22.08.2018 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 22.08.2018
Updated: 24.08.2018

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👉 हांसी: "अणुव्रत बने जीवन मूल्यों की प्रयोगशाला" विषयक संगोष्ठी का आयोजन
प्रस्तुति: 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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👉 प्रेरणा पाथेय:- आचार्य श्री महाश्रमणजी
वीडियो - 22 अगस्त 2018

प्रस्तुति ~ अमृतवाणी
सम्प्रसारक 🌻 *संघ संवाद* 🌻

Update

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रंखला -- 407* 📝

*कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र*

*जन्म एवं परिवार*

गतांक से आगे...

देवचंद्रसूरि योग्य बालक को पाकर प्रसन्न हुए। वे उसे लेकर कर्णावती पहुंचे। वहां सुरक्षा की दृष्टि से बालक को उदयन मंत्री को सौंप दिया। मंत्री उदयन जैन धर्म के प्रति आस्थाशील था। श्रेष्ठी चाचिग जब घर आया तब बालक को घर पर न पाकर अत्यंत दुःखी हुआ। नाना प्रकार के विकल्प उसके मस्तिष्क में उभरे। पुत्र मिलन पर्यंत भोजन ग्रहण करने का परित्याग कर वह वहां से चला। कर्णावती पहुंचकर वह देवचंद्रसूरि के पास गया। गुरु के व्यवहार से रुष्ट चाचिग अच्छी तरह से वंदन किए बिना ही अकड़कर बैठ गया। देवचंद्रसूरि मधुर उपदेश से उसे समझाने लगे। मंत्र उदयन चाचिग के आगमन की सूचना पाकर वहां पहुंच गया। मंत्री उदयन वाक्-निपुण था। वह श्रेष्ठी चाचिग को आत्मीयभाव के साथ अपने घर ले गया। उसके भोजन की समुचित व्यवस्था की। भोजन के पश्चात् मंत्री ने चांगदेव को उसकी गोद में बैठा दिया। तथा तीन दुकूल और तीन लाख मुद्राएं भेंट कीं। चाचिग का हृदय देवचंद्रसूरि की मंगलवाणी को सुनकर पहले ही कुछ परिवर्तित हो गया था। उदयन मंत्री के शिष्ट और शालीन व्यवहार से वह अत्यधिक प्रभावित हुआ। उसने कहा "मंत्रीवर! यह तीन लाख की द्रव्य राशि आपकी उदारता को नहीं, कृपणता को प्रकट कर रही है। मेरे पुत्र का मूल्य इतना ही नहीं है, वह अमूल्य है, परंतु आपकी भक्ति भी मूल्यवान् है। आपके द्वारा प्रदत्त मुद्राओं की यह द्रव्य राशि मेरे लिए अस्पृश्य है। आपकी भक्ति के सामने नतमस्तक होकर मैं अपने पुत्र की भेंट आपको चढ़ाता हूं।"

उदयन मंत्री ने प्रमुदित होकर श्रेष्ठी चाचिग को गले से लगा लिया और साधुवाद देते हुए कहा "मुझे अर्पण करने से तुम्हारे पुत्र का वह विकास नहीं होगा जो विकास गुरु चरणों में सम्भाव्य है। गुरु की सन्निधि में तुम्हारा यह पुत्र गुरुपद को प्राप्त कर बालेंदु की तरह त्रिभुवन में पूज्य होगा।"

मंत्री उदयन के इस परामर्श को स्वीकार करता हुआ श्रेष्ठी चाचिग देवचंद्रसूरि के पास गया और उसने अपना पुत्र गुरु को समर्पित कर दिया। देवचंद्रसूरि ने उसे मुनि प्रव्रज्या प्रदान की। मंत्री उदयन के सहयोग से श्रेष्ठी चाचिग ने दीक्षा महोत्सव मनाया।

*चांगदेव के मुनि दीक्षा ग्रहण के समय व कालांतर में आचार्य पद प्राप्ति आदि* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡

