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आज अगर वात्सल्य के लिये जाने जाने वाले किसी मुनि की बात आती है तो लोग सर्व प्रथम जगत पूज्य मुनि पुंगव श्री सुधा सागर जी महाराज का नाम प्रथम पंक्ति में लिखते है क्योंकि सभी जानते है कि यह केवल मुनि श्री का अथाह वात्सल्य ही है जो श्रावक संस्कार शिविर में सबसे कठिन चर्या पालन के बाबजूद भी प्रति वर्ष 2000 बच्चे अपना घर बार छोड़ ब्रह्मचारी की तरह साधना करने चले आते है
प्रति वर्ष लगने वाले शिविर में जब बालक एक बार मुनिपुंगव के सामने जाकर उनके सम्मुख खड़ा होता है तो उसे उनके आभामण्डल में आते ही एक विशेष वात्सल्य की अनुभूति होती है जिस के कारण वह अपनी दश लक्षण जी जैसे महापर्व की साधना बड़े ही स्वाभाविक तरीके से सम्पन्न कर पाता है, समय समय पर यदि जब भी कभी वह नन्हा बालक मुनि श्री के दर्शनों को भी यदि पहुचता है तो इतनी विशाल भीड़ में भी मुनि श्री की आँखे अपने आने वाले नन्हे शिष्य को पहिचान लेती है और उसे भरपूर आशीष से सराबोर कर देते है उनके इसी बात्सल्य गुण से प्रभावित होते हुए आज वर्तमान में उनके पास आने वाले भक्तों की भीड़ में काफी हद तक बृद्धि होती जा रही है
मुनि श्री भले ही राजस्थान पहुच गये है किंतु हम बुन्देलखंडियो को उनकी नजर बखूबी पहिचानती है और अपने हर छोटे बड़े कार्य की सिद्धि के लिये हम अपने आराध्य के दर्शनों को जाकर उनके वात्सल्यमयी आशीर्वाद से अभिसिंचित कर उनके द्वारा दी गयी ऊर्जा को ग्रहण करते हुए दोगुने उत्साह से उस कार्य को करते है और सफलता को प्राप्त करते है
मुनि श्री की वाणी में तो जैसे स्वयं सरस्वती का वास है उनके मुख से निकली प्रत्येक बात या तो सत्य होती है अथवा उसे होना पड़ता है यह स्वयं मेरे अनुभव की बात है जब कभी कोई बात मुनि श्री ने आशीर्वाद रूप में कही तो उसका फल सदैव सकारात्मक रूप में ही प्राप्त हुआ है या कुछ ऐसे निमित्त बने कि उस बात को उसी रूप परणत होना पड़ा जिस रूप में मुनि श्री ने आशीर्वाद में कहा होता है मुनि श्री के बात्सल्य की जितनी महिमा कही जाए कम ही है तभी तो पीढ़ियों दर पीढ़ी के आने वाले बच्चे स्वतः ही उनके शिष्य होते जाते है उदाहरण के तौर पर जैसे पहिले मेरे पिता जी उनसे प्रभावित हुए फिर में और अब मेरा बेटा भी सिर्फ और सिर्फ उन्ही का नाम लेता है उन्ही के गुणों को गाता है उनकी यश गाथा को सुनने और कहने में उसे ही क्या हम सब को बड़ा ही आनंद आता है और यह सब मुनि श्री के वात्सल्य गुण के कारण ही हुआ है
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Source: © Facebook
News in Hindi
#समन्तभद्र, फणिमण्डलान्तर्गत उरगपुर के राजा के पुत्र थे । आपका प्रारंभिक नाम शांति वर्मा था । छोटी सी अवस्था में संसार से विरक्त होकर आपने निर्ग्रंथ दीक्षा धारण कर ली । दीक्षा के उपरांत नाम समन्तभद्र हुआ ।
दुष्कर्म के उदय से आपको तपस्या काल में भस्मक व्याधि हो गयी । निर्ग्रंथ मुद्रा में उस व्याधि का प्रतिकार न देख आपने अपने गुरु से संल्लेखना कराने की प्रार्थना की परंतु गुरु दीर्घ दर्शी थे, वे बुद्धिमान समन्तभद्र के द्वारा जैनधर्म की महती प्रभावना की आशा रखते थे अतः उन्होंने संल्लेखना मरण की आज्ञा नहीं दी । फलत: समन्तभद्र ने निर्ग्रंथ मुद्रा छोड़कर अन्य साधु का वेश रख लिया । और स्वेच्छा पूर्वक आहार करते हुए विहार करने लगे । विहार करते हुए काशी आये वहाँ शिव मंदिर में शिव भोग की विशाल अन्न राशि को देखकर उन्होंने विचार किया कि यदि यह राशि मुझे प्राप्त हो जाय तो इससे मेरी व्याधि शांत हो सकती है ।*_
