11.10.2019 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 11.10.2019
Updated: 11.10.2019
👉 जयपुर ~ माननीय राज्यपाल महोदय से शिष्टाचार भेंट

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'सम्बोधि' का संक्षेप रूप है— सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र। यही आत्मा है। जो आत्मा में अवस्थित है, वह इस त्रिवेणी में स्थित है और जो त्रिवेणी की साधना में संलग्न है, वह आत्मा में संलग्न है। हम भी सम्बोधि पाने का मार्ग प्रशस्त करें आचार्यश्री महाप्रज्ञ की आत्मा को अपने स्वरूप में अवस्थित कराने वाली कृति 'सम्बोधि' के माध्यम से...

🔰 *सम्बोधि* 🔰

📜 *श्रृंखला -- 61* 📜

*अध्याय~~6*

*॥क्रिया—अक्रियावाद॥*

*॥आमुख॥*

अहिंसा सत्कर्म है। उसकी आराधना वे ही कर सकते हैं, जो पुनर्जन्म को मानते हैं, जिनका विश्वास है कि सत्कर्म का सत् फल होता है और ऐसा असत्कर्म का असत् फल होता है। कुछ व्यक्ति सत्कर्म में विश्वास करते हैं और उसका आचरण भी करते हैं। कुछ सत्कर्म में विश्वास नहीं करते और आचरण भी नहीं करते। इसके आधार पर व्यक्ति के तीन रूप बनते हैं—

धर्म कीे पूर्ण आराधना करने वाला मुनि— पूर्ण धार्मिक।

धर्म की आराधना करने वाला सद्गृहस्थ— अपूर्ण धार्मिक।

धर्म की आराधना नहीं करने वाला व्यक्ति— अधार्मिक।

इस अध्याय में तीनों ही व्यक्तियों के कर्म और कर्म-फल की मीमांसा व्यवस्थित ढंग से की गई है।

💠 *भगवान् प्राह*

*1. पृथक्छन्दाः प्रजा अत्र, पृथग्वादं समाश्रिताः।*
*क्रियां श्रद्दधते केचिद्, अक्रियामपि केचन।।*

संसार में विभिन्न रुचि वाले लोग हैं। उनमें पृथक्-पृथक् वाद, जैसे— क्रियावाद-आत्मवाद और अक्रियावाद-अनात्मवाद आदि प्रचलित हैं। कुछ व्यक्ति आत्मा, कर्म आदि में श्रद्धा रखते हैं और कुछ व्यक्ति नहीं रखते।

*2. हिंसासूतानि दुःखानि, भयवैरकराणि च।*
*पश्यव्याकरणे शंका, पश्यन्त्यपश्यदर्शनाः।।*

दुःख हिंसा से उत्पन्न होते हैं। उनसे भय और वैर बढ़ता है, आत्म-द्रष्टा के इस निरूपण में वे ही लोग शंका करते हैं, जो साक्षात्-दर्शी नहीं हैं।

*3. सुकृतानां दुष्कृतानां, निर्विशेषं फलं खलु।*
*मन्यते विफलं कर्म, कल्याणं पापकं तथा।।*

अनात्मदर्शी लोग सुकृत और दुष्कृत के फल में अंतर नहीं मानते और कर्म को विफल मानते हैं, भले-बुरे कर्म का भला-बुरा फल भी नहीं मानते।

*4. प्रत्ययान्ति न जीवाश्च, न भोगः कर्मणां ध्रुवः।*
*इत्यास्थातो महेच्छाः स्युः, महारम्भपरिग्रहाः।।*

जीव मरकर वापस नहीं आते, फिर से जन्म धारण नहीं करते और किए हुए कर्मों को भोगना आवश्यक नहीं होता। इस आस्था से उनमें महत्त्वाकांक्षाएं पनपतीे हैं। वे महा-आरंभ करते हैं और परिग्रह का महान् संचय करते हैं।

*5. निःशीलाः पापिकां वृत्तिं, कल्पयन्तः प्रवञ्चनाः।*
*उत्कोचना विमर्यादा, मिथ्यादण्डं प्रयुञ्जते।।*

वे शीलरहित होते हैं, पापपूर्ण आजीविका करते हैं, दूसरों को ठगते हैं, रिश्वत लेते हैं, मर्यादा-विहीन होते हैं और मिथ्या-दंड का प्रयोग करते हैं- अनावश्यक हिंसा करते हैं।

