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'सम्बोधि' का संक्षेप रूप है— सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र। यही आत्मा है। जो आत्मा में अवस्थित है, वह इस त्रिवेणी में स्थित है और जो त्रिवेणी की साधना में संलग्न है, वह आत्मा में संलग्न है। हम भी सम्बोधि पाने का मार्ग प्रशस्त करें आचार्यश्री महाप्रज्ञ की आत्मा को अपने स्वरूप में अवस्थित कराने वाली कृति 'सम्बोधि' के माध्यम से...
🔰 *सम्बोधि* 🔰
📜 *श्रृंखला -- 60* 📜
*अध्याय~~5*
*॥मोक्ष-साधन-मीमांसा॥*
💠 *भगवान् प्राह*
*41. मोक्षाभिलाषः संवेगो, धर्मश्रद्धाऽस्ति तत्फलम्।*
*वैराग्यञ्च ततस्तस्माद्, ग्रन्थिभेदः प्रजायते।।*
व्यक्ति में पहले मोक्ष की अभिलाषा— संवेग होता है। संवेग का फल है— धर्म-श्रद्धा। जब तक व्यक्ति में मुमुक्षाभाव नहीं होता, तब तक धर्म के प्रति श्रद्धा नहीं होती। धर्म श्रद्धा का फल है— वैराग्य। वैराग्य का फल है— ग्रंथि-भेद। आसक्ति से जो मोह की गांठ घुलती है, वह वैराग्य से खुल जाती है।
*42. भिन्ने ग्रंन्थौ दृढाऽऽबद्धे, दृष्टिमोहो विशुद्ध्यति।*
*चारित्रञ्च ततस्तस्मात्, शीघ्रं मोक्षो हि जायते।।*
दृढ़ता से आबद्ध ग्रंथि का भेद होने पर 'दर्शनमोह' की शुद्धि होती है, दृष्टिकोण सम्यक् बन जाता है। इसके पश्चात् चारित्र की प्राप्ति होती है। पूर्ण चारित्र की प्राप्ति होने पर मोक्ष की उपलब्धि होती है।
*43. धर्मश्रद्धा जनयति, विरक्तिं क्षणिके सुखे।*
*गृहं त्यक्त्वाऽनगारत्वं, विरक्तः प्रतिपद्यते।।*
धर्म-श्रद्धा से क्षणिक सुखों के प्रति विरक्ति का भाव उत्पन्न होता है और विरक्त मनुष्य गृहत्यागी अनगार बनता है, मुनि-धर्म को स्वीकार करता है।
*44. विरज्यमानः साबाधे, नाबाधे प्रयतः सुखे।*
*अनाबाधसुखं मोक्षं, शाश्वतं लभते यतिः।।*
जो मुनि बाधाओं से परिपूर्ण सुख से विरक्त होकर निर्बाध सुख को पाने का यत्न करता है, वह अनाबाध सुख से संपन्न शाश्वत मोक्ष को प्राप्त होता है।
*45. अध्रुवेषु विरक्तात्मा, ध्रुवाण्याप्तुं प्रचेष्टते।*
*सोऽध्रुवाणि परित्यज्य, ध्रुवं प्राप्नोति सत्वरम्।।*
जो व्यक्ति अध्रुव-अशाश्वत, तत्त्व से विरक्त होकर ध्रुव तत्त्व को प्राप्त करने में प्रयत्नशील बनता है, वह अध्रुव तत्त्व पौदग्लिक पदार्थ को छोड़कर शीघ्र ही ध्रुव तत्त्व परमात्मभाव को प्राप्त कर लेता है।
*इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचितेसंबोधिप्रकरणे*
*मोक्षसाधनमीमांसानामा पंचमोऽध्यायः।*
*छठे अध्याय क्रिया-अक्रियावाद में पूर्ण धार्मिक... अपूर्ण धार्मिक... धार्मिक... तीनों ही व्यक्तियों के कर्म और कर्म फल की मीमांसा...* जानेंगे... समझेंगे... प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली श्रृंखला में... क्रमशः...
प्रस्तुति- 🌻 *संघ संवाद* 🌻
'सम्बोधि' का संक्षेप रूप है— सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र। यही आत्मा है। जो आत्मा में अवस्थित है, वह इस त्रिवेणी में स्थित है और जो त्रिवेणी की साधना में संलग्न है, वह आत्मा में संलग्न है। हम भी सम्बोधि पाने का मार्ग प्रशस्त करें आचार्यश्री महाप्रज्ञ की आत्मा को अपने स्वरूप में अवस्थित कराने वाली कृति 'सम्बोधि' के माध्यम से...
