07.04.2018 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 07.04.2018

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👉 वापी - श्री अनिल सिंघवी की भारत सरकार द्वारा गुजरात राज्य में न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति

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👉 अहमदाबाद - CPS GRADUATION CEREMONY

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👉 *"अहिंसा यात्रा"* के बढ़ते कदम

👉 पूज्यप्रवर अपनी धवल सेना के साथ विहार करके "रामभद्रपुरम्" पधारेंगे

👉 आज का प्रवास - श्री वेंकटेश्वर जूनियर कॉलेज, रामभद्रपुरम् जिला - विजयनगरम (आंध्रप्रदेश)

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रंखला -- 298* 📝

*अमेय मेधा के धनी आचार्य हरिभद्र*

*साहित्य*

*नन्दी वृत्ति* इसकी रचना नन्दी चूर्णि की शैली पर हुई है। नन्दी टीका 2336 श्लोक परिमाण है और इसमें केवल-ज्ञान, केवल-दर्शन की परिचर्चा नन्दी चूर्णि में वर्णित सभी विषयों का स्पष्टीकरण तथा अयोग्यदान और फल प्रक्रिया की विवेचना है।

*अनुयोगद्वार वृत्ति* इसकी रचना अनुयोग चूर्णि की शैली पर है। अनुयोग वृत्ति का नाम 'शिष्यहिता टीका' है। इसकी रचना नंदी विवरण के बाद हुई है। मंगल आदि शब्दों का विवेचन नन्दी वृत्ति में हो जाने के कारण इसमें नहीं किया गया ऐसा टीकाकार का उल्लेख है। प्रमाण आदि को समझाने के लिए अंगुलों का स्वरूप, प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम की व्याख्या, ज्ञाननय और क्रियानय का वर्णन इस वृत्ति के मुख्य प्रतिपाद्य हैं।

आवश्यक सूत्र वृहद् वृत्ति भी आचार्य हरिभद्र की रचना मानी गई है। इसका श्लोक परिमाण चौरासी हजार (84000) था। वर्तमान में यह टीका उपलब्ध नहीं है। आगम साहित्य के अतिरिक्त अन्य ग्रंथों पर भी आचार्य हरिभद्र ने कई टीकाएं रचीं।

तत्त्वार्थ सूत्र लघुवृत्ति (अपूर्ण टीका), पिण्डनिर्युक्ति-वृत्ति, क्षेत्रसमास टीका, सर्वज्ञसिद्धि टीका, न्यायावतार वृत्ति, आदि टीकाएं आचार्य हरिभद्रसूरि की अनन्य क्षमता का बोध कराती हैं। योगदृष्टिसमुच्चय वृत्ति स्वनिर्मित योगदृष्टिसमुच्चय की व्याख्या है। शास्त्रवार्ता समुच्चय टीका भारतीय दर्शनों का दर्पण है।

जैनेतर साहित्य पर भी टीका रचना का कार्य आचार्य हरिभद्र ने किया। न्याय-प्रवेश ग्रंथ बौद्ध विद्वान् दिङ्नाग की रचना है। उस पर भी हरिभद्र ने टीका लिखी और जैनों के लिए बौद्ध दर्शन में प्रवेश पाने का मार्ग सुगम किया। इस टीका से जैनेतर विषयों में भी हरिभद्रसूरि के अगाध ज्ञान का बोध होता है।

टीका साहित्य की तरह जैन योग साहित्य के आदि-प्रणेता भी हरिभद्रसूरि थे। उन्होंने योग संबंधी नई परिभाषाएं एवं वैज्ञानिक पद्धतियां प्रस्तुत कीं। योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिंदु, योगविंशिका, योगशतकम् ये ग्रंथ योग संबंधी अपूर्व सामग्री प्रस्तुत करते हैं। अष्टांग योग के स्थान पर स्थान ऊर्ण आदि पंचांग योग तथा मित्रा, तारा, बला, दीप्रा आदि आठ यौगिक दृष्टियों का प्रतिपादन उनकी मौलिक सूझ का परिणाम है।

चार अनुयोगों पर उन्होंने रचना की है। द्रव्यानुनयोग में धर्म संग्रहणी, गणितानुयोग में क्षेत्रसमासवृत्ति, चरणानुयोग में धर्मबिंदु, उपदेश पद और धर्म कथानुयोग में धूर्ताख्यान उनकी सरस कृतियां हैं।

*आचार्य हरिभद्र द्वारा रचित साहित्य सम्पदा के विभिन्न पहलुओं* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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त्याग, बलिदान, सेवा और समर्पण भाव के उत्तम उदाहरण तेरापंथ धर्मसंघ के श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