*6. क्रोधं मानञ्च मायाञ्च, लोभञ्च कलहं तथा।*
*अभ्याख्यानञ्च पैशुन्यं, श्रयन्ते मोहसंवृताः।।*

वे मोह से आच्छन्न होने के कारण क्रोध, मान, माया, लोभ, कलह, अभ्याख्यान— दोषारोपण और चुगली का आश्रय लेते हैं।

*7. गर्भान्ते गर्भमायान्ति, लभन्ते जन्म जन्मनः।*
*मृत्योः मृत्युञ्च गच्छन्ति, दुःखाद् दुःखं व्रजन्ति च।।*

वे गर्भ के बाद गर्भ, जन्म के बाद जन्म, मृत्यु के बाद मृत्यु और दुःख के बाद दुःख को प्राप्त होते हैं।

*आत्मवादी गृहस्थ की धर्मोन्मुखता का प्रतिपादन... संयम की श्रेष्ठता और उसकी फलश्रुति... श्रामण्य का फल...* जानेंगे... समझेंगे... प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली श्रृंखला में... क्रमशः...

प्रस्तुति- 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रृंखला -- 550* 📝

*अमृतपुरुष आचार्य श्री तुलसी*

*जीवन-वृत्त*

गतांक से आगे...

साध्वी समाज की इस प्रगति के मूल प्रेरणास्रोत आचार्यश्री तुलसी थे। साध्वी शिक्षा के प्रारंभिक विकास में सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति स्वर्गीया साध्वीप्रमुखा लाडांजी का महान् योगदान रहा है।

साध्वीप्रमुखा श्री लाडांजी साध्वियों को मधुर शब्दों में अध्ययन के लाभ समझातीं, ज्ञान कणों को बटोरने के लिए अन्तःस्नेह से उन्हें प्रेरित करतीं। भाषण, संगीत आदि की गोष्ठियाँ करवातीं, घंटों साध्वियों के बीच विराजकर ध्यानमग्न होकर उनको सुनतीं, उनका उत्साह बढ़ातीं, उनको पुरस्कृत करतीं, अध्ययनशील साध्वियों को अनेक आवश्यक कार्यों से मुक्त रखकर अध्ययनानुकूल सुविधाएं और अवकाश प्रदान करतीं।

शक्ति स्रोत आचार्यश्री तुलसी के अनवरत परिश्रम एवं साध्वीप्रमुखा श्री लाडांजी की सशक्त प्रेरणा से शिक्षा के क्षेत्र में साध्वी समाज की गति को बल मिला। दिन-प्रतिदिन ज्ञानार्जन का ग्राफ बढ़ता गया। आचार्यश्री कालूगणी के सपनों ने आकार लिया।

आज जो साध्वी समाज एवं समणी वर्ग में अतिशय विकास परिलक्षित हो रहा है, उनकी इस अभूतपूर्व प्रगति में आचार्य श्री तुलसी का अथाह श्रम सिंचन अवाच्य है। साध्वी समाज आपके इस उपकार का सदा ऋणी रहेगा।

*विशिष्ट तपस्याएं*

तपोधन आचार्य श्री तुलसी के शासनकाल में तपस्याओं का भी कीर्तिमान स्थापित हुआ। आपकी प्रबल प्रेरणा व प्रोत्साहन से तेरापंथ संघ में निरंतर होने वाली सामान्य तपस्याओं के अतिरिक्त भद्रोत्तर तप, महा भद्रोत्तर तप, लघुसिंह निष्क्रीड़त तप, तेरह महीनों का सतत् आयम्बिल तप, एक सौ अस्सी (180) दिनों का जल परिहार तप, आछ (उबली छाछ का नितरा पानी) के आधार पर चातुर्मासिक तप, छह मासिक तप, नव मासिक, बारह मासिक तप सम्पादित हुए। तेरापंथ धर्म संघ में नए इतिहास का सृजन हुआ।

*अमृतपुरुष आचार्य श्री तुलसी द्वारा अणुव्रत आंदोलन के प्रवर्तन* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻

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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 158* 📜

*आचार्यश्री भीखणजी*

*जीवन के विविध पहलू*

*17. विनोदी स्वभाव*

*महापुरुष अब भी खाते हैं*

अपने-आपको विरागी और तपस्वी मानने वाले स्थानकवासी मुनि कुशलोजी और तिलोकजी ने स्वामीजी से कहा— 'साधु को लड्डू आदि सरस पदार्थ तथा घी, दूध आदि गरिष्ठ पदार्थ खाने नहीं कल्पते। उसे कौन से बच्चे पैदा करने हैं, जो ऐसी वस्तुएं खाये?'

