Update
सांगानेर में मन रही दिवाली, जगत्पूज्य गुरूजी को पाकर सब हुए धन्य..!! #MuniSudhasagar
राजस्थान के जयपुर शहर में स्थित सांगानेर के संघी जी मंदिर में इन दिनों दीवाली जैसा माहौल देखने को मिल रहा है। आचार्य भगवन गुरूवर श्री विद्यासागर जी महायतिराज के परम शिष्य जगत्पूज्य मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाऋषिराज ने लगभग चौदह बरस के लम्बे अंतराल के पश्चात सांगानेर की धरा पर प्रवेश किया है। कौन नहीं जानता.. जगत्पूज्य को सांगानेर वाले बाबा कितने प्रिय हैं। वे सोते-उठते, चलते-फिरते हर समय सांगानेर वाले बाबा को ही तो याद करते हैं..!! उन्ही को अपना इष्ट मानते हैं, और किसी भी कार्य को प्रारंभ करने से पहले उन्ही से आशीष मांगते हैं..!! लेकिन नीयति देखिए, इस बार जगत्पूज्य को यहाँ आने में चौदह साल लग गए।
जगत्पूज्य को यदि सांगानेर वाले बाबा इष्ट है तो सांगानेर की समाज को भी अपने जगत्पूज्य इष्ट हैं। सूर्य की प्रथम किरण के साथ ही इन दिनों हजारों श्रद्धालुओं का रैला संघी जी के मंदिर की ओर बढ़ता हुआ देखा जा सकता है। फिर चाहे वो जगत्पूज्य का प्रवचन हो या या आहारचर्या, या स्वाध्याय, जिज्ञासा समाधान या वैयावृत्ति; श्रद्धालओं की भीड़ गुरूवर का साथ नही छोड़ना चाह रही। मानों वो कह रही हो, बरसों बाद मिले हो अब कहीं मत जाना..!!* 🍂🍂
एक ओर अपने जगत्पूज्य को पाकर यह क्षेत्र स्वयं को धन्य कह रहा है तो दूसरी ओर अपने इष्ट आदिनाथ बाबा को पाकर जगत्पूज्य स्वयं को बारम्बार धन्य कह रहे हैं। संघी जी के मंदिर में आने वाली भीड़ को देखकर हर व्यवस्था छोटी पड़ने लगी है और हो भी क्यों ना...! मुनि श्री का प्रभाव ही कुछ ऐसा है। *वे जहाँ जाते हैं, वह धरा तीर्थ का रूप ले लेती है, हवाएं अपना रूख बदल लेती है और मिथ्यात्व पलायमान होने लगता है। श्रावकों ने जगत्पूज्य के स्वागत में जगह जगह रंगोली बनाई है, बांदनवार लगाए हैं..इतना ही नही घर-घर दीपक जलाए हैं। जैसे ही साँझ ढलती है, संघी जी का मंदिर परिसर मानो दूधिया रोशनी में नहा उठता है। जगत्पूज्य को पाकर यह धरा मुस्कुरा रही है, मानो कह रही हो, अब आई है दीवाली!!
••••••••• www.jinvaani.org •••••••••
••••••• Jainism' e-Storehouse •••••••
#Jainism #Jain #Digambara #Nirgrantha #Tirthankara #Adinatha #LordMahavira #MahavirBhagwan #RishabhaDev #Ahinsa #AcharyaVidyasagar
Source: © Facebook
क्षुल्लक श्री ध्यानसागर जी महाराज ❓प्रश्न: क्या पार्श्वनाथ स्वामी की फणावाली प्रतिमा पूजनीय है?
जब वीरसेन आचार्य को लगा की मेरा समय अधिक नहीं है तब उन्होंने २०००० श्लोक प्रमाण जय धवला की रचना करने के उपरांत अपने शिष्य आचार्य जिनसेन स्वामी को वह कार्य संपन्न करने का आदेश किया और उन्होंने ४०००० श्लोक प्रमाण जयधवला की रचना कर के ग्रन्थ पूर्ण किया ।
उन्हीं आचार्य जिनसेन स्वामी ने "पार्श्वाभ्युदय" नामक एक अद्भुत ग्रंथ की भी रचना की है।
मेघदूत की समस्या पूर्ती के रूप में उन्होंने रचना की।
ग्रन्थ में पार्श्वनाथ भगवान की कथा के प्रसंग में
चतुर्थ सर्ग के ४६ वे काव्य में आचार्य कहते हैं:
"उपसर्ग पर विजय प्राप्त कर के पार्श्वनाथ भगवान् सर्वज्ञ हो गए।"
और उसके बाद ५८ वे काव्य में कहते है..