🔰 *सम्बोधि* 🔰
📜 *श्रृंखला -- 60* 📜
*अध्याय~~5*
*॥मोक्ष-साधन-मीमांसा॥*
💠 *भगवान् प्राह*
*41. मोक्षाभिलाषः संवेगो, धर्मश्रद्धाऽस्ति तत्फलम्।*
*वैराग्यञ्च ततस्तस्माद्, ग्रन्थिभेदः प्रजायते।।*
व्यक्ति में पहले मोक्ष की अभिलाषा— संवेग होता है। संवेग का फल है— धर्म-श्रद्धा। जब तक व्यक्ति में मुमुक्षाभाव नहीं होता, तब तक धर्म के प्रति श्रद्धा नहीं होती। धर्म श्रद्धा का फल है— वैराग्य। वैराग्य का फल है— ग्रंथि-भेद। आसक्ति से जो मोह की गांठ घुलती है, वह वैराग्य से खुल जाती है।
*42. भिन्ने ग्रंन्थौ दृढाऽऽबद्धे, दृष्टिमोहो विशुद्ध्यति।*
*चारित्रञ्च ततस्तस्मात्, शीघ्रं मोक्षो हि जायते।।*
दृढ़ता से आबद्ध ग्रंथि का भेद होने पर 'दर्शनमोह' की शुद्धि होती है, दृष्टिकोण सम्यक् बन जाता है। इसके पश्चात् चारित्र की प्राप्ति होती है। पूर्ण चारित्र की प्राप्ति होने पर मोक्ष की उपलब्धि होती है।
*43. धर्मश्रद्धा जनयति, विरक्तिं क्षणिके सुखे।*
*गृहं त्यक्त्वाऽनगारत्वं, विरक्तः प्रतिपद्यते।।*
धर्म-श्रद्धा से क्षणिक सुखों के प्रति विरक्ति का भाव उत्पन्न होता है और विरक्त मनुष्य गृहत्यागी अनगार बनता है, मुनि-धर्म को स्वीकार करता है।
*44. विरज्यमानः साबाधे, नाबाधे प्रयतः सुखे।*
*अनाबाधसुखं मोक्षं, शाश्वतं लभते यतिः।।*
जो मुनि बाधाओं से परिपूर्ण सुख से विरक्त होकर निर्बाध सुख को पाने का यत्न करता है, वह अनाबाध सुख से संपन्न शाश्वत मोक्ष को प्राप्त होता है।
*45. अध्रुवेषु विरक्तात्मा, ध्रुवाण्याप्तुं प्रचेष्टते।*
*सोऽध्रुवाणि परित्यज्य, ध्रुवं प्राप्नोति सत्वरम्।।*
जो व्यक्ति अध्रुव-अशाश्वत, तत्त्व से विरक्त होकर ध्रुव तत्त्व को प्राप्त करने में प्रयत्नशील बनता है, वह अध्रुव तत्त्व पौदग्लिक पदार्थ को छोड़कर शीघ्र ही ध्रुव तत्त्व परमात्मभाव को प्राप्त कर लेता है।
*इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचितेसंबोधिप्रकरणे*
*मोक्षसाधनमीमांसानामा पंचमोऽध्यायः।*
*छठे अध्याय क्रिया-अक्रियावाद में पूर्ण धार्मिक... अपूर्ण धार्मिक... धार्मिक... तीनों ही व्यक्तियों के कर्म और कर्म फल की मीमांसा...* जानेंगे... समझेंगे... प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली श्रृंखला में... क्रमशः...
प्रस्तुति- 🌻 *संघ संवाद* 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 157* 📜
*आचार्यश्री भीखणजी*
*जीवन के विविध पहलू*
*17. विनोदी स्वभाव*
*सूत्र-व्यतिरिक्त*
एक बार मुनि बेणीरामजी ने मुनि हेमराजजी की शिकायत करते हुए स्वामीजी से कहा— 'हेमजी को कोई भी व्याख्यान अस्खलित रूप से कंठस्थ नहीं है। जहां अटकते हैं, वहां मनमाने ढंग से जोड़कर गा देते हैं। यह अच्छा नहीं है।'
स्वामीजी ने बात को विनोद की ओर मोड़ते हुए कहा— 'केवली सदा सूत्र-व्यतिरिक्त ही होते हैं। वे जो बोलते हैं, वही सूत्र बन जाता है।'
*खोटा काम*
पीपाड़ में आचार्य रघुनाथजी के एक शिष्य मुनि जीवणजी स्वामीजी से मिले। वार्तालाप के प्रसंग में उन्होंने कहा— 'साधु का भोजन करना है अव्रत-सेवन है।'
स्वामीजी साधु के भोजन को अव्रत-सेवन नहीं मानते थे। क्योंकि वह रस-लोलुपता या केवल शरीर-पोषण के लिए न होकर संयम-पोषण के लिए होता है। उन्होंने कहा— 'भगवान् अव्रत-सेवन की आज्ञा नहीं देते। साधु को भोजन करने की आज्ञा उन्होंने दी है, अतः वह अव्रत-सेवन कैसे हो सकता है?'
मुनि जीवणजी— 'भीखणजी! आप चाहे कुछ भी कहें, वस्तुतः भोजन का त्याग ही अच्छा होता है, भोजन करना नहीं।'
स्वामीजी— 'साधु के भोजन को अच्छा कार्य नहीं मानोगे, तो क्या खोटा कार्य मानोगे?'
मुनि जीवणजी— 'प्रत्यक्ष ही खोटा है।'
स्वामीजी ने इस पर उन्हें कुछ भी नहीं कहा और वे अपने स्थान पर चले गए। उसके पश्चात् कभी गोचरी करते समय और कभी शौचार्थ जाते-आते वे प्रायः स्वामीजी को मिल ही जाया करते थे। वे जब मिलते, तब कभी-कभी विनोद में स्वामीजी पूछते— 'क्यों जीवणजी! खोटा काम कर आए हो या जाकर करोगे?'
मुनि जीवणजी को स्वामीजी के उक्त प्रश्न का प्रत्येक बार उत्तर देना बड़ा कठिन हो गया। उनके श्रावक ही उनसे पूछने लगे— 'भीखणजी आपसे खोटे काम के विषय में क्या पूछ रहे थे?'
अंत में एक दिन जब वे स्वामीजी से मिले, तो उनके पूछने से पूर्व ही बोले— 'भीखणजी साधु का भोजन खोटा काम न होकर अच्छा काम ही है।'
स्वामीजी मुस्कुराए और बोले— 'तब ठीक है।'
*दिए हुए 'डाम'*
पीपाड़ के एक भाई ने स्वामीजी के पास गुरु-धारणा की। उसके घर वालों को पता लगा, तो वे तरह-तरह से उसे तंग करने लगे और धमकियां देने लगे। कोई कहता— 'भीखणजी ने इसे गुरु-धारणा क्या कराई है, 'डाम' लगाएं हैं।' कोई कहता— 'अब यह दागी हो गया है, अतः हमारे घर में रहने योग्य नहीं है।' सब मिलकर उस पर दबाव डालने लगे कि यदि हमारे साथ सुख से रहना है, तो भीखणजी के पास की गई गुरु-धारणा उन्हें वापस दे आ।
विवश होकर वह भाई स्वामीजी के पास आया और कहने लगा— 'स्वामीजी! मेरे परिवार वाले मुझे कहते हैं कि भीखणजी ने इसके 'डाम' लगा दिए हैं। वे नाना प्रकार से मुझे कष्ट भी देते हैं, अतः आप अपने गुरु-धारणा वापस ले लें।'
स्वामीजी ने कहा— 'तू उनसे ही पूछ ले, क्या भला दिए हुए डाम कभी वापस लिए जा सकते हैं?'
