28.05.2015 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 29.05.2015
Updated: 05.01.2017

Peace is an occurrence of harmony characterized by lack of violence, conflict behaviors and the freedom from fear of violence.

Iconic pic of Acharyashree ji..epitomizing the greatness of Jainism, harmony with nature, peace & light of the nature & above all the greatness of Acharyashree ji with his meditation.

News in Hindi:

क्षुल्लक श्री ध्यान सागर जी महाराज ~ आचार्य श्री विद्यासागर जी के शिष्य

बीतने वाली घड़ी को, कौन लौटा पायेगा; यह सुअवसर खो दिया, तो अंत में पछताएगा |
जिंदगी भर का कमाया, साथ में क्या जायेगा; इस धरा का इस धरा पर, सब धरा रह जायेगा || १ ||

कौन जाने किस डगर पर, धड़कने रुक जाएगी; जिन्दगी का क्या भरोसा, एक दिन लुट जायेगी |
आज कल था, कल बनेगा, यूँ उमर ढल जायेगी, जाग जा अब भी मुसाफिर, यह घड़ी कब आएगी? || २ ||

एक दिन जाना पड़ेगा, मौत जिस दिन आएगी; विश्व की सब शक्तियाँ भी, तब बचा ना पायेगी |
कौन किसका है यहाँ पर, तब शमा बतलायेगी; होश में आजा नहीं तो, जिंदगी खो जायेगी || ३ ||

मौत आने पर ना कोई, प्राण देने आयेगा; धन-खजाना भी न कोई, साथ में चल पायेगा!
ज्ञान और विराग से ही, मोक्षपथ मिल पायेगा; गर गँवाएगा समय तो, फिर बहुत पछताएगा || ४ ||

शान्ति के पुरुषार्थ बिन हम, शांति कैसे पायेंगें; देह की ही चाकरी में, दिन निकलते जायेगें|
ऊपरी उपचार भर से, रोग कैसे जायेगें; चर्म धोने से कभी भी, कर्म ना धुल पायेंगें || ५ ||

जो गये सो खो गये दिन, हम स्वयं भी खो गये; मोह-माया की वजह से, जाग कर भी सो गये,
देख के दुनिया की रंगत, हम इसी के हो गये; अन्त में नर-जन्म से भी, हाथ अपने धो गये || ६ ||

वर्ष गाँठो के बहाने, जिन्दगी कटती गयी; इक तरफ बढ़ती गयी तो, इक तरफ घटती गयी!
मूढ़ मानव की मनुजता, मौज-मस्ती में गयी; हो गयी काया पुरानी, पर रही तृष्णा नयी! || ७ ||

कामनाओं से भटकता, जीव इस संसार में; कामनाओं से निकलती, रात सोच-विचार में |
कामनाओं में गुजरती, जिन्दगी दिन जार में; कामनाओं में फँसा जो, वो फँसा मझधार में || ८ ||

आज करुणाहीन हैं जो, कल करुण बन जायेंगे; एक-एक कुकर्म अपने, बाद में तड़पायेंगे |
पुण्य के भीषण नशे में, पाप बढ़ते जायेगें; छोड़ दे अभिमान जो भी, आये है सो जायेगें || ९ ||

मैं न कुछ, कुछ भी न मेरा, जब समझ में आयेगा; सत्य का शाश्वत खजाना, तब स्वयं मिल जायेगा |
उच्च कोई तुच्छ कोई, तब नजर ना आयेगा; प्रेम उमड़ेगा सभी पर, धर्म राज्य बसाएगा || १० ||

News in Hindi:

धर्म किसी सम्प्रदाय विशेष से संबन्धित नहीं है, सूर्य के प्रकाश की तरह। ~ आचार्य श्री विद्यासागर जी | truly worthy read

[ समीचीन धर्म ] आचार्य कुंदकुंद के रहते हुए भी आचार्य समंतभद्र का महत्व एवं लोकोपकार किसी प्रकार कम नहीं है। हमारे लिये आचार्य कुंदकुंद पिता तुल्य हैं और आचार्य समंतभद्र करुणामयी मां के समान हैं। वहीं समंतभद्र आचार्य कहते हैं कि ‘देशयमी समीचीन धर्मम् कर्मनिवर्हणम्, संसार दुखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्त्मे सुखे’। अर्थात मैं समीचीन धर्म का उपदेश करुंगा। यह समीचीन धर्म कैसा है? ‘कर्मनिवर्हनम्’ अर्थात कर्मों का निर्मूलन करने वाला है और ‘सत्त्वान’ प्राणियों को संसार के दुःखों से उबार कर उत्तम सुख में पहुँचाने वाला है।

आचार्य श्री ने यहाँ ‘सत्त्वान’ कहा, अकेला ‘जैनान’ नहीं कहा। इससे सिद्ध होता है कि धर्म किसी सम्प्रदाय विशेष से संबन्धित नहीं है। धर्म निर्बन्ध है, निस्सीम है, सूर्य के प्रकाश की तरह। सूर्य के प्रकाश को हम बंधन युक्त कर लेते हैं दीवारें खींच कर, दरवाजे बना कर, खिडकियाँ लगाकर। इसी तरह आज धर्म के चारों ओर भी सम्प्रदायों की दीवारें/सीमाएं खींच दी गयी हैं।

