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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡
📜 *श्रंखला -- 42* 📜
*सुखराजजी भंडारी*
*अच्छे कवि*
सुखराजजी राजस्थानी भाषा के अच्छे कवि थे। उनके छंद और कवित्त धार्मिक जनता में अत्यंत आदर प्राप्त करते थे। कविता बोलने कि उनकी पद्धति बहुत सुंदर तथा ओजस्वी थी। वे बहुधा धार्मिक रचनाएं ही किया करते थे। कालांतर में तो उन्होंने आत्म प्रेरित होकर यह संकल्प भी कर लिया कि किसी सांसारिक व्यक्ति के यशोगान में कविता नहीं लिखेंगे। उन्होंने जयाचार्य के गुणानुवाद में सैकड़ों पद्य के लिखे। स्वामीजी तथा तेरापंथ के विषय में भी काफी लिखा।
सुखराज जी के बड़े पुत्र देवराजजी तथा पौत्रों ने मिलकर उनकी कृतियों को एकत्रित किया। संकलन की पांडुलिपि तैयार कर ली गई। तभी एक व्यक्ति ने वापस सुरक्षित पहुंचा देने का वचन देकर उनसे वह संग्रह लिया। लंबे समय के पश्चात् भी जब वह वापस नहीं लौटाया गया तब खोजबीन प्रारंभ हुई। पूछताछ करने पर पता चला कि वह संकलन तो कहीं खो गया। जिन प्राचीन बहियों से वह तैयार किया गया था, वे सब पहले ही रद्दी में बेच दी गईं, अतः दोबारा संगृहीत करने का भी कोई उपाय नहीं रह पाया। उस खोए संकलन में संगृहीत कृतियों में से कुछ के नाम इस प्रकार कार थे— सुखबावनी, भिक्खु-अखरावलि, शासन-सोहली, बैराग-बत्तीसी, जय-ज्योत्स्ना, मघवा-माधुरी, गुलाब-गजरो, तेरापंथ-तोरण तथा विवेक-बारखड़ी।
*उसी परम्परा का*
उस समय बहादुरमलजी भंडारी की हवेली कवियों का संगम स्थल और आश्रय स्थल मानी जाती थी। लोग उसे कवियों का पीहर भी कह देते थे। स्थानीय तथा बाहर से आए हुए कवि प्रायः प्रतिदिन वहां एकत्रित होते। सुखराजजी की बैठक भी वहीं थी। कविताओं का दौर चलता। अन्य कवि जहां वीर रस, श्रृंगार रस तथा हास्य रस की कविताएं सुनाते, वहां सुखराजजी वैराग्य एवं भक्ति की कविताएं सुनाते।
एक दिन एक चारण कवि ने कहा— "भंडारीजी! आप इतनी रचना करते हैं, परंतु कभी जोधपुर नरेश के यशोगान में तो कोई कविता नहीं सुनाते। एक बार आप नरेश के दरबार में कविता पाठ अवश्य करें। आप तो राजकर्मचारी हैं। अवश्य ही यह बात जानते हैं कि नरेश से संपर्क बढ़ाने में लाभ ही लाभ है।"
भंडारीजी ने कहा— "मेरा संकल्प है कि मैं किसी संसारी के यशोगान में कविता नहीं लिखता। केवल संतजनों अथवा धार्मिक गुरुओं की स्तुति में ही लिखता हूं।"
चारण कवि ने कहा— "कल यदि मैं नरेश के सम्मुख आपकी कविता की बात छेड़ दूं और नरेश आपको बुलाकर कविता सुनाने को कहें, तब आप उस आदेश को कैसे टाल सकेंगे?"
भंडारीजी मुस्कुराए और बोले— "अनेक पूर्वज कवियों को समय-समय पर नरेश ही क्यों सम्राट भी अपनी यशोगाथा सुनाने का आदेश देते रहे हैं, परंतु जिन पर भक्ति का रंग चढ़ा हुआ था, उन्होंने तो अपने आराध्य के ही गुण गाए। सम्राटों की कामना उनसे कभी पूरी नहीं हुई। मैं भी उसी परंपरा पर चलने वाला हूं। तुम्हें परीक्षा करनी हो तो करके देख लेना। मैं अपने निश्चय से हटूंगा नहीं।" उन्होंने भावों के उसी प्रवाह में तत्काल एक छंद की रचना की और उसमें अपनी प्रतिज्ञा को दोहराते हुए कहा—
"संघ रो रंग रच्यो इण अंग,
प्रसंग विरंग न मो मन भासी
ईभ के अब चढ्यो जे अचंभ,
गधै गलिहार के हेत उम्हासी?
