Update
Source: © Facebook
#मुनिपुंगव #सुधासागरजी 🔔धन्य है अाचार्य श्री एवं आपके शिष्य 🔔
पुज्य गुरूवर मुनि पुंगव श्री सुधा सागर जी महामुनिराज की मंगल प्रेरणा,आशीर्वाद से श्री आदिनाथ पुण्योदय त्रिकाल चौबीसी तीर्थ कोटा में पिछले वर्ष 22 मार्च 2015 को प्रातः अभिषेक पूजन के पश्च्यात प्रतिदिन श्री भक्ताम्बर महामण्डल विधान किया जाता है जिसमें पुण्यार्जक परिवार द्वारा रजत के रिद्धि सिद्धि कलश ⚱में रजत सिक्का 💿एवं स्वस्तिक मन्त्रों के साथ स्थापित किए जाते है एवं सांय साढ़े 7 बजे 5 अलग अलग विशाल थालों में पृथक पृथक 48 दीप सहित श्री भक्ताम्बर स्तोत्र के प्रत्येक स्तोत्र का स्तंवन करते हुए एक एक दीप प्रज्वलित🔥 करते है। इस तरह कुल 240 दीपक प्रज्वल्लित किये जाते है।
48 श्लोक पूर्ण होने के पश्च्यात भगवान आदिनाथ स्वामी की आरती तत्पश्च्यात गुरूवर की मंगल आरती नितप्रतिदिन की जाती है।
जिसमें सैकड़ो श्रद्धालु उपस्थित रहतें है।
आज सबसे महत्वपूर्ण बात ये है गुरूवर की कृपा से पिछले एक वर्ष में कोटा के अलावा बिजौलिया,भीलवाड़ा,गुलगाँव,चेंची, आदि विभिन्न स्थानों पर शान्तिधारा, अभिषेक, विधान, स्तोत्र स्तवन एवं महाआरती अंविरत चल रही है।
सचमुच राजस्थान की धरा को भोग भूमि से कर्म भूमि में बदलाव पूर्व में दादा गुरु आचार्य श्री ज्ञान सागर जी महाराज, आचार्य भगवन श्री विद्या सागर जी महाऋषिराज एवं उन्ही की परम् शिष्य पुज्य मुनि पुंगव श्री सुधा सागर जी महाराज ने अपनी कठोर साधना के बल पर किया है।
आज सबसे बड़ा हर्ष है कि राजस्थान का बुंदेलखण्ड कहलाने वाले क्षेत्र खान्दुकॉलोनी बांसवाड़ा में भी कोटा के पुण्योदय तीर्थ क्षेत्र में पिछले वर्ष अनन्तकालीन प्रारंभ श्री भक्ताम्बर स्तोत्र सांयकालीन 🌙सामुहिक पाठ एवं महाआरती की प्रथम वर्षगांठ पर प्रारंभ किया!!
Source: © Facebook
विहार अपडेट: आज शाम 4 बजे सिंग्रामपुर से विहार उपरान्त गुरुवर जबेरा से 4 km पहले रात्रि विश्राम हेतु दानीताल ग्राम में रुके, जंगल में वन विभाग के आवास में, कल की आहार चर्या जबेरा ग्राम में होगी!
