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क्रोध में लिए गए निर्णयों के कारण हुई थी रावण की हार -क्षुल्लक ध्यानसागर जी -संतश्री ने श्रीराम के चरित्र और उनके आदर्शों का उल्लेख कर समझाया! #KshullakDhyansagar #Ramkatha
जैन संत ध्यान सागर महाराज ने कहा- परिणाम की आस न रखें, रामचरित मानस के प्रत्येक पात्र से हमें सीख लेनी चाहिए। इसे पढ़ने पर अनुशासन, मर्यादा व संयमित जीवन की सीख मिलती है। श्रीराम ने धैर्य व संयम का परिचय दिया। इसके विपरीत हम हर काम का परिणाम तत्काल चाहते हैं। अच्छे काम करते रहना चाहिए। इकबाल मैदान में जैन समाज द्वारा आयोजित राम कथा में मंगलवार को जैन संत ध्यान सागर महाराज ने कहा कि रावण ने अपनी मृत्यु के समय लक्ष्मण जी से जो बातें कहीं, उन्हें सीख के रूप में सभी को अपने जीवन में उतारना चाहिए। रावण ने कहा कि श्रीराम के हाथों मेरी हार का कारण है कि मैंने क्रोध कर अपने भाई को राज्य से निकाल दिया और सारे निर्णय क्रोध के वशीभूत होकर लिए। इसी तरह सीताजी को राम को लौटाने में देर कर दी और युद्ध हुआ, इसलिए अच्छे काम में देरी नहीं करना चाहिए। रावण ने कहा कि मुझे बड़ों ने समझाया था कि राम से युद्ध मत करो, मैंने उनकी बात नहीं मानी, परिणाम मेरी हार और मृत्यु है। संतश्री ने रामकथा के विभिन्न प्रसंगों से भगवान राम के चरित्र और उनके आदर्शों का उल्लेख कर समझाया।
विनम्र होते हैं महान लोग -संतश्री ने कहा कि जो महान होते हैं, वे विनम्र होते हैं। श्रीराम और रावण में यहीं अंतर था। राम महान होकर भी विनम्र थे, जबकि रावण में अहंकार था। युद्ध के दौरान समुद्र पार करने की बात आई तब सभी ने पत्थरों पर श्रीराम का नाम लिखकर समुद्र में पत्थर जो तैर रहे थे। राम ने देखा एक गिलहरी अपने छोटे मुंह से रेत डालकर गड्ढे भरने का काम कर रही थी। राम गिलहरी की ओर देखते हैं और गिलहरी राम की ओर देखती है। दोनों के बीच हृदय की भाषा से बातचीत होती है। ह्रदय की भाषा आंखों से बोली जाती है और बुद्धि की भाषा मुख से। तब राम उस पर हाथ फेरते हुए कहते हैं कि धर्म युद्ध में तुम्हारा योगदान भी अतुल्य है। आशय यह है कि कोई काम छोटा-बड़ा नहीं है,जिसमें जितनी क्षमता हो, उसे उतना अवश्य करना चाहिए। हनुमान हमेशा पीछे खड़े रहते थे, पर संजीवनी बूटी लाने वे सबसे आगे आए। उनके लिए कोई काम असंभव नहीं था।
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आचार्य श्री विद्यासागर जी के दर्शन करते हुए क्षुल्लक श्री ध्यानसागर जी महाराज.. आचार्य श्री आशीर्वाद देते हुए @ अमरकंटक.. अनुपम द्रश्य:) #AcharayVidyasagar #KshullakDhyansagar
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What is Jainism or Jina Dharma?
Before we understand the meaning of the Jain dharma, it is absolutely necessary that we should have a thorough knowledge of the word, dharma or religion because for thousands of years, innumerable wrong notions about dharma has been nourished and held by people. Dharma or religion is neither a cult nor a creed; nor it is a reserved system of any community. Dharma is not entirely related either to an individual or to a society; nor it is confined to any area. Dharma is the essential nature of an individual or an object. Shramana Bhagawana Lord Mahavira has explained the meaning of dharma clearly thus:-
"Vatthu Sahavo Dhammo"
Meaning, Dharma is nothing but the real nature of an object. Just as the nature of fire is to burn and the nature of water is to produce a cooling effect, in the same manner, the essential nature of the soul is to seek self-realization and spiritual elevation.