धरणेन्द्र ने उपसर्ग काल में उपसर्ग निवारण प्रयत्न में जो फणा की रचना की थी उसके बाद केवलज्ञान होने के पश्चात् धरणेन्द्र ने पार्श्वनाथ स्वामी की स्तुति की और स्तुति के अंत में पुनः पार्श्वनाथ भगवान् पर फणा बनाया।
इस प्रकार केवली अवस्था में भी पार्श्वनाथ भगवान् पर फणा मण्डल का उल्लेख है यह बात जयधवला ग्रन्थ के रचनाकार आचार्य जिनसेन स्वामी की वाणी से प्रमाणित होती है।
इस प्रकार जिनका यह आग्रह है कि केवलज्ञान के उपरांत भगवान् पर फणा नहीं होता वो उस आग्रह में संशोधन कर सकते है, क्योंकि "आगम"- जिनवाणी माता से बड़ा कोई नहीं है।
और हमारा ज्ञान तो आचार्य जिनसेन स्वामी की धूल के बराबर भी नहीं है।
💠 आचार्य जिनसेन स्वामी के ज्ञान की झलक:
मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों को लेकर १६ पुस्तकें लिखी है ६०००० श्लोक प्रमाण (२०००० गुरु द्वारा और ४०००० उनके द्वारा) जयधवला ग्रन्थ के रचनाकार ऐसे महान् आचार्य ।।
हम अपने तुच्छ ज्ञान का अभिमान करते है पर वे महान् गुरु अपने ज्ञान का बिल्कुल अभिमान नहीं करते।
इसलिए विनम्र बनना बहुत बहुत आवश्यक है।
आगम निर्दोष है।
यदि समझ न आए तो वह अपनी बुद्धि का दोष है,
जब भी आगम का अर्थ करना हो तो पहला नियम यह है की "जो लिखा है वह सही है",
कैसे सही है- यह समझना मुझे बाकि है।"
इतनी विनय यदि अपने पास रही तो कभी न कभी समझने का मौका भी अपने को पुण्य से प्राप्त हो सकता है।
और यदि आगम पर सन्देह किया तो जन्म-जन्मान्तर तक समझने का अवसर प्राप्त होना भी दुष्कर हो जाएगा।
🔘 धवला जी और प्रवचनसार ग्रन्थ में भी
"आगम चक्खू साहू" कहा है।
आगम को साधु की आँख कहा है और जो साधु आगम को स्वीकार नहीं करते वह अंधे है।
आगम् सर्वोपरि है।
जयउ सुय देवदा ।।
🔹जैनं जयतु शासनम्।🔹
⏩ जिनवाणी पुत्र क्षुल्लक रत्न श्री ध्यान सागर जी महाराज शाहपुरा दिगम्बर जैन मंदिर भोपाल में विराजमान हैं।
▶ आगमधारा उपदेश प्रतिदिन प्रातः 8.30 शाहपुरा मंदिर भोपाल
••••••••• www.jinvaani.org •••••••••
••••••• Jainism' e-Storehouse •••••••
#Jainism #Jain #Digambara #Nirgrantha #Tirthankara #Adinatha #LordMahavira #MahavirBhagwan #RishabhaDev #Ahinsa #AcharyaVidyasagar
Source: © Facebook
Update
ये फोटो एक पेड़ की कीमत बता रहा हैं....आप समझ रहे है ना कि हमें करना क्या हैं? समझ गए हो तो शेयर जरुर करे और दुसरो को भी समझाये -the Photograph itself telling the importance of Jungle/trees in our world. #Share_maximum
Source: © Facebook
News in Hindi
आचार्य श्री द्वारा प्रेरित हतकरधा केंद्र में बने fabric / #Handloom #Hatkardha
चादर,टकिया कवर 250 ₹ से 300 ₹ तक तथा 400 ₹ (आठ पैडल)
पेन्ट का कपड़ा मात्र 360 ₹ प्रति पेन्ट पीस
टाबल 180 ₹
गमछा 100 ₹ 120 ₹ (दो मीटर)
धोती 900 ₹ 1000₹ 1200 ₹ (डाबी)
कुण्डलपुर एवं बीना बारह केन्द्र पर उपलब्ध
Source: © Facebook
Source: © Facebook
Jainism states that the universe is without a beginning or an end, and is everlasting and eternal.. Trinity concept [ Utpada, Vyaya, Dhrovya ]
Six fundamental entities (known as Dravya) constitute the universe. Although all six entities are eternal, they continuously undergo countless changes (known as Paryäya, a state of constant changing in a substance is called Paryaya). In these transformations nothing is lost or destroyed. Lord Mahavira explained these phenomena in his Three Pronouncements known as Tripadi and proclaimed that Existence or Reality (also known as Sata) is a combination of appearance (Utpäda), disappearance (Vyaya), and persistence (Dhrauvya).
For examples: A human being through the process of growth undergoes various changes, such as childhood, youth, old age, death and rebirth and again repeating the same cycle. These changes are the natural modifications. Childhood, youth, old age, death and rebirth and again repeating the same cycle are transient forms known as Paryaya. Soul of a living being is permanent and known as Dravya.
Elaboration: Disappearing of childhood is vyaya [disappearance ], appearing of youth is Utpada [ appearance ] and continuous existence of a soul is dhrovya [ persistence ]. Same would apply on old age, death and rebirth etc. Alike, the same trinity concept applies on all six substances.
>>Trinity concept [ Utpada, Vyaya, Dhrovya ] and their characteristics:
Utpäda - (Origination/birth of a state)- Mode/ State (Paryäya)
Vyaya - (Cessation/ destruction of a state)- Mode/State (Paryäya)
Dhrauvya - (Permanence/eternal)- Substance (Drauvya)
While Jainism does not believe in the concept of God as a creator, protector, and destroyer of the universe, the philosophical concepts of Utpäda (Appear of a state), Vyaya (Disappear of a state), and Dhrauvya (Persistence of a substance) are consistent with the Trinity concepts of those religions believing in God. This indicates that Jainism is not an atheistic religion; rather it emphasizes freedom of the soul from karma and the potential to gain liberation through self-effort and not the "grace" of a Supreme Being.
--- www.jinvaani.org @ Jainism' e-Storehouse ---
#Jainism #Jain #Digambara #Nirgrantha #Tirthankara #Adinatha #LordMahavira #MahavirBhagwan #RishabhaDev #Ahinsa #Nonviolence
Source: © Facebook