Source: © Facebook
❖ आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के दुर्लभ प्रवचन हिंदी संस्करण!! -निर्मल दृष्टि ❖
दर्शन विशुद्धि मात्र सम्यग्दर्शन नहीं है। दृष्टि में निर्मलता होना दर्शन विशुद्धि है और दृष्टि में निर्मलता आती है तत्त्व चिंतन से।
कार्य से कारण की महत्ता अधिक है क्योंकि यदि कारण न हो तो कार्य निष्पन्न नहीं होगा। फूल ना हो तो फल की प्राप्ति नहीं होगी।
कुछ लोग ऐसे भगवान की कल्पना करते हैं जो उनकी शुभाशुभ इच्छाओं की पूर्ति करे। ‘खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान’ ऐसा लोग कहते हैं। इसलिए भगवान महावीर को बहुत से लोग भगवान मानने को तैयार नहीं। परंतु सत्य ये है कि भगवान बनने के पहले तो शुभाशुभ कार्य किये जा सकते हैं, भगवान बनने के बाद नहीं।
भगवान महावीर जब पूर्ण जीवन में नन्दराज चक्रवर्ती थे, तब उनको एक विकल्प हुआ कि “मैं सम्पूर्ण प्राणियों का कल्याण करूँ” इसी विकल्प के फलस्वरूप उन्हें तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध हुआ। कल्याण करने के लिये बन्धन स्वीकार करना पडा। ये बन्धन चेष्टा पूर्वक किया जाता है तो इस बन्धन के पश्चात मुक्ति होती है। यदि मां केवल अपनी ही ओर देखे तो बच्चों का पालन संभव नहीं होगा।
‘पर’ के कल्याण में भी ‘स्व’ कल्याण निहित है। ये बात दूसरी है कि फिर दूसरे का कल्याण हो अथवा ना भी हो। किसान की भावना यही रहती है कि “वृष्टि समय पर हुआ करे” और वृष्टि तो जब भी होगी सभी के खेतों पर होगी किंतु किसान फसल काटता है तो अपनी ही काटता है, किसी दूसरे की नहीं। अर्थात कल्याण सबका चाहता है किंतु पूर्ति अपने स्वार्थ की करता है।
दर्शन-विशुद्धि मात्र सम्यग्दर्शन नहीं है। दृष्टि में निर्मलता का होना दर्शन-विशुद्धि है और दृष्टि में निर्मलता आती है तत्त्व चिंतन से।
हमारी दृष्टि बडी दोषपूर्ण है। हम देखते तो अनेक वस्तुएँ हैं किंतु उन्हे हम साफ साफ नहीं देख पाते। हमारी आँखों पर किसी ना किसी रंग का चश्मा चढा लगा हुआ है। प्रकाश का रंग कैसा है, आप बताएँ। क्या यह लाल है? क्या यह हरा या पीला है? नहीं, प्रकाश का कोई वर्ण नहीं। वह तो वर्णनातीत है, किंतु विभिन्न रंग वाले कांच के सम्पर्क से हम उस प्रकाश को लाल, पीला या हरा कहते हैं। इसी प्रकार हमारा या हमारी आत्मा का वास्तविक स्वरूप क्या है? ‘अवर्णोहं’ मेरा कोई वर्ण नहीं, ‘अर्सोहमं’ मुझमें कोई रस नहीं है, स्पर्शोहमं’ मुझे छुआ नहीं जा सकता। यह मेरा स्वरूप है। किंतु इस स्वयं को आप पहचान नहीं पाते। यही है हमारी दृष्टि का दोष।
हम पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट की धारणा बनाते हैं। कुछ पदार्थों को हम इष्ट मानते हैं और हितकारी समझते हैं। कुछ पदार्थों को अनिष्ट मानते हैं और अहितकारी समझते हैं। वास्तव में, कोई पदार्थ न इष्ट है और ना अनिष्ट। इष्ट-अनिष्ट की कल्पना हमारी दृष्टि का दोष है।
इसी प्रकार जैनाचार्यों ने बताया कि आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न। ऊपर का आवरण ये शरीर केवल एक छिलके के समान है, यह उन्होंने अनुभव के द्वारा बताया है किंतु हम अनुभव की बात भी नहीं मानते। हमारी स्थिति बच्चे जैसी है। दीपक जलता है तो बच्चे को समझाया जाता है कि इसे छूना मत। उसे दीपक से बचाने की चेष्टा भी की जाती है किंतु फिर भी वह बच्चा उस दीपक पर हाथ रख ही देता है और एक बार जल जाता है तो फिर वह उस दीपक के पास अपना हाथ नहीं ले जाता। हमारी दृष्टि का परिमार्जन तभी समझा जायेगा, जब हम प्रत्येक वस्तु को उसके असली रूप में देखें/समझें।
