Why do I have to pray everyday? Why do we worship Tirthankar's idol? Why do I have to worship Idol with sandal wood paste, flowers etc.? Why people take fruits, sweets etc. to the temple?
Answer: We pray/worship to pay our respects to the Tirthankars because They have attained liberation and have laid down the path of liberation. We want to get inspiration to become like them. By praying them, we receive the spiritual incentive to follow the right path of purification. We do not pray/worship for any favors or material benefits from the Tirthankars or from monks and nuns.
There are eight things involved in worshipping (puja) the Tirthankaras: 1. Jal Puja: (Water) 2. Chandan Puja: (Sandal-wood) 3. Pushpa Puja: (Flower) 4. Dhup Puja: (Incense) 5. Dipak Puja: (Candle) 6. Akshat Puja: (Rice) 7. Naivedya Puja: (Sweet food) 8. Fal Puja: (Fruit). Symbolically each item represents a specific religious virtue which one should reflect (contemplate) in his/her mind while performing puja.
News in Hindi:
चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज की जय हो!! समाधि से कुछ समय पहले आचार्य श्री - जिनेन्द्र देव के दर्शन करते हुए और आदर्श समाधि की भावना भाते हुए....दुर्लभ चित्र
एक बार आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा था "चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज की सल्लेखना आदर्श सल्लेखना हुई थी!" READ IT ONCE, DIVINE INTENTION!
एक भव्य आत्मा जिसकी म्रत्यु का समय जल्दी ही आने वाला है और वो अपनी म्रत्यु को इस बार महोत्सव के रूप मानना चाहता है, मतलब की इस बार वीरो की तरह शांति के साथ मरना चाहता है! वैसे जब किसी की मृत्यु होने वाली होती है तो कुछ ज्यादा करना तो असंभव होता है लेकिन अगर अन्दर कुछ प्रवृति [मन की स्थिति] को संभाल लिया जाये तो मृत्यु निश्चित रूप से महोत्सव होगा! आओ मृत्यु को महोत्सव के रूप मनाने वाले के अन्तिम समय के भावो की यात्रा पर चले...
हे प्रभु मुझे समाधि प्रदान करें....हे नाथो के नाथ मुझे शांति प्रदान करे....अब मैं जान गया हूँ ये शरीर मेरा नहीं है...शरीर अलग है और आत्मा अलग है...भगवान् मेरा विश्वास पक्का हो गया है की मैं आत्मा हूँ शरीर नहीं...बस ये मेरा विश्वास अटल बना रहे...हे स्वामी ये शरीर मेरा नहीं है तो मैं क्यों डरु, इस शरीर के छुटने का? हा शरीर छुटने पर बैचैनी, दर्द तो होगा...लेकिन उसको मैं सहन करूँगा और शांति भाव के सहन करूँगा, अपना मन आपके गुणों में लगाऊंगा...भगवान् अनंत कल व्यतीत होगया...इस शरीर और आत्मा के बंधन होने के कारण..नरक के दुखो, निगोद के दुखो, जानवरों के दुःख, आदि दुःख को देख कर मेरी आत्मा कांप जाती है तो जिस समय मेरी आत्मा ने सहन किया होगा तब क्या हुआ होगा...हे वीर जिनेश्वर...मैं भी राम होना चाहता हूँ और अपने में रम जाना चाहता हूँ....जो पुरुष आत्मा के ज्ञानी होते है वे शांति भाव से मृत्यु का सामना करते है मृत्यु के समय डरते नहीं..क्योकि इस तरह की मृत्यु जरुर ही स्वर्ग सुखो को प्राप्त कराने वाली है...और भविष्य में मोक्ष की और ले जाने वाली है...भगवन मेरे मन में स्वर्ग के सुखो की भी किंचित इक्छा नहीं...ओह स्वर्ग के सुख भी एक दिन ख़त्म हो जाते है...लेकिन मैं जानता हूँ समाधि मरण से मेरा भविष्य निश्चय ही उज्वल होगा... भगवन उस आदर्श मरण को यदि मैं एक बार प्राप्त हो सकू तो मेरा मोक्ष का द्वार खुल सकता है... हे मृत्यु पर विजय प्राप्त करने वाले देव मुझे छहढाला की पंक्तिया याद आरही है...मैं शरीर की उत्पत्ति के साथ अपनी उत्पत्ति और शरीर के मरण के साथ अपना मरण मानता आरहा हूँ...
तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान!
रागादि प्रकट जे दुःख दैन, तिन ही को सेवत गिनत चैन!!