*स्वामीजी द्वारा केलवा के एक भाई नगजी के सम्यक्त्व की परख का प्रसंग...* पढ़ेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 157* 📜
*आचार्यश्री भीखणजी*
*जीवन के विविध पहलू*
*17. विनोदी स्वभाव*
*सूत्र-व्यतिरिक्त*
एक बार मुनि बेणीरामजी ने मुनि हेमराजजी की शिकायत करते हुए स्वामीजी से कहा— 'हेमजी को कोई भी व्याख्यान अस्खलित रूप से कंठस्थ नहीं है। जहां अटकते हैं, वहां मनमाने ढंग से जोड़कर गा देते हैं। यह अच्छा नहीं है।'
स्वामीजी ने बात को विनोद की ओर मोड़ते हुए कहा— 'केवली सदा सूत्र-व्यतिरिक्त ही होते हैं। वे जो बोलते हैं, वही सूत्र बन जाता है।'
*खोटा काम*
पीपाड़ में आचार्य रघुनाथजी के एक शिष्य मुनि जीवणजी स्वामीजी से मिले। वार्तालाप के प्रसंग में उन्होंने कहा— 'साधु का भोजन करना है अव्रत-सेवन है।'
स्वामीजी साधु के भोजन को अव्रत-सेवन नहीं मानते थे। क्योंकि वह रस-लोलुपता या केवल शरीर-पोषण के लिए न होकर संयम-पोषण के लिए होता है। उन्होंने कहा— 'भगवान् अव्रत-सेवन की आज्ञा नहीं देते। साधु को भोजन करने की आज्ञा उन्होंने दी है, अतः वह अव्रत-सेवन कैसे हो सकता है?'
मुनि जीवणजी— 'भीखणजी! आप चाहे कुछ भी कहें, वस्तुतः भोजन का त्याग ही अच्छा होता है, भोजन करना नहीं।'
स्वामीजी— 'साधु के भोजन को अच्छा कार्य नहीं मानोगे, तो क्या खोटा कार्य मानोगे?'
मुनि जीवणजी— 'प्रत्यक्ष ही खोटा है।'
स्वामीजी ने इस पर उन्हें कुछ भी नहीं कहा और वे अपने स्थान पर चले गए। उसके पश्चात् कभी गोचरी करते समय और कभी शौचार्थ जाते-आते वे प्रायः स्वामीजी को मिल ही जाया करते थे। वे जब मिलते, तब कभी-कभी विनोद में स्वामीजी पूछते— 'क्यों जीवणजी! खोटा काम कर आए हो या जाकर करोगे?'
मुनि जीवणजी को स्वामीजी के उक्त प्रश्न का प्रत्येक बार उत्तर देना बड़ा कठिन हो गया। उनके श्रावक ही उनसे पूछने लगे— 'भीखणजी आपसे खोटे काम के विषय में क्या पूछ रहे थे?'
अंत में एक दिन जब वे स्वामीजी से मिले, तो उनके पूछने से पूर्व ही बोले— 'भीखणजी साधु का भोजन खोटा काम न होकर अच्छा काम ही है।'
स्वामीजी मुस्कुराए और बोले— 'तब ठीक है।'
*दिए हुए 'डाम'*
पीपाड़ के एक भाई ने स्वामीजी के पास गुरु-धारणा की। उसके घर वालों को पता लगा, तो वे तरह-तरह से उसे तंग करने लगे और धमकियां देने लगे। कोई कहता— 'भीखणजी ने इसे गुरु-धारणा क्या कराई है, 'डाम' लगाएं हैं।' कोई कहता— 'अब यह दागी हो गया है, अतः हमारे घर में रहने योग्य नहीं है।' सब मिलकर उस पर दबाव डालने लगे कि यदि हमारे साथ सुख से रहना है, तो भीखणजी के पास की गई गुरु-धारणा उन्हें वापस दे आ।
विवश होकर वह भाई स्वामीजी के पास आया और कहने लगा— 'स्वामीजी! मेरे परिवार वाले मुझे कहते हैं कि भीखणजी ने इसके 'डाम' लगा दिए हैं। वे नाना प्रकार से मुझे कष्ट भी देते हैं, अतः आप अपने गुरु-धारणा वापस ले लें।'
स्वामीजी ने कहा— 'तू उनसे ही पूछ ले, क्या भला दिए हुए डाम कभी वापस लिए जा सकते हैं?'
*स्वामीजी द्वारा केलवा के एक भाई नगजी के सम्यक्त्व की परख का प्रसंग...* पढ़ेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रृंखला -- 549* 📝
*अमृतपुरुष आचार्य श्री तुलसी*
*जीवन-वृत्त*
गतांक से आगे...