यह दर्शन-विशुद्धि भावना लाखों करोडों मनुष्यों में से किसी एक को होती है और अत्यंत मन्द कषाय की अवस्था में होती है। शास्त्रीय भाषा में दर्शन-विशुद्धि चौथे गुणस्थान स आठवें गुणस्थान के प्रथम भाग तक हो सकती है अर्थात सम्यग्दृष्टि सद्गृहस्थ की अवस्था से लेकर उत्कृष्ट मुनि की अवस्था तक यह विशुद्धि होती है। एक बार प्रारम्भ हो जाने पर फिर श्रेणी में भी तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध हो सकता है। दूसरे के कल्याण की भावना का विकल्प जब होगा, तभी तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध होगा। तीर्थंकर प्रकृति एक ऐसा निकाचित बन्ध है जो नियम से मोक्ष ले जायेगा।
कल शास्त्री जी मेरे पास आये थे। साथ में गोम्मटसार की कुछ प्रतियां लाये थे। उसमें एक बात बडे मार्के की देखने को मिली। तीर्थंकर प्रकृति का उदय चौदहवें गुणस्थान में भी रहता है। जब जीव मोक्ष की ओर प्रयाण करता है अब यह तीर्थंकर प्रकृति अपनी विजय-पताका फहराते हुए आगे-आगे चलती है। इसप्रकार यह स्पष्ट है कि कषायों से ही कर्मबन्ध होता है और कषायों से ही कर्मों का निर्मूलन होता है। जैसे पानी से ही कीचड बनता है और पानी में ही घुलकर यह गंगाजल का भाग बन जाता है जिसे लोग सिर पर चढाते हैं और आचमन करते हैं। ‘कांटा ही कांटे को निकालता है’ यह सभी जानते हैं।
दर्शन-विशुद्धि भावना और सम्यग्दर्शन में एक मौलिक अंतर है। दर्शन-विशुद्धि में केवल तत्त्वचिंतन ही होता है, पंचेन्द्रिय के विषयों का चिंतन नहीं चलता, किंतु सम्यग्दर्शन में विषय का चिंतन भी सम्भव है।
दर्शन-विशुद्धि भावना चार स्थितियों में भायी जा सकती है। प्रथम, मरण के समय; द्वितीय भगवान के सम्मुख; तृतीय अप्रमत्त अवस्था में और चौथे कषाय के मन्दोदय में।
तीर्थंकर प्रकृति पुण्य का फल है किंतु इस्के लिये पुण्य कार्य पहले होना चाहिये। प्रवृत्ति ही निवृत्ति की साधिका है। राग से ही वीतरागता की ओर प्रयाण होता है। एक सज्जन ने मुझसे कहा- महाराज, आप एक लंगोटी लगा लें तो अच्छा हो क्योकि आपके रूप को देख कर राग की उत्पत्ति होती है। मैंने कहा भैया, तुम जो चमकीले-भडकीले कपडे पहनते हो, उससे राग बढता है अथवा यथाजात अवस्था से। नग्न दिगम्बर तो परमवीतरागता का साधक है। विशुद्धि में कैसा आवरण? विशुद्धि में तो किसी भी प्रकार का बाहरी आवरण बाधक है। साधक तो वह किसी अवस्था में हो ही नहीं सकता। अंतरंग का दर्शन तो यथाजात रूप द्वारा ही हो सकता है, फिर भी यदि इस रूप को देख कर किसी को राग का प्रादुर्भाव हो, तो मैं क्या कर सकता हूँ? देखने वाला भले ही मेरे रूप को ना देखना चाहे तो अपनी आँखों पर पट्टी बाँध लें। पानी किसी को कीचड थोडे ही बनाता है। जिसकी इच्छा कीचड बनने की हो उसकी सहायता अवश्य कर देता है। पानी एक ही है। जब वह मिट्टी में गिरता है तो उसे कीचड बना देता है। जब बालू में गिरता है तो उसे सुन्दर कणदार रेत में परिवर्तित कर देता है। वही पानी जब पत्थर पर गिरता है तो उसके रंग रूप को निखार देता है। पानी एक जैसा ही है, किंतु जो जैसा बनना चाहता है उसकी वैसी ही सहायता कर देता है। इसी प्रकार नग्न रूप वीतरागता को पुष्ट करता है किंतु कोई भी उसे राग का पाठ ग्रहण करना चाहे, तो ग्रहण करे, इसमें उस नग्न रूप का क्या दोष? ये तो दृष्टि का खेल है।
♫ www.jinvaani.org @ Jainism' e-Storehouse, thankYou:)
Source: © Facebook
#UPDATE मंगल विहार.. गुरूवर आचार्यश्री जी का विहार अभी-२ जबेरा की ओर हो गया है
News in Hindi
Source: © Facebook
पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महामुनिराज ससंघ की हुई भव्य अगवानी सिंग्रामपुर में ।
● आज की आहार चर्या सिंग्रामपुर में हुई।
● आगे की बात कोई न जाने, केवल गुरुवर जानें ।
● बहोरीबंद और कुण्डलपुर में भारी उत्साह, उम्मीदें बाँधी ।
... हो गया विहार: कटंगी से दमोह की और, आज की आहरचार्य सिंग्रामपुर में, संभावित दिशा यंहा से एक राश्ता बहोरीबंद के लिए भी जाता है, दूसरा राश्ता बड़े बाबा कुण्डलपुर, बहोरीबंद की सम्भावना कम है क्यूंकि वंहा जाने का एक बेहतर रास्ता निकल चूका है
Source: © Facebook