स्वामीजी— 'देवकी के पुत्रों ने गोचरी में मोदक (लड्डू) ग्रहण किए थे। ऐसा आगमों में वर्णन आया है, तब तुम कैसे कह सकते हो कि साधु को लड्डू खाना नहीं कल्पता?'

कुशलोजी— 'वे तो महापुरुष थे। उनकी क्या तुलना हो सकती है?'

स्वामीजी— 'ठीक है, ठीक है। तुम नहीं खा सकते। जो महापुरुष होते हैं, वे तो अब भी खाते ही हैं।'

*नगजी का तत्त्व-ज्ञान*

केलवा के नगजी नामक भाई चक्षु थे। बुद्धि भी बहुत कम थी। वीरभाणजी वहां रहकर आए, स्वामीजी से बोले— 'नगजी को मैंने तत्त्व-ज्ञान सिखाकर सम्यक्त्वी बना दिया है।'

स्वामीजी ने कहा— 'उसकी तो ऐसी बुद्धि ही नहीं थी। तुमने उसको क्या तत्त्व-ज्ञान सिखाया?'

वीरभाणजी— 'ओलखणा दोरी भवि जीवां' यह ढाल और 'नंदन मणियारे का व्याख्यान' सिखाया है।'

कुछ समय पश्चात स्वामीजी केलवा पधारे, तब नगजी दर्शन करने आए। स्वामीजी ने उनसे पूछा— 'नगजी! तुमने तो 'नंदन मणियारे का व्याख्यान' सीखा है, उसमें 'मणिया' सोने का है अथवा लकड़ी या रुद्राक्ष का?'

नगजी— 'स्वामीजी! यह तो आगमों में आया है, अतः सोने का ही होगा, लकड़ी या रुद्राक्ष का तो क्या होगा!'

स्वामीजी ने फिर पूछा— 'ओलखणा' की ढाल में आया है— 'साधवियां नै जड़णो चाल्यो' यहां यह 'धवियां' (धमनी) कौन-सी हैं? गाड़ी-लुहारों वाली छोटी हैं अथवा स्थानीय लुहारों वाली बड़ी?'

नगजी— 'आगमों में आई हैं, अतः छोटी कैसे हो सकती हैं, यह तो बड़ी ही हैं।'

*स्वामीजी बहुधा उदाहरणों तथा दृष्टांतों आदि से अपना मंतव्य समझाते थे... कभी-कभी उनके कथन में गहरा व्यंग भी हुआ करता था...* पढ़ेंगे कुछ प्रसंग... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻

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🏭 *_आचार्य तुलसी महाप्रज्ञ चेतना सेवा केन्द्र,_ _कुम्बलगुड़ु, बेंगलुरु, (कर्नाटक)_*

💦 *_परम पूज्य गुरुदेव_* _अमृत देशना देते हुए_

📚 *_मुख्य प्रवचन कार्यक्रम_* _की विशेष_
*_झलकियां_ _________*

🌈🌈 *_गुरुवरो घम्म-देसणं_*

⌚ _दिनांक_: *_11 अक्टूबर 2019_*

🧶 _प्रस्तुति_: *_संघ संवाद_*

https://www.facebook.com/SanghSamvad/

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*आचार्य तुलसी महाप्रज्ञ*
*चेतना सेवा केन्द्र,*
*कुम्बलगुड़ु,*
*बेंगलुरु*

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*महाश्रमण चरणों में...*
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*: दिनांक:*
11 अक्टूबर 2019

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*: प्रस्तुति:*
🌻 संघ संवाद 🌻

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🧘‍♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘‍♂

🙏 #आचार्य श्री #महाप्रज्ञ जी द्वारा प्रदत मौलिक #प्रवचन

👉 *#कैसे #सोचें *: #क्रिया और #प्रतिक्रिया ४*

एक #प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*

प्रकाशक
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🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन

👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला २८२* - *आभामंडल १०*

एक *प्रेक्षाध्यान शिविर में भागलेकर देखें*
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*

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