दुरूह ग्रंथों की परायणता के साथ लगभग बीस हजार श्लोकों को कंठस्थ कर लेना आचार्य श्री तुलसी की सद्यःग्राही स्मृति का परिचायक था।
सोलह वर्ष की लघुवय में वे विद्यार्थी मुनियों के शिक्षाकेंद्र का सफलतापूर्वक संचालन करने लगे। उनकी आत्मीयता से विद्यार्थी बाल मुनियों को अंतःतोष प्राप्त होता था। यह उनकी अनुशासन कुशलता का सजीव निदर्शन था।
संयमी जीवन की निर्मल साधना, विवेक का जागरण, सूक्ष्म-ज्ञान का विकास, सहनशीलता, धीरता आदि विविध विशेषताओं के कारण बाईस वर्ष की लघुवय में संत तुलसी को महामनीषी आचार्य कालूगणी ने विक्रम संवत् 1993 भाद्रव शुक्ला तृतीया (ईस्वी सन् 21 अगस्त 1936) को गंगापुर में युवाचार्य पद का गुरुतर दायित्व प्रदान किया। आचार्यश्री कालूगणी के स्वर्गवास के बाद विक्रम संवत् 1993 भाद्रव शुक्ला षष्ठी (ईस्वी सन् 24 अगस्त 1936) को युवाचार्य श्री तुलसी आचार्य पद पर आसीन हुए। तीन दिन बाद नवमी के दिन आपका प्रथम पदाभिषेक महोत्सव मनाया गया।
तेरापंथ जैसे विशाल एवं मर्यादित धर्मसंघ को युवा मनीषी का नेतृत्व मिला। यह जैन संघ के इतिहास की विरल घटना थी। नवोदीयमान आचार्यश्री तुलसी ने जब अपना कार्यभार संभाला उस समय उनकी उम्र का तीसरा दशक प्रारंभ ही हुआ था, किंतु अवस्था एवं योग्यता का कोई अनुबंध नहीं होता।
प्रतिक्षण जागरूकता के साथ चरण आगे बढ़े। उनका उद्बुद्ध विवेक हस्तस्थित दीपक की भांति मार्गदर्शक बना। सर्वप्रथम तेरापंथ के अंतरंग विकास के लिए उनका ध्यान विशेष रूप से केंद्रित हुआ। प्रगतिशील संघ का प्रमुख अंग शिक्षा है, श्रुतोपासना है। आचार्य श्री तुलसी ने सर्वप्रथम प्रशिक्षण का कार्य अपने हाथ में लिया। उनकी दीर्घ दृष्टि साध्वी समाज पर पहुंची। यह विषय पूज्य कालूगणी के चिंतन में भी था, परंतु कुछ परिस्थितियों के कारण यह फलवान नहीं हो सका। उसकी पूर्ति आचार्य श्री तुलसी ने की। साध्वियों की शिक्षा के लिए वे प्रयत्नशील बने। शिक्षात्मक चतुर्मुखी प्रगति के लिए शिक्षाकेंद्र, कलाकेंद्र एवं परीक्षाकेंद्र खुले। योग्य, योग्यतर एवं योग्यतम आदि परीक्षाओं के रूप में नवीन पाठ्यक्रम बने। धर्म संघ में अनेक शैक्षणिक वातायन उद्घाटित हुए।
शिक्षा का स्तर उत्तरोत्तर उर्ध्वारोही बना। मुनि वृंद की भांति साध्वियों ने भी विशेष अध्ययनार्थ नए-नए विषयों में अपने चरण आगे बढ़ाए। अनेक कीर्तिमान बनाए। आज भी वे शिक्षा, शोध आदि कार्यों में अहमहमिकया विकास की ओर अग्रसर हैं।
*साध्वी समाज के प्रारंभिक विकास में साध्वीप्रमुखा श्री लाडांजी के महान् योगदान* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रृंखला -- 549* 📝
*अमृतपुरुष आचार्य श्री तुलसी*
*जीवन-वृत्त*
गतांक से आगे...
दुरूह ग्रंथों की परायणता के साथ लगभग बीस हजार श्लोकों को कंठस्थ कर लेना आचार्य श्री तुलसी की सद्यःग्राही स्मृति का परिचायक था।
सोलह वर्ष की लघुवय में वे विद्यार्थी मुनियों के शिक्षाकेंद्र का सफलतापूर्वक संचालन करने लगे। उनकी आत्मीयता से विद्यार्थी बाल मुनियों को अंतःतोष प्राप्त होता था। यह उनकी अनुशासन कुशलता का सजीव निदर्शन था।
संयमी जीवन की निर्मल साधना, विवेक का जागरण, सूक्ष्म-ज्ञान का विकास, सहनशीलता, धीरता आदि विविध विशेषताओं के कारण बाईस वर्ष की लघुवय में संत तुलसी को महामनीषी आचार्य कालूगणी ने विक्रम संवत् 1993 भाद्रव शुक्ला तृतीया (ईस्वी सन् 21 अगस्त 1936) को गंगापुर में युवाचार्य पद का गुरुतर दायित्व प्रदान किया। आचार्यश्री कालूगणी के स्वर्गवास के बाद विक्रम संवत् 1993 भाद्रव शुक्ला षष्ठी (ईस्वी सन् 24 अगस्त 1936) को युवाचार्य श्री तुलसी आचार्य पद पर आसीन हुए। तीन दिन बाद नवमी के दिन आपका प्रथम पदाभिषेक महोत्सव मनाया गया।
तेरापंथ जैसे विशाल एवं मर्यादित धर्मसंघ को युवा मनीषी का नेतृत्व मिला। यह जैन संघ के इतिहास की विरल घटना थी। नवोदीयमान आचार्यश्री तुलसी ने जब अपना कार्यभार संभाला उस समय उनकी उम्र का तीसरा दशक प्रारंभ ही हुआ था, किंतु अवस्था एवं योग्यता का कोई अनुबंध नहीं होता।
प्रतिक्षण जागरूकता के साथ चरण आगे बढ़े। उनका उद्बुद्ध विवेक हस्तस्थित दीपक की भांति मार्गदर्शक बना। सर्वप्रथम तेरापंथ के अंतरंग विकास के लिए उनका ध्यान विशेष रूप से केंद्रित हुआ। प्रगतिशील संघ का प्रमुख अंग शिक्षा है, श्रुतोपासना है। आचार्य श्री तुलसी ने सर्वप्रथम प्रशिक्षण का कार्य अपने हाथ में लिया। उनकी दीर्घ दृष्टि साध्वी समाज पर पहुंची। यह विषय पूज्य कालूगणी के चिंतन में भी था, परंतु कुछ परिस्थितियों के कारण यह फलवान नहीं हो सका। उसकी पूर्ति आचार्य श्री तुलसी ने की। साध्वियों की शिक्षा के लिए वे प्रयत्नशील बने। शिक्षात्मक चतुर्मुखी प्रगति के लिए शिक्षाकेंद्र, कलाकेंद्र एवं परीक्षाकेंद्र खुले। योग्य, योग्यतर एवं योग्यतम आदि परीक्षाओं के रूप में नवीन पाठ्यक्रम बने। धर्म संघ में अनेक शैक्षणिक वातायन उद्घाटित हुए।
शिक्षा का स्तर उत्तरोत्तर उर्ध्वारोही बना। मुनि वृंद की भांति साध्वियों ने भी विशेष अध्ययनार्थ नए-नए विषयों में अपने चरण आगे बढ़ाए। अनेक कीर्तिमान बनाए। आज भी वे शिक्षा, शोध आदि कार्यों में अहमहमिकया विकास की ओर अग्रसर हैं।
*साध्वी समाज के प्रारंभिक विकास में साध्वीप्रमुखा श्री लाडांजी के महान् योगदान* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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'सम्बोधि' का संक्षेप रूप है— सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र। यही आत्मा है। जो आत्मा में अवस्थित है, वह इस त्रिवेणी में स्थित है और जो त्रिवेणी की साधना में संलग्न है, वह आत्मा में संलग्न है। हम भी सम्बोधि पाने का मार्ग प्रशस्त करें आचार्यश्री महाप्रज्ञ की आत्मा को अपने स्वरूप में अवस्थित कराने वाली कृति 'सम्बोधि' के माध्यम से...
