Updated on 23.08.2022 16:50
प्रज्ञा की रश्मियां💦🫧💦
प्रज्ञा का पढ़ाई से संबंध नहीं होता। वह चेतना का सहज प्रकाश है। उसकी रश्मियां फूटती हैं तब दसों दिशाएं आलोक से भर जाती हैं।
भारमलजी ने उत्तराधिकार का लेख-पत्र लिखा। उसमें दो नाम लिखे। उसकी भाषा इस प्रकार है~*सर्व साध-साधवी खेतासीजी, रायचंदजी री आगन्या मांहे चालणो।*
मुनि जीतमल उस समय अठारह वर्ष के नवयुवक थे। उन्होंने बद्धांजलि वंदना कर कहा~'गुरुदेव! आपने उत्तराधिकार के लिखे पत्र में दो नाम लिखे हैं। मेरी विनम्र प्रार्थना है कि उसमें एक नाम ही रखें। अप् जिसका चाहें, उसका नाम रखें, पर रखें एक ही नाम।'
भारमलजी स्वामी ने कहा~ 'जीतमल! खेतसीजी मामा हैं रायचंद (ऋषिराय) उनका भानजा है। इसमें कठिनाई क्या होगी?' मुनि जीतमल ने कहा~'गुरुदेव संबंध संबंध है, पैड पैड है। कठिनाई कभी भी हो सकती है। दूसरी बात~आपके हाथों आचार्य भिक्षु की मर्यादा की प्रथम क्रियान्विति हो रही है, इसलिए समूचे भविष्य का दायित्व आपकी कृति पर निर्भर है।' भारमलजी स्वामी ने मुनि जीतमल की प्रार्थना को स्वीकार किया और मुनि खेतासीजी का नाम हटा दिया। वह पत्र आज भी सुरक्षित है और उस पर बिंदियां लगी हुई हैं। उत्तराधिकार लिखत की प्रारंभिक और अंतिम पंक्ति भारमलजी स्वामी ने स्वयं लिखी और बीच का सारा पत्र किसी दूसरे मुनि का लिखा हुआ है। वह हस्तलिपि मुनि जीतमल की प्रतीत होती है। इस संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि मुनि जीतमल वह पत्र लिख रहे थे। जब भारमलजी स्वामी ने दो नाम लिखाए तब उसी समय उन्होंने आचार्यवर से प्रार्थना की। आचार्यवर ने उनकी प्रार्थना में ली और केवल रायचंदजी (ऋषिराय) का नाम ही उसमें रखा। एक अठारह वर्षीय मुनि की प्रज्ञा ने संघ को बड़े संकट से उबार लिया। यदि एक बार उस परम्परा का सूत्रपात हो जाता तो तेरापन्थ के नेतृत्व का भविष्य उतना निरापद नहीं रहता, जितना आज है।
#आचार्य तुलसी की रचना 'प्रज्ञापुरुष जयाचार्य' (संपादन~साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा) से उद्धृत
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Updated on 23.08.2022 07:49
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Posted on 22.08.2022 23:09
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