_*विचार आते ही वे चतुराई से शिव मंदिर में रहने लगे । शिव भोग के उपभोग से धीरेधीरे उनकी व्याधि शांत हो गयी । अंत में गुप्तचरों के द्वारा काशी नरेश को जब इस बात का पता चला कि यह न तो शिव भक्त है और न शिवजी को भोग अर्पित करता है अपितु स्वयं खा जाता है । राजा आगबबूला होता हुआ समन्तभद्र के सामने आया और उनसे उनकी यथार्थता पूछने लगा । समन्तभद्र ने अपना परिचय दिया -
*कांची में मलिन वेश धारी दिगम्बर रहा, लाम्बुश में पाण्डु वस्त्र धारण किए, पुण्ड्रोण्ड्र में जाकर बौद्ध भिक्षु बना, दश पुर नगर में मिष्ट भोजन करने वाला सन्यासी, वाराणसी में श्वेत वस्त्र धारी तपस्वी बना । राजन! आपके सामने यह दिगम्बर जैनवादी खड़ा है जिस की शक्ति हो मुझसे शास्त्रार्थ कर ले ।*
_राजा ने जैनेतर मूर्ति को नमस्कार करने का आग्रह किया परंतु उन्होंने स्पष्ट उत्तर दिया कि यह मूर्ति मेरे नमस्कार को सह न सकेगी । समन्तभद्र के इस उत्तर से राजा का कौतूहल और नमस्कार करने का आग्रह दोनों ही बढ़ गये । समन्तभद्र आशु कवि थे तो उन्होंने वृषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन शुरू किया । जब वे आठवें तीर्थंकर चंद्रप्रभनाथ भगवान् का स्तवन कर रहे थे तब सहसा मूर्ति फट गयी और उसमें से चंद्रप्रभनाथ भगवान् की मूर्ति निकल पड़ी । इस घटना से काशी नरेश समन्तभद्र को असाधारण योगी मानकर उनसे बहुत प्रभावित हुए और वे जिन धर्म के अनुयायी और उनके शिष्य हो गये । नरेश के साथ अन्य अनेक लोगों ने भी जैन धर्म धारण किया । नरेश का भाई शिवायन भी समन्तभद्र का शिष्य हो गया । ' राजवलिकथे ' के अनुसार उनको भस्मक व्याधि पाँच दिन में शांत हो गयी ।
*रचना*
स्वयंभू स्तोत्र
देवागम स्तोत्र (आप्त मीमांसा)
युक्त्यनुशासन
स्तुति विद्या (जिन शतक)
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
_सभी ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं ।_
_देवागम स्तोत्र (आप्त मीमांसा) और युक्त्यनुशासन एवं स्वयंभू स्तोत्र ग्रंथ होते हुए भी दार्शनिक तत्त्वों से समाविष्ट हैं ।_
_स्तुति विद्या (जिन शतक)_
_शब्दालंकार प्रधान रचना है ।_ _इसमें चित्रालंकार के द्वारा चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति की गयी है ।_
_रत्नकरण्ड श्रावकाचार धर्म शास्त्र विषयक सरल रचना है ।_
_*इन उपलब्ध ग्रंथों के अतिरिक्त आपके द्वारा रचित निम्न ग्रंथों के उल्लेख और मिलते हैं -*_
_जीव सिद्धि_
_तत्त्वानुशासन_
_प्राकृत व्याकरण_
_प्रमाण पदार्थ_
_कर्म प्राभृत टीका_
_गन्ध हस्तिमहाभाष्य_
_आप बहुत ही परीक्षा प्रधानी थे ।_ _जबतक युक्ति के द्वारा किसी बात का निर्णय नहीं कर लेते थे तबतक आपको संतोष नहीं होता था ।_
_युक्त्यनुशासन की टीका में विद्यानंद स्वामी ने उन्हें परीक्षेक्षण परीक्षा रूपी नेत्र से सबको देखने वाला लिखा है ।_
*समन्तभद्र का समय:-*
_जैन साहित्य और इतिहास वेत्ता श्री स्व. जुगलकिशोर जी मुख्तार ने अपने *' स्वामी समन्तभद्र '* _नाम के महानिबंध में अनेक विद्वानों की मान्यताओं की बारीकी से समीक्षा करके यह विचार प्रकट किया है कि समन्तभद्र उमास्वामी (उमास्वाती) के बाद और पूज्यपाद स्वामी के पहले विक्रम की दूसरी या तीसरी शताब्दी में हुए हैं ।_
_पूज्यपाद स्वामी ने अपने जैनेन्द्र व्याकरण में चतुष्टयं समन्तभद्रस्य ५/४/१४० सूत्र के द्वारा समन्तभद्र का उल्लेख किया है, अतः वे पूज्यपाद से निश्चित ही पूर्ववर्ती हैं ।_
*संकलन --*
*स्वयंभू स्तोत्र एवं रत्नकरण्ड श्रावकाचार*
📚📚📚 *पद्म श्री आर्ट* 📚📚📚
💦💦 *अमूल्य धारा परिवार* 💦💦
📘📘 *अभयसागर भक्त ग्रुप* 📘📘
*9⃣4⃣2⃣5⃣7⃣6⃣2⃣1⃣0⃣1⃣*
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आचार्य श्री #शांतिसागर जी के परम्परा आचार्य.. Live Photograph #आचार्य_श्री_वर्धमानसागर जी केशलोंच करते हुए अनुपम द्रश्य 😇
Picture by: Siddha Didi
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