🔰 *सम्बोधि* 🔰
📜 *श्रृंखला -- 59* 📜
*अध्याय~~5*
*॥मोक्ष-साधन-मीमांसा॥*
💠 *भगवान् प्राह*
*36. स्वाध्यायश्च तथा ध्यानं, विशुद्धेः स्थैर्यकारणम्।*
*आभ्यां सम्प्रतिपन्नाभ्यां, परमात्मा प्रकाशते।।*
स्वाध्याय और ध्यान— ये विशुद्धि की स्थिरता के हेतु हैं। इनकी उपलब्धि होने पर परमात्मा प्रकाशित हो जाता है।
*37. श्रद्धया स्थिरयाऽऽपन्नो, जयोऽपि चिरकालिकः।*
*सुस्थिरां कुरुते वृत्तिं, वीतरागत्वभावितः।।*
सुस्थिर श्रद्धा से कषाय, वासना आदि पर होने वाली विजय स्थायी हो जाती है। वह श्रद्धावान व्यक्ति वीतरागता की भावना से भावित होकर आत्मा की वृत्तियों को एकाग्र बनाता है।
*38. भावनानाञ्च सातत्यं, श्रद्धां स्वात्मनि सुस्थिराम्।*
*लब्ध्वा स्वं लभते योगी, स्थिरचित्तो मिताशनः।।*
चित्त को स्थिर रखने वाला और परिमितभोजी योगी अनित्य आदि भावनाओं की निरंतरता और श्रद्धा को प्राप्त कर अपने स्वरूप को पा लेता है।
*39. पर्यङ्कासनमासीनः, कायगुप्तः ऋजुस्थिति।*
*नासाग्रे पुद्गलेऽन्यत्र, न्यस्तदृष्टिः स्वमश्नुते।।*
वह शरीर को स्थिर बनाकर तथा पर्यंकासन मुद्रा में सीधा-सरल बैठकर नाक के अग्रभाग में या किसी दूसरी पौद्गलिक वस्तु में दृष्टि स्थापित कर अपने स्वरूप को पा लेता है।
*40. आत्मा वशीकृतो येन, तेनात्मा विदितो ध्रुवम्।*
*अजितात्मा विदन् सर्वम्, अपि नात्मानमृच्छति।।*
जिसने आत्मा को वश में कर लिया, उसने वास्तव में आत्मा को जान लिया। जिसने आत्मा को नहीं जीता, वह सब कुछ जानता हुआ भी आत्मा को नहीं पा सकता।
*ग्रंथिभेद कैसे...? उसकी परिणति... अनगार कौन बनता है...? शाश्वत की उपासना और प्राप्ति...* जानेंगे... समझेंगे... प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली श्रृंखला में... क्रमशः...
प्रस्तुति- 🌻 *संघ संवाद* 🌻
'सम्बोधि' का संक्षेप रूप है— सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र। यही आत्मा है। जो आत्मा में अवस्थित है, वह इस त्रिवेणी में स्थित है और जो त्रिवेणी की साधना में संलग्न है, वह आत्मा में संलग्न है। हम भी सम्बोधि पाने का मार्ग प्रशस्त करें आचार्यश्री महाप्रज्ञ की आत्मा को अपने स्वरूप में अवस्थित कराने वाली कृति 'सम्बोधि' के माध्यम से...
