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03-04-2018 Sivini, Vijayanagaram, Andhrapradesh
अहिंसा यात्रा प्रेस विज्ञप्ति
दक्षिणांचल में गुंजायमान होने लगा सद्भावना, नैतिकता और नशामुक्ति का संदेश
- लगभग तेरह किलोमीटर का विहार कर आचार्यश्री पहुंचे सिवीनी स्थित सनरे हाइस्कूल
03.04.2018 सिवीनी, विजयनगरम् (आंध्रप्रदेश)ः
लगभग तीन वर्षों से अधिक समय से भारत के पूर्व, उत्तर और पूर्वोत्तर हिस्से को अपने चरणरज से पावन करते तथा जन मानस को अपने मंगल प्रवचनों से आध्यात्मिक लाभ प्रदान करने वाले जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी धवल सेना के साथ अब दक्षिण की धरा को पावन करने को निकल पड़े हैं। अब से लगभग तीन वर्षों तक दक्षिण भारत के विभिन्न प्रदेशों सहित कई महानगरों, उपनगरों, शहरों और ग्रामीण इलाकों आचार्यश्री के चरणरज से पावन होने का सुअवसर प्राप्त होगा तो वहीं स्थानीय जनता को भी आध्यात्मिकता का लाभ प्राप्त हो सकेगा।
प्रदेश बदलते ही आबोहवा में भी परिवर्तन हो गया है। अब खेत सूखे नहीं, बल्कि खेतों में हरियाली नजर आ रही है। कहीं खेतों में मक्के की फसल लहरा रही है तो कहीं खेतों में दूर-दूर तक केले की फसल नजर आ रही है। कहीं काजू के बागान नजर आने लगें तो कहीं-कहीं सब्जी आदि अन्य फसलों के खेती से धरती का आंचल हरियाली से भरा हुआ है।
सोमवार को आचार्यश्री अपनी धवल सेना के साथ कोमारदा से प्रातः की मंगल बेला में प्रस्थान किया। मार्ग के दोनों ओर हरे-भरे खेतों और वृक्षों के कारण प्राकृतिक सुषमा बिखर रही थी, मानों आंध्रप्रदेश की धरती महातपस्वी का अभिनन्दन कर रही थी। आचार्यश्री ऐसे मार्ग पर लगभग तेरह किलोमीटर का विहार कर सिवीनी स्थित सनरे हाइस्कूल में पधारे। विद्यालय के विद्यार्थियों व शिक्षकों ने आचार्यश्री का मंगल अभिनन्दन किया।
विद्यालय परिसर में बने प्रवचन पंडाल में उपस्थित श्रद्धालुओं को आचार्यश्री ने पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि आदमी के जीवन में ज्ञान का बहुत महत्त्व होता है। विद्यालयों में विद्यार्थी ज्ञानाराधना करने वाले होते हैं। ज्ञान की आराधना में आने वाले दोषों से बचने का प्रयास करना चाहिए और अपनी ज्ञानाराधना को परिपुष्ट बनाने का प्रयास करना चाहिए। अच्छे-अच्छे ज्ञान का अर्जन करने के लिए सतत प्रयत्नशील रहने का प्रयास करना चाहिए। श्लोक आदि का उच्चारण शुद्ध रखने का प्रयास करना चाहिए। किसी पाठ को याद कर लेना अच्छी बात होती है, किन्तु कोरा पाठ का ज्ञान होना भी अच्छा नहीं होता। पाठ के साथ-साथ उसका भावार्थ भी समझ में आता रहे और उसका भी स्मरण होता रहे, तो ज्ञानाराधना की पूर्ण निष्पत्ति हो सकती है। शास्त्रों को पढ़ने के बाद उसके अनुवाद के द्वारा उसे अच्छे ढंग से समझने का भी प्रयास तो ज्ञानाराधना सार्थक हो सकती है। भाषा के द्वारा भावों की अभिव्यक्ति होती है। भावनाओं को अभिव्यक्त करने का माध्यम है भाषा।
आदमी पहले ज्ञानार्जन करे और उस पर उसकी श्रद्धा हो जाए तो दर्शनाराधना हो जाता है। अहिंसा आदि के विषय में जानकारी हो जाए और उसके प्रति आकर्षण, श्रद्धा व विश्वास हो जाए तो दर्शनाराधना हो सकता है और श्रद्धा के उपरान्त अहिंसा आदि आदमी के जीवन में उतर जाए और उसके लिए आदमी तत्पर हो जाए तो चारित्राराधना हो जाता है। हिंसा का त्याग कर लेना चरित्र की आराधना हो सकती है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र की युति होती है तो मोक्ष का मार्ग बन जाता है। उसका पालन और उस मार्ग का अनुगमन से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। आदमी अपने जीवन में ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना और चारित्राराधना में सफल बने, यह काम्य है।