गंगा नदी हिमालय से प्रारम्भ हो कर निर्बाध गति से समुद्र की ओर प्रवाहित होती है। उसके जल में अगणित प्राणी किलोलें करते हैं, उसके जल से आचमन करते हैं, उसमें स्नान करते हैं, उसका जल पी कर जीवन रक्षा करते हैं, अपने पेड-पौधों को पानी देते हैं, खेतों को हरियाली से सजा लेते हैं। इस प्रकार गंगा नदी किसी एक प्राणी, जाति अथवा सम्प्रदाय की नहीं है, वह सभी की है। यदि कोई उसे अपना बताये तो गंगा का इसमें क्या दोष? ऐसे ही भगवान ऋषभदेव अथवा भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित धर्म पर किसी जाति विशेष का आधिपत्य संभव नहीं है। यदि कोई आधिपत्य रखता है तो यह उसकी अज्ञानता है।

धर्म और धर्म को प्रतिपादित करने वाले महापुरुष सम्पूर्ण लोक की अक्षय निधि हैं। महावीर भगवान की सभा में क्या केवल जैन ही बैठते थे? नहीं, उनकी धर्म सभा में देव, देवी, मनुष्य, स्त्रियाँ, पशु-पक्षी सभी को स्थान मिला हुआ था। अतः धर्म किसी परिधि से बन्धा हुआ नहीं है। उसका क्षेत्र प्राणी मात्र तक विस्तृत है।

आचार्य महाराज अगले श्लोक में धर्म की परिभाषा का विवेचन करते हैं। वे लिखते हैं को ‘सद्दृष्टि ज्ञान वृत्तानि धर्मं, धर्मेश्वरा विदुः। यदीयप्रत्यनीकानि भवंति भवपद्धति’॥ अर्थात (धर्मेश्वरा) गणधर परमेष्ठि (सद्दृष्टि ज्ञानवृत्तानि) समीचीन दृष्टि, ज्ञान और सद्आचरण के समंवित रूप को धर्म कहते हैं। इसके विपरीत अर्थात मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचरित्र संसार-पद्धति को बढाने वाले हैं।

सम्यग्दर्शन अकेला मोक्ष मार्ग नहीं है, किंतु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चरित्र का समंवित रूप ही मोक्षमार्ग है। वही धर्म है। औषधि पर आस्था, औषधि का ज्ञान और औषधि को पीने से ही रोग मुक्ति सम्भव है। इतना अवश्य है कि जैनाचार्यों ने सद्दृष्टि पर सर्वाधिक बल दिया है। यदि दृष्टि में विकार है तो निर्दिष्ट लक्ष्य को प्राप्त करना असम्भव ही है।

मोटर कार चाहे कितनी अच्छी हो, वह आज ही फैक्ट्री से बन कर बाहर क्यों ना आयी हो, किंतु उसका चालक मदहोश है तो वह गंतव्य तक नहीं पहुँच पायेगा। वह कार को कहीं भी टकरा कर चकनाचूर कर देगा। चालक का होश ठीक होना अनिवार्य है, तभी मंजिल तक पहुँचा जा सकता है। इसी प्रकार मोक्षमार्ग का पथिक जब तक होश में नहीं है, जबतक उसकी मोह की नींद का उपशमन नहीं हुआ तबतक लक्ष्य की सिद्धि अर्थात मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती।

मिथ्यात्व रूपी विकार, दृष्टि से निकालना चाहिये तभी दृष्टि समीचीन बनेगी और तभी ज्ञान भी सुज्ञान बन पायेगा। फिर रागद्वेष की निवृति के लिये चारित्र-मोहनीय कर्म के उपशमन से आचरण भी परिवर्तित करना होगा, तब मोक्षमार्ग की यात्रा निर्बाध पूरी होगी।

ज्ञान-रहित आचरण लाभदायक न होकर हानिकारक सिद्ध होता है। रोगी की परिचर्या करने वाला यदि यह नहीं जानता कि रोगी को औषधि का सेवन कैसे कराया जाए तो रोगी का जीवन ही समाप्त हो जायेगा। अतः समीचीन दृष्टि, समीचीन ज्ञान और समीचीन आचरण का समंवित रूप ही धर्म है। यही मोक्ष मार्ग है।

Article Source - संकलन: प्रो. जगरूपसहाय जैन, सम्पादन: प्राचार्य श्री नरेन्द्र प्रकाश जैन [फिरोजाबाद में पावन वर्षायोग (1975) के दौरान आयोजित धर्मसभा में सोलहकारण भावनाओं पर प्रवचनों का संग्रह:]

Sources
Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt
JinVaani
Acharya Vidya Sagar
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