राज को काज करै सुखराज,
भले पर गाज ओगाज सुणासी
छंद कबंध को संघ अमंद,
ओ नंद सुणासी उठै ही सुणासी।।"
उपस्थित सभी कवियों ने उनके संकल्प की प्रशंसा की। वह चर्चा फिर वही समाप्त हो गई।
*श्रावक सुखराजजी भंडारी का कविता परिचय* प्राप्त करेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रंखला -- 388* 📝
*नित्य नवीन आचार्य नेमिचन्द्र*
प्रस्तुत नेमिचंद्र जैन विद्या के मनीषी टीकाकारों में थे। वे संस्कृत तथा प्राकृत दोनों भाषाओं के अधिकारी विद्वान् थे। जैन दर्शन के विविध विषयों का उन्होंने गहन अध्ययन किया। सुखबोधा टीका आचार्य नेमिचंद्र की प्रसिद्ध रचना है।
*गुरु-परम्परा*
नेमिचंद्रसूरि की गुरु-परंपरा सुखबोधा टीका प्रशस्ति, आखयान मणिकोष प्रस्तावना 'रयण चूड़चरियं' ग्रंथ में है।
नेमिचंद्रसूरि चंद्रकुल के वृहदगच्छीय उद्द्योतनसूरि के प्रशिष्य और उपाध्याय आम्रदेवसूरि के शिष्य थे। मुनि चंद्रसूरि उनके गुरु बंधु थे। आचार्य पद प्राप्ति के पूर्व नेमिचंद्रसूरि का नाम देवेंद्रगणी था।
इस गच्छ की गुरु परंपरा में कठिन शीलचर्या के पालक, गण-गुण संपन्न, उग्रविहारी आचार्य देवसूरि हुए। देवसूरि के चार शिष्य थे। उद्द्योतनसूरि, यशोदेवसूरि, प्रद्युम्नसूरि, मानदेवसूरि।
निर्मल चेतना के धनी उद्द्योतनसूरि के शिष्य उपाध्याय आम्रदेव और आम्रदेव के शिष्य नेमिचंद्रसूरि थे।
*जीवन-वृत्त*
नेमिचंद्रसूरि कहां और किस वंश में जन्मे, उनकी दीक्षा किस प्रदेश में हुई, इस संबंध में सामग्री अनुपलब्ध है।
नेमिचंद्रसूरि के दो नाम मिलते हैं। देवेंद्रगणी और नेमिचंद्रसूरि गणी पद प्राप्ति से पूर्व उनका नाम देवेंद्र था। प्रद्युम्नसूरि के शिष्यों के साथ उनके अच्छे संबंध थे। प्रद्युम्नसूरि के शिष्य जसदेवगणी ने आखयानमणीकोश की प्रतिलिपि तैयार की।
उत्तराध्ययन की सुखबोधा टीका और महावीर चरियं ग्रंथ की रचना अणहिल्लपुर पाटण नगर में हुई। रयणचूड़ चरियं ग्रंथ की रचना डिंडिलपद निवेश में प्रारंभ हुई तथा चड्डावलीपुरी में समाप्त हुई।
इन दोनों ग्रंथों में समागत संदर्भों के आधार पर अनुमान होता है कि नेमिचंद्रसूरि का साहित्य साधना क्षेत्र मुख्यतः गुजरात तथा राजस्थान रहा है।
अणहिल्लपुर पाटण चौलुक्यवंशी राजाओं के शासनकाल में गुजरात का राजधानी नगर था। चड्डावलीपुरी चंद्रावती नगर संभव है। जिसे मंत्री विमल ने आबू मंदिर के निर्माण के समय बसाया था।
*नित्य नवीन आचार्य नेमिचन्द्र की ग्रन्थ-रचना* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
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👉 प्रेक्षा ध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ
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*21 अगस्त से 28 अगस्त 2018*
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