यहाँ तक की इस मनुष्य गति में भी सुख नहीं...जब से यह शरीर मिला तब से भूख, प्यास, रोग अनेक परेशानियां मिली.....बल्कि मुझे बोलना चाहिए मैं ये शरीर नहीं हूँ, मैं तो आत्मा हूँ..मेरा स्वभाव, जानना, देखना है..और उर्धगमन मेरा स्वभाव है...जो धर्मं का स्वरुप नहीं जानते...जो संसार के विषय भोगो में आसक्त है जो आत्मा तत्व पर विश्वास नहीं करते....जो आत्मा को नहीं जानते...वही लोग को मृत्यु से भय लगता है; किन्तु जो संसार से वैरागी हैं उन्हें मरण आनन्द ही देता है। "शरीर का स्वभाव गलना, मिटना, बनना है...तो जब ये शरीर पुराना होगया तो इसके अंगो ने काम करना अब धीरे धीरे बंद कर रहे है तो इसमें आश्चर्य क्या? और मैं इस शरीर में हूँ इसलिए ही जो शरीर धीरे धीरे मिट रहा है तो दर्द, रोग आदि का अनुभव हो रहा है" वैसे भी मरण के समय जो पुराने कर्मो के उदय से रोग आदि से दुख पैदा होता है, वह सत्पुरूषो को देह से ममता छुङाने के लिये तथा निर्वाण का सुख प्राप्त कराने के लिये होता है। मरण समय मिथ्याद्रष्टि जीवो को, भयभीत जीवो को दुःख देती है वो सोच कर ही डर जाते है लेकिन वही मृत्यु सम्यकज्ञानी जीवो को अमृत देती है। उन जीवो को अपने भव कम करने का स्वर्णिम अवसर देती है...ऐसी मृत्यु को वंदन है!!
कितना आश्चर्य है... सत्पुरूष जिस फ़ल को अनेक व्रतो को पालन करने से पाते हैं, वह मृत्यु के अवसर में थोङे समय में शुभध्यान पूर्वक सूख से साधन करने से प्राप्त हो जाता है। सबसे बड़ा आश्चर्य जो मृत्यु एक दिन आनी ही है..फिर भी उससे ही डरना...मैं तो एक बार जिनेन्द्र देव पर विश्वास करू...उनके पथ पर चलू..क्योकि..जो मरण करते हुये दुखी नहीं होता, वह नारकी/तीर्यंच नहीं होता। जो धर्मध्यान सहित अनशन इत्यादि तप करते हुये मरता है, वह स्वर्ग में सुखो का स्वामी होता है...और सबसे बड़ी बात..वो नन्दीश्वर आदि द्वीपों पर जाता है..साक्षात तीर्थंकर के दर्शन करता है, उनकी दिव्या ध्वनि सुनता है...तीर्थंकरो के पञ्च कल्याणक में जाता है...क्या बात है..धर्म ध्यान करता है..फिर तप करने का, जिनवाणी पढ्ने का फ़ल तो आत्मा की सावधानी के साथ मरण करना ही है। लोग कहते हैं जिस चीज जो बहुत सेवन कर लिया उससे रूचि हट जाती है, तो फ़िर अब शरीर का बहुत सेवन कर लिया अब इसके नाश पर क्यों डर रहे हो..ये निश्चय से मेरा अनादी कल का संस्कार है जो मुझे विचलित करना चाहता है..लेकिन अबकी बार तो मैं अपने विचार पर दृढ हूँ...इस प्रकार जो 4 आराधना के साथ मरण करता है वह पक्का स्वर्ग में जाता है। फ़िर वहां सुख भोगकर मनुष्य बनता है। वहां खूब सुख भोगकर, मुनि बनकर सब लोगो को आनन्द देता हुआ शरीर छोङकर निर्वाण को प्राप्त करता है। हे स्वामी मैं तो उस परम पवित्र मुनि मुद्रा का चिंतन करने मात्र से ही हर्षित हो रहा हूँ..तो जो उस रूप को प्राप्त होते है..वे निश्चय ही बड़े भाग्य वाले...होते होंगे...
SOURCE - ये भावो की अंतर स्थिति को "मृत्यु महोत्सव" ग्रन्थ के आधार पर लिखा गया है! "मृत्यु महोत्सव" ग्रन्थ का चिंतन करके उसके notes - Mr. Shrish Jain [JinVaani Team - USA] द्वारा बनाए गए...और फिर उसको मैंने [Nipun Jain] ने अंतिम समय के भावो की यात्रा के रूप में बनाया! michhami dukkadam