Hindi:
Acharya Jinadatta Suri |
सौंधी महक खरतरगच्छ की
~~~~~~~~~~~~~~~
जैन जगत के दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि, मणिधारी दादा गुरुदेव श्री जिनचंद्रसूरि, दादा श्री जिनकुशलसुरि, दादा श्री जिनचंद्रसूरि, ये चार नाम उन महापुरुषों के, जिन्होंने अपनी साधना और पुरुषार्थ के आधार पर जैन शासन की दिशा ही बदल दी।
जैन समाज का हर घटक अपने अन्तर में इन चारों दादा गुरुदेवों के उपकारों के सुगंध का प्रतिफल अहसास करता है।
अपने-अपने समय में हर गच्छ में महान आचार्य बहुत हुए है, किंतु कोई ऐसा आचार्य नहीं, जो इनकी बराबरी कर सके।
यही कारण है कि इन चार महापुरुषों को ही दादा गुरुदेव का विशिष्ट और उपकार भरा संबोधन प्राप्त हुआ। यह संबोधन उन्होंने स्वयं नहीं लिया, न किसी राजा ने दिया, न किसी एक संघ या आचार्य ने दिया! यह संबोधन आम जनसमूह ने परम श्रद्धा से भरकर दिया।
एक समय था, जब खरतरगच्छ का साम्राज्य पूरे भारत में फैला हुआ था। हजारों की संख्या में साधु-साध्वी विचरण करते थे। प्रायः सभी तीर्थों की सुव्यवस्था खरतरगच्छ की समाचारी के अनुसार होती थी। प्रायः भारतभर के संघों में खरतरगच्छ की शास्त्रशुद्ध समाचारी का बोलबाला था।
समय में परिवर्तन हुआ और विशाल गच्छ कुछ ही क्षेत्रों में सिमट कर रह गया। जिस गुजरात में खरतरगच्छ का जन्म हुआ था और जहाँ खरतरगच्छ का सूरज दोपहर के सूर्य की भांति चमकता था, उस गुजरात में अब गच्छ की परम्परा नगण्य रह गई है। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अवश्य आज भी गच्छ की चमक दिखाई देती है। चूँकि साधु -साध्वी अल्प हैं, गच्छ की क्रिया सर्वत्र अल्प दिखाई दे रही है।
दादा गुरुदेव ही हमारे
गच्छ के रखवाले हैं। साधु- साध्वी हर जगह पहुँच नहीं पाते, लेकिन हर जगह हमारी श्रद्धा के परिणामस्वरूप निर्मित हुई दादावाड़ी में विराजमान दादा गुरुदेव गच्छ की सुरक्षा करते है।
हालाँकि खरतरगच्छ की क्रिया संपूर्णतः शास्त्र शुद्ध है। इसे किसी भी प्रकार से चुनौती नहीं दी जा सकती है। चाहे सामायिक लेने का विधान हो, चाहे पौषध में उपवास करने की अनिवार्यता हो, चाहे दो भाद्रपद होने पर पहले भाद्रपद में पर्युषण करने की बात हो, चाहे तिथि वृद्धि में प्रथम तिथि को आराधना तिथि मनाने की परम्परा हो, हर परम्परा सर्वथा शास्त्रशुद्ध है। हमें अधिक से अधिक गच्छ की शास्त्रशुद्ध क्रियाओं का प्रचार-प्रसार करना है।
वर्तमान समय में खरतरगच्छ पुनः अपनी पूर्व की तरह जाहोजलाली की और बढ़ता - सा प्रतीत हो रहा है। नई-नई दादाबाडियोँ का निर्माण हो रहा है। पुरानी दादाबाडियोँ का जीर्णोद्धार हो रहा है। दादा गुरुदेव के व्यक्तित्व के प्रति लोगों का रुचिभाव बढ़ रहा है।
~साहित्य वाचस्पति महोपाध्याय विनयसागरजी की पुस्तक "दादा गुरुदेव" से।