🔰 *सम्बोधि* 🔰
📜 *श्रृंखला -- 59* 📜
*अध्याय~~5*
*॥मोक्ष-साधन-मीमांसा॥*
💠 *भगवान् प्राह*
*36. स्वाध्यायश्च तथा ध्यानं, विशुद्धेः स्थैर्यकारणम्।*
*आभ्यां सम्प्रतिपन्नाभ्यां, परमात्मा प्रकाशते।।*
स्वाध्याय और ध्यान— ये विशुद्धि की स्थिरता के हेतु हैं। इनकी उपलब्धि होने पर परमात्मा प्रकाशित हो जाता है।
*37. श्रद्धया स्थिरयाऽऽपन्नो, जयोऽपि चिरकालिकः।*
*सुस्थिरां कुरुते वृत्तिं, वीतरागत्वभावितः।।*
सुस्थिर श्रद्धा से कषाय, वासना आदि पर होने वाली विजय स्थायी हो जाती है। वह श्रद्धावान व्यक्ति वीतरागता की भावना से भावित होकर आत्मा की वृत्तियों को एकाग्र बनाता है।
*38. भावनानाञ्च सातत्यं, श्रद्धां स्वात्मनि सुस्थिराम्।*
*लब्ध्वा स्वं लभते योगी, स्थिरचित्तो मिताशनः।।*
चित्त को स्थिर रखने वाला और परिमितभोजी योगी अनित्य आदि भावनाओं की निरंतरता और श्रद्धा को प्राप्त कर अपने स्वरूप को पा लेता है।
*39. पर्यङ्कासनमासीनः, कायगुप्तः ऋजुस्थिति।*
*नासाग्रे पुद्गलेऽन्यत्र, न्यस्तदृष्टिः स्वमश्नुते।।*
वह शरीर को स्थिर बनाकर तथा पर्यंकासन मुद्रा में सीधा-सरल बैठकर नाक के अग्रभाग में या किसी दूसरी पौद्गलिक वस्तु में दृष्टि स्थापित कर अपने स्वरूप को पा लेता है।
*40. आत्मा वशीकृतो येन, तेनात्मा विदितो ध्रुवम्।*
*अजितात्मा विदन् सर्वम्, अपि नात्मानमृच्छति।।*
जिसने आत्मा को वश में कर लिया, उसने वास्तव में आत्मा को जान लिया। जिसने आत्मा को नहीं जीता, वह सब कुछ जानता हुआ भी आत्मा को नहीं पा सकता।
*ग्रंथिभेद कैसे...? उसकी परिणति... अनगार कौन बनता है...? शाश्वत की उपासना और प्राप्ति...* जानेंगे... समझेंगे... प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली श्रृंखला में... क्रमशः...
प्रस्तुति- 🌻 *संघ संवाद* 🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रृंखला -- 548* 📝
*अमृतपुरुष आचार्य श्री तुलसी*
*जीवन-वृत्त*
गणाधिपति आचार्यश्री तुलसी के बाल्यकाल का प्रथम दशक मां की ममता, परिवार के अमित स्नेह एवं धार्मिक वातावरण में बीता। जीवन के दूसरे दशक के प्रारंभ में पूर्ण वैराग्य के साथ जैन श्वेतांबर तेरापंथ संघ के अष्टमाचार्य श्री कालूगणी द्वारा अपनी ज्येष्ठा भगिनी लाडांजी सह वीर निर्वाण 2452 (विक्रम संवत् 1982, ईस्वी सन् 5 दिसंबर 1925) में बालक तुलसी का दीक्षा संस्कार लाडनूं में हुआ। ज्येष्ठ बंधु चंपालालजी उनसे पूर्व दीक्षित थे।
*भगिनी और युगल भ्राता*
खटेड़ वंश के ये तीनों रत्न तेरापंथ धर्मसंघ के अलंकार बने। कालांतर में मुनि तुलसी आचार्य बने। साध्वी श्री लाडांजी की साध्वीप्रमुखा पद पर नियुक्ति हुई एवं ज्येष्ठ बंधु मुनि चंपालाल 'सेवाभावी' संबोधन से सम्मानित हुए। आचार्यश्री तुलसी की जननी वदनांजी 58 वर्ष की उम्र में अपने ही पुत्र (गुरु तुलसी) द्वारा दीक्षित होकर साध्वी बनीं। यह इतिहास का यह अपूर्व प्रसंग है। साध्वी वदनांजी के जीवन में संयम तथा तप की ज्योति प्रज्जवलित थी। उन्होंने 18 वर्ष तक एकांतर तप की आराधना की। समता, सरलता और सौम्यभाव उनके सहज गुण थे। विनय-वात्सल्य की प्रतिमूर्ति मातुश्री वदनांजी की विशिष्ट तपःसाधना एवं संयम-साधना से प्रभावित होकर आचार्य श्री तुलसी ने उन्हें 'साध्वी-श्रेष्ठा' पद से विभूषित किया। उनका 98 वर्ष की दीर्घ आयु में पूर्ण समाधि में स्वर्गवास हुआ।
खटेड़ परिवार की तेरापंथ धर्मसंघ को इन चार महान् आत्माओं की देन है। इस परिवार के अन्य कई साधु-साध्वी भी दीक्षित हुए। आचार्य श्री तुलसी, मातुश्री वदनांजी एवं ज्येष्ठ भगिनी लाडांजी की दीक्षा में प्रेरणा स्रोत प्रमुख रूप से सेवाभावी मुनिश्री चंपालालजी रहे थे।
आचार्य श्री तुलसी का मुनि जीवन अनुशासन की भूमिका पर विशेष प्रेरक रहा। संयम साधना स्वीकार करने के बाद लघुवय में दीक्षित मुनि तुलसी की चिंतनात्मक एवं मननात्मक शक्ति का स्रोत पठन-पाठन में प्रवाहित हुआ। व्याकरण, कोष, सिद्धांत, काव्य, दर्शन, न्याय आदि विभिन्न विषयों का उन्होंने गंभीर अध्ययन किया। वे संस्कृत, प्राकृत, हिंदी, राजस्थानी भाषा के अधिकारी विद्वान् बने।
*अमृतपुरुष आचार्य श्री तुलसी के संयमी जीवन* के बारे में विस्तार से जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रृंखला -- 548* 📝
*अमृतपुरुष आचार्य श्री तुलसी*
*जीवन-वृत्त*
गणाधिपति आचार्यश्री तुलसी के बाल्यकाल का प्रथम दशक मां की ममता, परिवार के अमित स्नेह एवं धार्मिक वातावरण में बीता। जीवन के दूसरे दशक के प्रारंभ में पूर्ण वैराग्य के साथ जैन श्वेतांबर तेरापंथ संघ के अष्टमाचार्य श्री कालूगणी द्वारा अपनी ज्येष्ठा भगिनी लाडांजी सह वीर निर्वाण 2452 (विक्रम संवत् 1982, ईस्वी सन् 5 दिसंबर 1925) में बालक तुलसी का दीक्षा संस्कार लाडनूं में हुआ। ज्येष्ठ बंधु चंपालालजी उनसे पूर्व दीक्षित थे।
