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पूज्य उपाध्यायश्री का प्रवचन
ता. 25 अगस्त 2013, पालीताना
जैन श्वे. खरतरगच्छ संघ के उपाध्याय प्रवर पूज्य गुरूदेव मरूध्ार मणि श्री मणिप्रभसागरजी म.सा. ने बाबुलाल लूणिया एवं रायचंद दायमा परिवार की ओर से आयोजित चातुर्मास पर्व के अन्तर्गत श्री जिन हरि विहार ध्ार्मशाला में आराध्ाकों की विशाल ध्ार्मसभा को संबोध्ाित करते हुए कहा- जीवन इच्छाओं के आधार पर नहीं अपितु समझौते के आधार पर चलता है। जीवन में यदि शांति और आनंद चाहिये तो दूसरों की इच्छाओं पर अपनी इच्छाओं का बलिदान करना सीखो। जो व्यक्ति दूसरों को सुख देने के लिये अपना सुख त्याग करता है, निश्चित रूप से वही व्यक्ति पूरे परिवार के हृदय में बिराजमान होकर राज करता है।
आज पारिवारिक शांति के सूत्र प्रस्तुत करते हुए पूज्यश्री ने कहा- जीवन में यदि आनंद पाना है तो टिट फोर टेट का सिद्धान्त अपने मन से निकालना होगा। जैसे को तैसा नहीं अपितु जैसे को वैसा सिद्धान्त बनाना होगा। जैसे को तैसा का अर्थ हुआ कि जैसा वो कर रहा है, वैसा करना। जबकि जैसे को वैसा का अर्थ होता है, वह जो कर रहा है, वो भले करे पर मुझे वो करना है जो उसके और मुझे दोनों के अनुकूल हो। हमें आग का जवाब डीजल या पेट्रोल से नहीं अपितु पानी से देना चाहिये।
उन्होंने कहा- क्रोध आग है और अहंकार डीजल! क्रोध का जवाब क्रोध या अहंकार में भर कर नहीं, अपितु क्षमा और सरलता रूप पानी से देना होगा। तभी वातावरण में तनाव समाप्त होगा।
उन्होंने कहा- परिवार की शांति यह हमारा लक्ष्य होना चाहिये। इस लक्ष्य के अनुरूप हमारा व्यवहार होना चाहिये। परिणाम दो प्रकार के होते हैं। एक तो क्षणिक जो संसार की परिधि में आता है और दूसरा होता है-शाश्वत जो अध्यात्म के क्षेत्र में आता है । मात्रा सांसारिक परिणाम सोच कर कार्य नहीं किया जा सकता । जैसे कोई व्यक्ति यह विचार करता है कि आज मैं इस व्यक्ति को ठगूॅंगा तो मुझे अर्थ लाभ होगा । ठगना जो क्रिया है यह उसका मात्र सांसारिक परिणाम है परन्तु उसे यह भी विचार करना चाहिये कि इससे मेरी आत्मा कितनी कलुषित होगी? कर्मबंधन होगा तो मुझे उसका परिणाम तो भुगतना ही पडेगा । यह आध्यात्मिक दृष्टिकोण है ।
उन्होंने कहा- हर व्यक्ति को अपने व्यवहार की समीक्षा करनी चाहिये । मैं जो भी करता हूॅं, बोलना, बैठना, चलना, करना आदि जो भी मेरी प्रवृत्ति है, उसका परिणाम मेरे लिये क्या होगा और साथ साथ इस बात का विचार करना भी जरूरी है कि मेरे व्यवहार का परिणाम मेरे परिवेश पर क्या होगा। उन्होंने कहा- व्यक्ति जंगली/ एकाकी प्राणी नहीं है, वह समाज में जीता है । समाज का अर्थ होता है । व्यक्ति जो भी करता है, निश्चित रूप से संपूर्ण समाज उससे प्रभावित होता है । उन क्षणों में यह विचार जरूरी है कि मैं सामाजिक परिणामों पर भी विवेक पूर्वक विचार करके अपने व्यवहार को संतुलित बनाउॅ ।
चातुर्मास प्रेरिका पूजनीया बहिन म. डाॅ. विद्युत्प्रभाश्रीजी म. सा. ने कहा- व्यक्ति को जो धन मिला, सत्ता मिली, संपत्ति मिली, ये केवल उसकी बुद्धि या मेहनत से ही नहीं मिली । हजारों व्यक्ति ऐसे हैं जो उससे भी ज्यादा मेहनत करते है, फिर भी कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाते । वे अभावों में जीने को मजबूर हैं । संसार में पदार्थ, सत्ता या संपत्ति की प्राप्ति में पुरूषार्थ के साथ साथ पुण्य काम करता है । पुण्य हो तो ही पाया जा सकता है । पुण्य के अभाव में पुरूषार्थ व्यर्थ जाता है । उन्होंने कहा- पुण्य से उपार्जित वैभव का उपयोग पुण्य प्राप्ति के लिये होना चाहिये । अपने लिये बिना जरूरत बीस जोडी वस्त्र खरीदकर रखने वाला व्यक्ति यह विचार नहीं करता कि मैं एक जोडी वस्त्र किसी जरूरतमन्द व्यक्ति को अर्पण कर दूं । अर्जन मनुष्य का स्वभाव है तो अर्पण उसका कर्तव्य होना चाहिये ।