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#28_मूलगुण पालन करते समय कदम-कदम पर, क्षण-क्षण में हमे लाभ ही लाभ है। #आचार्यश्रीजी कहते हैं- ‘मूलाचार में यह उल्लेख मिलता है जो व्यक्ति मूल की रक्षा नहीं करता है और टहनी, शाखाओं, उपशाखाओं, फल, फूल, पत्ते व कोंपल इत्यादि सुरक्षित रखना चाहता है, यह संभव नहीं है। मूल के बिना कुछ भी मूल्यवान नहीं होता, मूल रहेगा तभी ब्याज मिलता है अन्यथा नहीं। सब जगह ये ही युक्तियाँ हैं
#आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने कहा था- ‘मूलधन को सुरक्षित रखना, ज्यादा ब्याज के लोभ में नहीं पड़ना, प्रचार-प्रसार में मूलगुणों को भुलाना नहीं।'
मूलाचार पढो, बारबार पढ़ो और अपनी तुलना करते चलो। डायरी लिखने मात्र से कुछ नहीं होता। लिखा हुआ भी जीवन में नहीं आ रहा है, तो उन लिखी हुईं डायरियों का क्या महत्त्व? सब अलग रख दो। निश्चय यानी ‘समयसार' की आँख और व्यवहार यानी मूलाचार की आँख। बाहर की मुद्रा व्यवहार और भीतर की मुद्रा निश्चय है। बाहर आने पर बाहर की मुद्रा से चलेंगे तो ठीक रहेगा और भीतर जाने पर भीतर की मुद्रा से चलेंगे तभी ठीक रहेगा। इस प्रकार अंत में उपसंहार यही निकलता है कि यदि व्यवहार को नहीं अपनाओगे तो निश्चय तक नहीं पहुँच सकोगे। मूलगुण साधुत्व की कसौटी है। इस कसौटी पर आचार्य श्री विद्यासागरजी को परखने पर हम उन्हें शुद्ध स्वर्ण की भाँति खरे पाते हैं। आपको इंद्रियाँ नहीं नचाती, बल्कि वे आपके इशारे पर नाचती हैं। योग (मन, वचन, काय) आपको नहीं भटकाते, अपितु योगों का प्रवर्तन आपकी इच्छा पर निर्भर है। आपके शरीर का प्रत्येक अवयव आपकी आज्ञा का पालन करता है।
#आचार्यश्रीजी सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान एवं चारित्र की अमूल्य निधि के ऐसे खजाँची हैं, जिसका उन्होंने केवल संरक्षण ही नहीं किया, बल्कि पूर्ण आस्था, संकल्प और दृढता के साथ उपयोग करते हुए उसका संवर्धन भी किया है। यही कारण है कि आचार्यश्रीजी की निर्दोष ‘प्रायोगिक' चर्या से बना उनका ‘महत् व्यक्तित्व' जिनशासन को गौरवान्वित करता हुआ, आत्मजयी बनकर ‘अशेष' (संपूर्ण) कर्मों से मुक्त कराने में साधकभूत होकर श्रमणधर्म की गौरवगाथा गा रहा है। ऐसे ‘गौरवशाली व्यक्तित्व के चरणों में हार्दिक श्रद्धा और भक्तिभाव से नत होकर हम सब आत्मगौरव का अनुभव करते हैं।
मुनियों के 28 मूलगुण समस्त प्रयोजन की सिद्धि करने वाले हैं। जिस प्रकार बाजार में सामान खरीदने जाते हैं। तो पैसों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार जब हम शुद्धोपयोग आदि ध्यान-तप करना चाहें तो उसके लिए 28 मूलगुण होना जरूरी है
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प्रात: काल आचार्यश्री के साथ शौच क्रिया को गए थे। मौसम बारिश का था। जाते समय बारिश नहीं हो रही थी, बाद में बारिश होने लगी। लौटते समय हवा के साथ पानी आने से आचार्यश्री और हम लोग भीग गए। मंदिर में आने के बाद आचार्यश्री का कपड़े से प्रक्षाल किया गया। तभी कुछ देर आचार्यश्री मौन रहने के बाद बोले
जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय।
फिर थोड़ी देर में बोले- 'देखो हम लोग इन पंक्तियों को पढ़ते हैं और दूसरों को सुनाते हैं, याद भी कर लेते हैं, लेकिन इन पंक्तियों के अनुसार पूर्णतया चल नहीं पाते।' बाद में पुनः गंभीरता में बोल- 'देखो वे मुनिराज, पूरा चातुर्मास एक वृक्ष के नीचे निकाल देते हैं, खड़े होकर या बैठकर ध्यान करते हैं। हम हैं कि कमरे में रहते हुए भी इसी विकल्प में लगे रहते हैं कि कहाँ चातुर्मास करना है? कब आएगा वह दिन जब हमें भी वैसा शरीर संहनन प्राप्त होगा? उत्तम संहनन प्राप्त करके हम भी वृक्ष के नीचे चातुर्मास कर सकें। बस यही भावना है।' सोचा- धन्य हैं गुरुदेव जिनके ऐसे भाव! इस पंचमकाल के आधुनिक युग में एक आध्यात्म ज्योति ने पुन: इस भारत वसुधा पर जिनशासन की महिमा को जन-जन को बताया।
रजत जैन भिलाई
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namo jinanam 🙂🙏
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तीर्थराज सम्मेद शिखर जी में बादलों के बीच पद्मप्रभु भगवान की टोंक के पास ध्यानमग्न कर्मों की निर्जरा करते दिगम्बर मुनिराज 🔥🙏🏻
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