If we examine the matter thus, we find that dharma acquires different definitions in different contexts but here is a simple and clear meaning of it; "Dharma is the name that can be given to all the elaborate codes of conduct and ideologies that enable life to attain nobility and spiritual exaltation". Dharma can be the only means to understand and realize the true meaning of life. Dharma in its real sense is that which leads the soul on the path of felicity, peace and spiritual bliss; and impels it to be active and progressive. The great Jinas/Jieshwaras (liberated souls) have defined dharma thus:-
Arhat Dharma: the dharma of Arihantas or the destroyers of the inner enemies namely Karmas.
Anekanta Darshan: the ideology that is comprehensive and is not limited to a single point of view.
Vitaraga Marg: the dharma that has been expounded by the Paramatma (liberated soul) who is devoid of all attachments and hatred.
Thus, Jainism or Jain Dharma is known by various names.
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News in Hindi
Pravachan @ Dongargadh:) ऊँची दुकान और फिका पकवान -दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर जी #AcharyaVidyasagar
आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने प्रात: कालीन प्रवचन में कहा की जब तीर्थंकर भगवान का समवशरण लगता है तो उसमे काफी भीड़ होती है और जगह की कमी कभी नहीं पड़ती है | बेहरे के कान ठीक हो जाते हैं उसे सब सुनाई देने लगता है, अंधे की आँखे ठीक हो जाती है और उसे सब दिखाई देने लग जाता है, लंगड़े के पैर ठीक हो जाते हैं और वह चलने लग जाता है वो भी बिना किसी ऑपरेशन, सर्जरी या बिना किसी नकली पैरों के सब कुछ अपने आप हो जाता है |मंदबुद्धि का दिमाग ठीक हो जाता है | एक बार एक गाँव में 25 वे तीर्थंकर कहकर समवशरण लगाया गया उसमे काफी भीड़ भी इकट्ठी हो गयी वहाँ बेहरे, अंधे, लूले - लंगड़े, मंद बुद्धि लोग भी आये परन्तु उनका वहाँ जाकर भी कुछ नहीं हुआ | वे जब वापस आये तो अँधा अँधा ही था, बहरा बहरा ही था, लंगड़ा लंगड़ा ही था और मंदबुद्धि मंदबुद्धि ही था किसी में कोई परिवर्तन नहीं आया तो लोग समझ गए की यह समवशरण वीतरागी का नहीं है | यह सब एक वीतरागी के समवशरण में ही संभव हो सकता है और वीतरागी समवशरण में आने वालों का पूर्ण श्रधान सम्यक दर्शन का होना भी अनिवार्य है तभी कुछ परिवर्तन होना संभव है | सम्यक दर्शन के भी आठ भेद बताये जाते हैं जिसका शास्त्रों में उलेख पढ़ने को मिलता है |
आचार्य श्री ने कहा की कपडे दुकान वाले बुरा मत मानना | एक बार एक कपडे की दुकान में एक ग्राहक आता है और कपडे देखता है देखते - देखते उसके सामने पूरा का पूरा कपड़ों का ढेर लग जाता है, दुकान का मालिक उससे पूछता है की आपको किस वैरायटी का कपडा चाहिये तो ग्राहक कहता है की आप अपनी दुकान का सारा माल दिखाइये मुझे जो पसंद आएगा उसे में लूँगा कपडे दुकान वाले का पसीना छूट जाता है और ग्राहक को चाय भी पिलाया (लोभ दिया) फिर भी ग्राहक संतुष्ट नहीं हुआ | आचार्य श्री ने कहा की दुकान कैसी भी हो क्वालिटी अच्छी हो तो लोग ठेले में भी झूम जाते हैं | वो कहावत है न ‘’ऊँची दुकान और फिका पकवान’’| दुकान बड़ी होने से कुछ नहीं होता माल अच्छा हो तो दुकान में भीड़ लगी रहती है | इसी प्रकार हमारे भाव भी सम्यक दर्शन के प्रति बने रहना चाहिये और इसमें कभी कोई शंका उत्पन्न नहीं होना चाहिये तभी इसकी सार्थकता है | यह जानकारी चंद्रगिरि डोंगरगढ़ से निशांत जैन (निशु) ने दी है।