ShortNews in English
Balotara: 04.06.2012
Acharya Mahashraman said that Santhara is important position to stay in soul. Suicide is result of hopeless situation. People take decision of suicide in anger. Santhara is very different. Anyone accept it in peaceful and happy moments.
News in Hindi
संथारा: आत्मरमण की स्थिति
बालोतरा
जैन धर्म में संथारे की अवधारणा एक ऐसी प्रविधि है जिसे अपने आप में महत्वपूर्ण कहा जा सकता है। इस विधि में आकृष्ट होकर संत विनोबा ने कहा था कि मैं अपने शरीर का अंत जैन धर्म में वर्णित अनशन या संथारे की विधि से करना चाहता हूं और उन्होंने वैसा ही किया। आहार का यावज्जीवन के लिए त्याग कर देना और आत्म समाधि में लीन हो जाना कलात्मक मृत्यु की पूर्व तैयारी है। जैन वाड़्मय मे साधु और श्रावक दोनों के लिए तीन-तीन मनोरथ बनाए गए हैं जिनमें तीसरा मनोरथ है, देहासक्ति से मुक्त होकर मात्र आत्म केन्द्रित हो जाना। इस प्रकार की मृत्यु को शुभ माना गया है। आत्मार्पण या आत्म समाधि में स्थित होने की यह प्रक्रिया घृणित आत्महत्या नहीं अपितु देहाध्यास से ऊपर उठकर आत्मस्थ होने की एक विशिष्ट प्रक्रिया है। आत्महत्या का संबंध आवेग, आवेश, तनाव, कुंठा, घुटन या जिंदगी से निराश, हताश होकर अविवेकपूर्ण उठाए हुए कदमों से हैं, जबकि संथारा पूरे होश-हवाश के साथ जागरूक अवस्था में मौत से भयभीत न होकर प्रसन्नचित्त से आत्मरमण करने की स्थिति है। इसमें न जीने से ऊब है न मृत्यु से मोह है। यह जीने और मरने की कामना से ऊपर उठने की स्थिति है।
संथारा क्यों स्वीकार करना चाहिए? इस संदर्भ में आगम साहित्य में स्पष्ट निर्देश दिया गया है, इस लोक में प्रतिष्ठा होगी इसलिए संथारा नहीं करना चाहिए। परलोक में प्रतिष्ठा होगी इसलिए संथारा नहीं करना चाहिए। जीवन की आकांक्षा में संथारा नहीं करना चाहिए। मरने की आकांक्षा से संथारा नहीं करना चाहिए। प्रत्युत अनशन करना चाहिए एकमात्र समाधिपूर्वक मौत को स्वीकार करने की दृष्टि से। संथारा कब करना चाहिए? यह विवेक देते हुए आर्षवाणी में कहा गया, जब तक यह शरीर आत्म साधना में सहायक हो, तब तक इसे पोषण दिया जाए, इसकी सार संभाल की जाए। जब यह लगे कि शरीर की शक्ति चूक गई है, इंद्रियां शक्तिहीन हो गई है। कोई भी चिकित्सा काम नहीं कर रही है। उस स्थिति में आत्मबल को टटोलकर आत्मानुभूति में अपने आपको नियोजित कर संथारा स्वीकार करना चाहिए। यह विशेष स्थिति के सिवाय एकाएक नहीं, क्रमिक अभ्यास करते हुए करना चाहिए। क्रमिक अभ्यास के लिए जैन परम्परा में संलेखना विधि प्रतिपादित है। उसके अंतर्गत आहार का अल्पीकरण और कषाय का कृशीकरण निर्दिष्ट है। यह है मृत्यु की कला। कलात्मक जीवन जीते हुए व्यक्ति कलात्मक मृत्यु के दर्शन को समझे और उससे अभय बनकर अपनी हर सांस को सफल बनाए, यह काम्य है।
आचार्य महाश्रमण
जैन तेरापंथ न्यूज ब्योरो