*भगिनी और युगल भ्राता*
खटेड़ वंश के ये तीनों रत्न तेरापंथ धर्मसंघ के अलंकार बने। कालांतर में मुनि तुलसी आचार्य बने। साध्वी श्री लाडांजी की साध्वीप्रमुखा पद पर नियुक्ति हुई एवं ज्येष्ठ बंधु मुनि चंपालाल 'सेवाभावी' संबोधन से सम्मानित हुए। आचार्यश्री तुलसी की जननी वदनांजी 58 वर्ष की उम्र में अपने ही पुत्र (गुरु तुलसी) द्वारा दीक्षित होकर साध्वी बनीं। यह इतिहास का यह अपूर्व प्रसंग है। साध्वी वदनांजी के जीवन में संयम तथा तप की ज्योति प्रज्जवलित थी। उन्होंने 18 वर्ष तक एकांतर तप की आराधना की। समता, सरलता और सौम्यभाव उनके सहज गुण थे। विनय-वात्सल्य की प्रतिमूर्ति मातुश्री वदनांजी की विशिष्ट तपःसाधना एवं संयम-साधना से प्रभावित होकर आचार्य श्री तुलसी ने उन्हें 'साध्वी-श्रेष्ठा' पद से विभूषित किया। उनका 98 वर्ष की दीर्घ आयु में पूर्ण समाधि में स्वर्गवास हुआ।
खटेड़ परिवार की तेरापंथ धर्मसंघ को इन चार महान् आत्माओं की देन है। इस परिवार के अन्य कई साधु-साध्वी भी दीक्षित हुए। आचार्य श्री तुलसी, मातुश्री वदनांजी एवं ज्येष्ठ भगिनी लाडांजी की दीक्षा में प्रेरणा स्रोत प्रमुख रूप से सेवाभावी मुनिश्री चंपालालजी रहे थे।
आचार्य श्री तुलसी का मुनि जीवन अनुशासन की भूमिका पर विशेष प्रेरक रहा। संयम साधना स्वीकार करने के बाद लघुवय में दीक्षित मुनि तुलसी की चिंतनात्मक एवं मननात्मक शक्ति का स्रोत पठन-पाठन में प्रवाहित हुआ। व्याकरण, कोष, सिद्धांत, काव्य, दर्शन, न्याय आदि विभिन्न विषयों का उन्होंने गंभीर अध्ययन किया। वे संस्कृत, प्राकृत, हिंदी, राजस्थानी भाषा के अधिकारी विद्वान् बने।
*अमृतपुरुष आचार्य श्री तुलसी के संयमी जीवन* के बारे में विस्तार से जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 156* 📜
*आचार्यश्री भीखणजी*
*जीवन के विविध पहलू*
*17. विनोदी स्वभाव*
*जोड़ना अच्छा या तोड़ना?*
एक व्यक्ति ने स्वामीजी से कहा— 'आप इतनी 'जोड़' (पद्य-रचना) क्यों करते हैं? आपकी ये जोड़ें झगड़ा बढ़ाती हैं।'
स्वामीजी ने कहा— 'एक साहूकार के दो पुत्र थे। उनमें से एक तो संपत्ति जोड़ता था और दूसरा तोड़ता— अपव्यय करता था। अब तुम ही बताओ उन दोनों में जोड़ने वाले को अच्छा कहा जाए या तोड़ने वाले को?'
वह व्यक्ति बोला— 'अच्छा तो संपत्ति जोड़ने वाले को ही कहा जाएगा।'
स्वामीजी ने कहा— 'तो फिर तुम जोड़ने वाले को उपालंभ देने क्यों आए हो?'
और तब उपस्थित व्यक्तियों की सम्मिलित हंसी में उसकी शिकायत वहीं समाप्त हो गई।
*बाजोट टूटे तो?*
स्वामीजी अन्य संप्रदाय के कुछ साधुओं से बात कर रहे थे। उनमें से एक साधु ने अपने संप्रदाय की विशेषता की छाप डालने के लिए स्वामीजी से कहा— 'हमारे यहां तो सुई टूट जाने पर तेले का प्रायश्चित्त दिया जाता है।'
स्वामीजी कब चूकने वाले थे। वे बोले— 'बाजोट टूट जाने पर तो फिर आपके यहां संथारा करवाया जाता होगा?'
स्वामीजी के कथन ने शेखी बघारने वाले को जहां चुप कर दिया, वहां अन्य सभी को हास्य-निमज्जित कर दिया।
*वह पैर सरकाया*
मुनि बेणीरामजी अपनी बाल्यावस्था में भी बड़े स्पष्टवादी थे। कभी-कभी तो वे स्वामीजी तक में दोष निकाल देते थे। एक दिन वे स्वामीजी से कुछ दूर सामने ही बैठे थे। स्वामीजी ने उनको छकाने की सोची। उन्होंने उनकी दृष्टि को बचाकर भूमि-प्रतिलेखन किया और पार्श्वस्थित संतों से यह कहते हुए पैर को आगे सरकाया कि देखें, अब बेणा क्या कहता है?
मुनि बेणीरामजी ने उसी समय उधर देखा और बोल उठे— 'वह स्वामीजी ने अयत्ना से पैर सरकाया है।'
स्वामीजी तथा वहां उपस्थित सभी साधु हंस पड़े। स्वामीजी ने कहा— 'बेणा की तीक्ष्ण दृष्टि भी आज चूक गई।'
मुनि बेणीरामजी ने तब क्षमा मांगकर अपनी झेंप मिटाई।
*काचरी की कमी*
मुनि हेमराजजी दीक्षित होने को तैयार हुए तब एक व्यक्ति ने स्वामीजी से कहा— 'हेमजी दीक्षा को तैयार तो हुए हैं, परंतु उनमें तंबाकू पीने का व्यसन है। जब तक वे उसे छोड़ नहीं देते, उन्हें दीक्षित नहीं करना चाहिए।'
स्वामीजी ने कहा— 'काचरी की कमी से कोई विवाह थोड़े ही रोका जाता है।'
*स्वामी भीखणजी व आचार्य रघुनाथजी के एक शिष्य मुनि जीवणजी के बीच वार्तालाप का एक प्रसंग...* पढ़ेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 156* 📜
*आचार्यश्री भीखणजी*
*जीवन के विविध पहलू*
*17. विनोदी स्वभाव*
*जोड़ना अच्छा या तोड़ना?*
एक व्यक्ति ने स्वामीजी से कहा— 'आप इतनी 'जोड़' (पद्य-रचना) क्यों करते हैं? आपकी ये जोड़ें झगड़ा बढ़ाती हैं।'
स्वामीजी ने कहा— 'एक साहूकार के दो पुत्र थे। उनमें से एक तो संपत्ति जोड़ता था और दूसरा तोड़ता— अपव्यय करता था। अब तुम ही बताओ उन दोनों में जोड़ने वाले को अच्छा कहा जाए या तोड़ने वाले को?'
