ShortNews in English
Balotara: 30.05.2012
Acharya Mahashraman said that how to speak is art. Language is full science. Do not use instructive language but use suggestive language.
News in Hindi
आदेशात्मक भाषा से बचें
बालोतरा जैन तेरापंथ न्यूज ब्योरो Published on 30 May-2012
तीसरा बिंदु है, भाषा-विवेक। भाषा का अपना एक पूरा विज्ञान है। एक व्यक्ति मात्र भाषा प्रयोग के अविवेक के कारण जहां सामने वाले व्यक्ति को उत्तेजित और अशांत बना देता है, वहीं दूसरा व्यक्ति अपने भाषा-विवेक से उत्तेजित और अशांत व्यक्ति को शांत बना देता है। वृद्ध व्यक्ति को विवेकानुसार आदेशात्मक भाषा से सलक्ष्य बचना चाहिए। यदि पूर्णतया बचना शक्य न भी हो यथासंभव अवश्य बचें। सुझावात्मक सास यदि बहू को दिनभर- 'ऐसा करो, वैसा करो, यह करो, वह करो' की भाषा बोलती है तो बहुत संभव है कि किसी प्रसंग में बहू के मन में प्रतिक्रिया पैदा हो जाए और परिणामत: उसको उत्तेजना आ जाए। लेकिन इसके स्थान पर जब सास कहती है- बहूरानी! क्या तुम यह काम कर दोगी? क्या यह काम कर सकती हो? अभी यह काम यदि कर लो तो ठीक रहेगा, इस प्रकार कहने से तेज स्वभाव वाली बहू को भी उत्तेजित होने का अवसर नहीं मिलता। इसलिए यह बहुत उचित प्रतीत होता है कि भाषा सुझावात्मक और प्रशनात्मक हो, आदेशात्मक भाषा का प्रयोग प्राय: न हो।
उपयोगी हैं प्रेक्षाध्यान के प्रयोग
चौथा बिंदु है- दीर्घश्वास और कायोत्सर्ग आदि का प्रयोग। परम श्रद्धेय आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने प्रेक्षाध्यान पद्धति प्रस्तुत की। वह वृद्ध लोगों के लिए भी अत्यंत उपयोगी है। दीर्घश्वास प्रेक्षा, कायोत्सर्ग जैसे कुछ प्रयोग यदि वृद्ध भाई-बहिन निष्ठा के साथ नियमित रूप से करते रहें तो उनकी मानसिक प्रसन्नता में विकास हो सकता है। साथ ही साथ शारीरिक स्वास्थ्य भी प्राप्त होता है।
शक्ति का गोपन न हो
पांचवा बिंदु है- सक्रियता। सक्रियता जीवन को उपयोगी बनाए रखने का महत्वपूर्ण सूत्र है। हालांकि वृद्धावस्था में हर व्यक्ति सब कार्य नहीं कर सकता पर यह कोई महत्वपूर्ण बात नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि व्यक्ति अपनी शक्ति को गोपन न करें यानी जो उपयोगी कार्य वह कर सकता है उसमें आलस्य करना उचित नहीं। निष्क्रियता एक ओर जहां उसके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर ला सकती है, वहीं दूसरी ओर वह परिवार के लिए भारभूत सा बन जाता है। यह स्थिति उनके जीवन को अभिशाप बनाने के बड़ा निमित्त बनती है। इसलिए यह नितांत अपेक्षित लगता है कि वृद्धजन किसी ने किसी सत्कार्य में अपने को संलग्र रखें। मैं मानता हूं कुछ सत्कार्य तो वे बहुत अच्छे ढ़़ंग से संपादित कर सकते हैं।
आचार्य महाश्रमण