📜 *श्रंखला -- 61* 📜

*मदनचंदजी राखेचा*

*राजभवन में पौषध*

पुष्करणा ब्राह्मणों के साथ झगड़े की घटना के पश्चात् मदनचंदजी के प्रति ब्राह्मणों के मन में एक गांठ पड़ गई। वे अंदर ही अंदर उन्हें अपमानित करने तक बदला लेने का षड्यंत्र करने लगे। उन्हें पता लगा कि संवत्सरी के अवसर पर वे प्रतिवर्ष तीन दिनों की छुट्टी लेते हैं। उन्होंने उसी कार्य में विघ्न डालने का निर्णय किया। पर्युषण के दिन आए तब प्रतिवर्ष की तरह मदनचंदजी ने तीन दिनों की छुट्टी ली। ब्राह्मण इसी अवसर की प्रतीक्षा में थे। नरेश तक पहुंचने का सामर्थ्य रखने वाले कुछ प्रभावशाली ब्राह्मणों ने शिकायत करते हुए नरेश से कहा कि मदनचंदजी प्रतिवर्ष तपस्या के नाम पर झूठ-मूठ की छुट्टी लेते हैं। ऊंचा पद दिया है उसके अनुरूप वे राज्य के किसी भी कार्य की कोई चिंता नहीं करते।

उन लोगों की बातों ने शीघ्र ही रंग दिखाया। राखेचाजी के विषय में नरेश के मन में भ्रांति हो गई। छुट्टी दे देने के पश्चात् भी उन्होंने उसी दिन आदमी भेजकर उनसे कहलवाया कि कल प्रातः सूर्योदय से पूर्व ही राजभवन में उपस्थित होना है।

राजाज्ञा को टाल देना तो जानबूझकर विपत्ति को निमंत्रण देना था, अतः मदनचंदजी यथासमय राजभवन में पहुंच गए। नरेश ने उन्हें देखा तो बोले— "तुम्हें आज यहीं ठहरना है। जब तक अन्य आदेश न दिया जाए तब तक घर मत जाना।"

मदनचंदजी उसी समय समझ गए कि किसी ने नरेश को भ्रांत कर दिया है। नरेश को तत्काल अपनी बात समझा पाना कठिन था, अतः उन्होंने चुपचाप आदेश को सुना और वहीं बैठ गए। नरेश आज्ञा देकर अन्यत्र चले गए। अपने दैनिक कार्यों में व्यस्त होने के पश्चात् वे भूल ही गए कि कोई दूसरे आदेश की प्रतीक्षा कर रहा होगा।

मदनचंदजी ने कुछ देर तक तो नरेश के पुनरागमन की प्रतीक्षा की, परंतु जब देखा कि अब उनसे शीघ्र मिल पाना कठिन है, तो उन्होंने वहीं राजभवन में ही तीन दिनों का पौषध व्रत ग्रहण कर लिया और उपयुक्त स्थान में ध्यानस्थ होकर माला फेरने लगे। आदेश के बिना घर चले जाने की अपेक्षा उन्हें यही अधिक प्रशस्त मार्ग प्रतीत हुआ। वहां कार्य करने वाले नौकरों तथा अधिकारियों ने साश्चर्य उन्हें वहां बैठने का कारण पूछा, परंतु जब वे किसी से कुछ नहीं बोले और माला फेरते रहे, तब सभी अपने-अपने कार्य में लग गए।

दूसरे दिन प्रातः नरेश को याद आया कि कल मदनचंद को पूछे बिना घर जाने का निषेध किया था, परंतु वह अभी तक भी पूछने के लिए कैसे नहीं आया? नौकरों से पूछने पर पता चला कि वे तो मुखवस्त्रिका बांधकर वहीं बैठे हुए हैं और माला फेर रहे हैं। नरेश को अपनी विस्मृति पर उस समय अवश्य ही कुछ खेद हुआ होगा। उन्होंने नौकरों से कहा— "उसको किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो पूर्ति कर दो, उसके अतिरिक्त वह जैसा करता हो करने दो। किसी प्रकार का विघ्न मत करना।"

नौकरों ने उनके पास जाकर आवश्यकता की पूछताछ की, परंतु वे कुछ भी नहीं बोले। आखिर तीन दिन पूरे हुए तब उन्होंने पौषध पूर्ण किया और नरेश से घर जाने की आज्ञा मांगी।

*मदनचंदजी राखेचा ने जब घर जाने की अनुमति मांगी तो नरेश ने क्या कहा...? उनकी प्रार्थना पर युवाचार्य जय के बीकानेर चातुर्मास* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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👉 प्रेक्षा ध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ

प्रकाशक - प्रेक्षा फाउंडेसन

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