वह व्यक्ति बोला— 'अच्छा तो संपत्ति जोड़ने वाले को ही कहा जाएगा।'
स्वामीजी ने कहा— 'तो फिर तुम जोड़ने वाले को उपालंभ देने क्यों आए हो?'
और तब उपस्थित व्यक्तियों की सम्मिलित हंसी में उसकी शिकायत वहीं समाप्त हो गई।
*बाजोट टूटे तो?*
स्वामीजी अन्य संप्रदाय के कुछ साधुओं से बात कर रहे थे। उनमें से एक साधु ने अपने संप्रदाय की विशेषता की छाप डालने के लिए स्वामीजी से कहा— 'हमारे यहां तो सुई टूट जाने पर तेले का प्रायश्चित्त दिया जाता है।'
स्वामीजी कब चूकने वाले थे। वे बोले— 'बाजोट टूट जाने पर तो फिर आपके यहां संथारा करवाया जाता होगा?'
स्वामीजी के कथन ने शेखी बघारने वाले को जहां चुप कर दिया, वहां अन्य सभी को हास्य-निमज्जित कर दिया।
*वह पैर सरकाया*
मुनि बेणीरामजी अपनी बाल्यावस्था में भी बड़े स्पष्टवादी थे। कभी-कभी तो वे स्वामीजी तक में दोष निकाल देते थे। एक दिन वे स्वामीजी से कुछ दूर सामने ही बैठे थे। स्वामीजी ने उनको छकाने की सोची। उन्होंने उनकी दृष्टि को बचाकर भूमि-प्रतिलेखन किया और पार्श्वस्थित संतों से यह कहते हुए पैर को आगे सरकाया कि देखें, अब बेणा क्या कहता है?
मुनि बेणीरामजी ने उसी समय उधर देखा और बोल उठे— 'वह स्वामीजी ने अयत्ना से पैर सरकाया है।'
स्वामीजी तथा वहां उपस्थित सभी साधु हंस पड़े। स्वामीजी ने कहा— 'बेणा की तीक्ष्ण दृष्टि भी आज चूक गई।'
मुनि बेणीरामजी ने तब क्षमा मांगकर अपनी झेंप मिटाई।
*काचरी की कमी*
मुनि हेमराजजी दीक्षित होने को तैयार हुए तब एक व्यक्ति ने स्वामीजी से कहा— 'हेमजी दीक्षा को तैयार तो हुए हैं, परंतु उनमें तंबाकू पीने का व्यसन है। जब तक वे उसे छोड़ नहीं देते, उन्हें दीक्षित नहीं करना चाहिए।'
स्वामीजी ने कहा— 'काचरी की कमी से कोई विवाह थोड़े ही रोका जाता है।'
*स्वामी भीखणजी व आचार्य रघुनाथजी के एक शिष्य मुनि जीवणजी के बीच वार्तालाप का एक प्रसंग...* पढ़ेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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🏭 *_आचार्य तुलसी महाप्रज्ञ चेतना सेवा केन्द्र,_ _कुम्बलगुड़ु, बेंगलुरु, (कर्नाटक)_*
💦 *_परम पूज्य गुरुदेव_* _अमृत देशना देते हुए_
📚 *_मुख्य प्रवचन कार्यक्रम_* _की विशेष_
*_झलकियां_ _________*
🌈🌈 *_गुरुवरो घम्म-देसणं_*
⌚ _दिनांक_: *_10 अक्टूबर 2019_*
🧶 _प्रस्तुति_: *_संघ संवाद_*
🌊☄🌊☄🌊☄🌊☄🌊☄🌊
🏭 *_आचार्य तुलसी महाप्रज्ञ चेतना सेवा केन्द्र,_ _कुम्बलगुड़ु, बेंगलुरु, (कर्नाटक)_*
💦 *_परम पूज्य गुरुदेव_* _अमृत देशना देते हुए_
📚 *_मुख्य प्रवचन कार्यक्रम_* _की विशेष_
*_झलकियां_ _________*
🌈🌈 *_गुरुवरो घम्म-देसणं_*
⌚ _दिनांक_: *_10 अक्टूबर 2019_*
🧶 _प्रस्तुति_: *_संघ संवाद_*
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🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂
🙏 #आचार्य श्री #महाप्रज्ञ जी द्वारा प्रदत मौलिक #प्रवचन
👉 *#कैसे #सोचें *: #क्रिया और #प्रतिक्रिया ३*
एक #प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*
प्रकाशक
#Preksha #Foundation
Helpline No. 8233344482
📝 धर्म संघ की तटस्थ एवं सटीक जानकारी आप तक पहुंचाए
https://www.facebook.com/SanghSamvad/
🌻 #संघ #संवाद 🌻
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🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂
🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन
👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला २८१* - *आभामंडल ९*
एक *प्रेक्षाध्यान शिविर में भागलेकर देखें*
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*
प्रकाशक
*Preksha Foundation*
Helpline No. 8233344482
📝 धर्म संघ की तटस्थ एवं सटीक जानकारी आप तक पहुंचाए
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🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन
👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला २८१* - *आभामंडल ९*
एक *प्रेक्षाध्यान शिविर में भागलेकर देखें*
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*
प्रकाशक
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