📙 *'नींव के पत्थर'* 📙

📝 *श्रंखला -- 122* 📝

*माईदासजी गाधिया*

*प्रार्थना और उपालंभ*

गुढ़ा में प्रतिवर्ष चातुर्मास हुआ करता था, किंतु संवत् 1955 में उन्हें कोई चातुर्मास नहीं मिला। श्रावकों को तब अपने शैथिल्य पर बड़ी ग्लानि हुई। सभी ने जान लिया की डालगणी ने हमारी त्रुटि का हमें यह दंड दिया है। अगले वर्ष उन लोगों ने सावधानी बरती। माईदासजी के छोटे भाई पूनमचंदजी आदि कुछ व्यक्ति आचार्यश्री के दर्शन करने के लिए थली में गए। उस वर्ष का मर्यादा महोत्सव बीदासर में था। वहीं उन लोगों ने दर्शन किए। सभी के मन में धुकर-पुकर मची हुई थी कि न जाने आचार्यश्री क्या कहेंगे? परंतु उस समय डालगणी ने कुछ नहीं कहा। वे लोग इससे कुछ आश्वस्त हुए, कुछ साहस भी बढ़ा। व्याख्यान के समय उन्होंने आगामी चातुर्मास के लिए गुढ़ा में सिंघाड़ा भेजने की प्रार्थना की।

आचार्यश्री पहले कुछ देर तक तो उन्हें यह कहकर टालते रहे कि क्षेत्र अधिक हैं और सिंघाड़े कम, अतः सभी जगह चातुर्मास करवाना संभव नहीं है। परंतु जब वे अधिक आग्रह करने लगे तब आचार्यश्री ने उन लोगों को उपालंभ देते हुए कहा— "भूख होने पर ही भोजन परोसना उपयुक्त होता है। भूख के अभाव में भोजन कर लेने से अजीर्ण हो जाता है। तुम्हें भूख नहीं है अतः हमें परोसना नहीं है। तुम्हारे पास काम बहुत है तो हमारे पास क्षेत्र बहुत हैं। मेरे पास इतने साधु-साध्वियां नहीं हैं कि मैं उन्हें चार महीनों तक यों ही बैठा रहने के लिए तुम्हारे वहां भेज दूं।"

व्याख्यान का समय, भरी हुई परिषद्, अनेकानेक क्षेत्रों से आए हुए भाई-बहनों की उपस्थिति और फिर ऐसे समय में डालगणी द्वारा दिया गया उपालंभ। वस्तुतः वह बहुत भारी पड़ा करता था। डालगणी या तो उपालंभ देते नहीं थे, परंतु देते तब ऐसा कि जीवनपर्यंत याद रहे। पूनमचंदजी एक गंभीर और नम्र प्रकृति के श्रावक थे। जो गलती वे कर चुके थे, उसका उन्हें स्वयं खेद था। उन्होंने डालगणी के चरणों में सिर रखते हुए अपनी भूतकालीन गलती के लिए क्षमायाचना की। आगे के लिए ऐसा कभी नहीं हो पाएगा– यह संकल्प भी व्यक्त किया। परंतु आचार्यश्री ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार नहीं किया। बड़ी आशा लेकर आए थे, परंतु उन लोगों को निराश होकर ही लौटना पड़ा।

*फिर प्रारंभ*

उसके पश्चात् पूनमचंदजी प्रतिवर्ष दर्शन करते रहे और चातुर्मास की प्रार्थना करते रहे, परंतु अनेक वर्षों तक वह उन्हें नहीं मिल पाया। अंततः पूरी परीक्षा लेने के पश्चात् डालगणी पसीजे। उन्होंने संवत् 1963 के चातुर्मास के लिए मुनि नथराजजी आदि दो मुनियों को वहां भेजा। संयोग की बात ही थी कि पूनमचंदजी उस चातुर्मास को लेकर भी देख नहीं पाए। चातुर्मास प्रारंभ होने से पूर्व ही वे दिवंगत हो गए। मृत्यु के समय उन्हें इस बात का संतोष अवश्य रहा होगा कि गुढ़ा में साधु-साध्वियों के चातुर्मासिक प्रवास का क्रम अब फिर से प्रारंभ हो जाएगा। यह एक संयोग की बात ही मानी जाएगी कि बड़े भाई माईदासजी की मृत्यु के पश्चात् जो क्रम बंद हो गया था, वह छोटे भाई पूनमचंदजी की मृत्यु के पश्चात् पुनः प्रारंभ हो गया। लोग सावधान हो चुके थे, अतः उन्होंने पिछली भूल को उस वर्ष नहीं दुहराया।

*राजलदेसर में श्रावकों के मुखिया श्रावक लच्छीरामजी बैद के प्रेरणादायी जीवन-वृत्त* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

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