ इस हुनर में, फ़िर नयी कलाओ का समय आया
बुरे और अच्छे के, नयें नयें प्रयोगो में चित्त लगाया
धर्म, जाति, मित्र, व्यक्ति, शहर, देश, भोजन और काल
मकान, दुकान, मन्दिर, मस्जिद, सबको दो भागो में चीर डाला
अच्छे का अच्छा करता रहा, बुरे से मैं दूर रहा
अगर बुरा मिल जाये तो, उससे इर्ष्या, क्रोध खूब करा
व्यक्ति को उसके रूप रंग से, अच्छे बुरे में तोल डाला
थोङा धर्म पङ लिया तो, उसमें भी अच्छा बुरा ढूंढ डाला
ना कोई अच्छा ना कोई बुरा, सब अन्दर का मैल था
अन्दर तो धोया नही, कल्पनाओं में सारा जगत धो डाला
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सूत्र ८: कोई मेरा नहीं
ये सूत्र बहुत ही महान सूत्र है, ये जगत की वास्तविकता का सच्चा बोध कराने वाला है। जगत के मध्य रहते हुये भी जगत के राग से हमें छुटाने वाला है। यह परम सत्य है, और पूर्ण सुख का कारण है। अनगिनत मुनियों ने इस सुत्र का ध्यान कर वीतरागता को अपनाया है, और सब भव्य जनो का यह सूत्र भला करने वाला है।
पहले हम ये समझते है कि वास्तव में हम किसे अपना समझते हैं। स्थूल रूप से - देश मेरा, समाज मेरा है। और कम स्थूल पर जायें तो परिवार, कुटुम्ब, मित्र मेरे हैं। और सूक्ष्म पर जायें तो शरीर मेरा है। और अध्यत्मिकता की सूक्ष्मता में जाये तो राग द्वेष अज्ञानता मेरी है, विकल्प मेरे हैं। इस प्रकार का मेरा-पना हमारे अन्दर बसा हुआ है। वास्तविकता में देखा जाये तो इनमें से हमारा कोई भी नहीं।
इनमें एक उदाहरण देखे- मानो हमारा एक मित्र को जो कर्तव्य निभाने वाला और सही दिशा दिखाने वाला हो, और एक आदर्श मित्र के सर्व गुणो से युक्त हो। तो वास्तव में क्या वह व्यक्ति हमारा मित्र है? तो इसमें पहली बात तो हमारे भाग्य अनुसार ही हमें मित्र मिला है। और जो वो हमारा अच्छा बुरा करता है वो भी कर्मानुसार करता है। हमारा पुण्य अच्छा है तो वो हमारी इच्छा के अनुसार की कार्य करता है, और हम मान बैठते हैं कि ये तो मेरा भला करने वाला है- इसलिये मित्र है। अभी ही पाप उदय आये और वो ही मित्र प्रतिकूल हो जाये तो हम कहेंगे कि ये ’मेरा शत्रु’ है। वास्तव में तो ना मित्र था और ना ही शत्रु है- मात्र भाग्य उदयानुसार निमित्त था जैसे कि Caishier होता है, जो बैंक में जाने पर हमारे ही पैसे हमे देने मे सहयोगी बनता है- उसे हम यह तो नहीं कह सकता है कि वो Caishier हमें महीने के खर्च के पैसे देने वाला है।
वास्तव मे जब हम कहते हैं कि यह मित्र मेरा है, तो हम समझते है कि वो हमारा साथ निभायेगा और हमारी उम्मीदो के अनुसार परिणमन करेगा। और वास्तव मे ऐसा कई बार देखने में भी आता है, मगर ऐसा नियम नहीं है। और इस प्रकार के अनुकूल परिणमन में मूल कारण वो मित्र नहीं वरन हमारा भाग्य है। तो हम अपने भाग्य को तो अपना मित्र या शत्रु कह सकते हैं, उस मित्र को नहीं। यहां शास्त्रीय भाषा में भाग्य(कर्म) को अन्तरंग निमित्त और उस मित्र को बहिरंग निमित्त कहते हैं।
इसी प्रकार से ये देश मेरा नहीं। ये समाज मेरा नहीं। ये परिवार मेरा नहीं। ये स्त्री, पुत्र मेरे नहीं। यहां तक कि शरीर भी मेरा नहीं, क्योंकि जिस प्रकार से सम्बन्ध मित्र से हम उपर समझ आयें हैं वैसा ही सम्बन्ध शरीर के साथ बनता है। और सूक्ष्म में जाये तो एक दृष्टी से राग द्वेष भी मेरे नहीं, और वही दष्टी सुखदायिनी है और ग्रहण करने योग्य है। ऐसा समझने से और आस्था करने से भव्य जन आत्मिक सुख शान्ति को प्राप्त करते हैं। ऐसा विश्व में सत्य को उद्घोषित करते हुये अनन्तकाल से जिनेन्द्र भगवन्त कहते आये हैं, और भविक जन इस वस्तु स्वरूप को जानकर चरितार्थ करते हुये इच्छाओं से रहित, अनन्त सौख्य सहित मोक्ष अवस्था को प्राप्त करते आयें हैं। हम भी इस सूत्र को सदा के लिये अपना लें।
इस सूत्र के साथ और भी सूत्र हमें अपनाने हैं: घर मेरा नहीं। स्त्री मेरी नहीं। धन मेरा नहीं। समाज मेरा नहीं। शरीर मेरा नहीं। सूक्ष्म दृष्टी में राग-द्वेष मेरे नहीं।