09.05.2018 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 09.05.2018
Updated: 14.05.2018

News in Hindi

👉 चेन्नई: *अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य श्री महाश्रमण* जी के *आगामी माधावरम* स्थित *चतुर्मास स्थल* का *निरीक्षण करते* हुए *अणुव्रत महासमिति अध्यक्ष श्री संचेती*..
प्रस्तुति: 🌻 *संघ संवाद* 🌻

Source: © Facebook

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रंखला -- 320* 📝

*वाङ्गमय-वारिधि आचार्य विद्यानन्द*

*साहित्य*

जैन श्रुतधारा को प्रभावित करने में आचार्य विद्यानन्द की प्रखर प्रतिभा एवं सूक्ष्म प्रज्ञा का अनुपम योग था। उन्होंने नौ ग्रंथों की रचना की है। उनमें तीन टीका ग्रंथ और छह स्वतंत्र रचनाएं हैं।

आचार्य उमास्वाति का तत्त्वार्थसूत्र, आचार्य समंतभद्र की आप्त मीमांसा, आचार्य भट्ट अकलङ्क की अष्टशती टीका। इन ग्रंथों से आचार्य विद्यानन्द विशेष प्रभावित थे। अतः इन ग्रंथों पर उन्होंने तीन टीका ग्रंथों की रचना की। तीनों टीका ग्रंथों का परिचय इस प्रकार है—

*तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* आचार्य उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र पर यह पद्यात्मक विशाल टीका है। इसमें पद्यवर्तिकों का गद्यात्मक विवेचन है। टीका ग्रंथ का परिमाण 18000 श्लोक है तथा दस अध्याय हैं। अध्यायों का विभाजन मूल सूत्र के अनुसार ही है। मूल सूत्रांतर्गत प्रमेयों का विशद विवेचन होने के कारण यह प्रमेय बहुल टीका है। इससे लेखक का प्रगाढ़ पांडित्य प्रकट होता है एवं गंभीर सैद्धांतिक ज्ञान की सूचना मिलती है। बौद्ध विद्वान धर्मकीर्ति आदि के आक्षेपों का सम्यक् निरसन इस टीका में हुआ है। आत्मतत्त्व की सिद्धि में चार्वाक दर्शन के तर्कों का सबल उत्तर दिया गया है। इस ग्रंथ की शैली मीमांसक मेधावी कुमारिल भट्ट की शैली जैसी है। इस ग्रंथ के नामकरण में भी कुमारिल भट्ट के मीमांसा श्लोकवार्तिक ग्रंथ की प्रतिछाया है। आचार्य विद्यानन्द की यह टीका गंभीर दार्शनिक कृति है।

*अष्टसहस्री (देवागमालंकार)* इसकी रचना आचार्य समंतभद्र की आप्तमीमांसा (देवागम स्तोत्र) पर हुई है। आप्तमीमांसा पर भट्ट अकलङ्क द्वारा रचित अष्टशती के प्रत्येक पद्य की व्याख्या इस अष्टसहस्री में होने के कारण यह अष्टसहस्री अष्टशती टीका की टीका है। इस कृति को पढ़ने से तीनों ग्रंथों की (आप्तमीमांसा, अष्टशती, अष्टसहस्री) का एक साथ स्वाध्याय हो जाता है। आचार्य विद्यानन्द ने इस ग्रंथ की रचना कर आचार्य अकलङ्क भट्ट के गूढ़ ग्रंथ को समझने का मार्ग सुगम किया है। अतः कतिपय विद्वानों को आचार्य विद्यानन्द को आचार्य अकलङ्क का शिष्य मानने में भ्रांति भी हो गई थी।

अष्टसहस्री ग्रंथ में दस परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद में लगभग आधा ग्रंथ समाहित है। ग्रंथ का अष्टसहस्री नाम इसमें आठ सहस्र पद्य होने का प्रतीक है। ग्रंथ की रचना शैली जटिल और दुरुह है। स्वयं आचार्य विद्यानन्द ने भी इस दुरुहता और जटिलता का अनुभव किया है। वे लिखते हैं—

*'कष्टसहस्री सिद्धा साष्टसहस्रीयमत्र मे पुष्यात्'।*

यह कष्टकारी अष्टसहस्री अगाध ज्ञान भंडार है।
इस ग्रंथ को पढ़ने के बाद अन्य ग्रंथों को पढ़ने की आवश्यकता ही आचार्य विद्यानन्द की दृष्टी में नहीं रहती। वे लिखते हैं—

*श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः।*
*विज्ञायेत ययैव हि स्वसमय-परसमयसद्भावः।।*
*(अष्टसहस्री, पृष्ठ 156)*

सहस्र शास्त्रों एवं ग्रंथों को सुनने से क्या प्रयोजन है? इस अष्टसहस्री का श्रवण स्वपर सिद्धांत का ज्ञान करवाने में पर्याप्त है।

यह टीका न्यायशास्त्र का उत्तम ग्रंथ है। इसमें आप्त पुरुष के आप्तत्व का युक्ति पुरस्सर विवेचन है। इस पर लघु समंतभद्र की अष्टसहस्री विषमपद तात्पर्य टीका और यशोविजयजी की अष्टसहस्री तात्पर्य विवरण टीका है।

*वाङ्गमय-वारिधि आचार्य विद्यानन्द द्वारा रचित अन्य ग्रंथों* के बारे में पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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त्याग, बलिदान, सेवा और समर्पण भाव के उत्तम उदाहरण तेरापंथ धर्मसंघ के श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

📙 *'नींव के पत्थर'* 📙

📝 *श्रंखला -- 144* 📝

*दुलीचंदजी दुगड़*

*मां की दीक्षा*

दुलीचंदजी जन्मना तेरापंथी थे। उनके जन्म से दो वर्ष पूर्व ही दुगड़ परिवार आचार्य ऋषिराय से सम्यक्त्व दीक्षा ग्रहण कर चुका था। पहले वह परिवार मुनि चंद्रभाणजी का अनुयाई था। दुलीचंदजी को आचार्य ऋषिराय से लेकर आचार्य कालूगणी तक छह आचार्यों की सेवा का अवसर प्राप्त हुआ। दूसरे शब्दों में यों भी कहा जा सकता है कि उन्होंने उधर स्वामी भीखणजी द्वारा दीक्षित संत-सतियों की सेवा की थी तो इधर कालूगणी द्वारा दिक्षित संत-सतियों की भी सेवा की।

धार्मिकता के क्षेत्र में निरंतर प्रगति करते हुए दुलीचंदजी के पैर एक बार लड़खड़ाए भी थे। उसका कारण बनी थी उनकी मां गुलाबदेवी की दीक्षा। वे अनेक वर्षों से दीक्षित होने की भावना संजोए हुए थीं। परंतु पति शिवाजीरामजी ने आज्ञा प्रदान नहीं की। कालांतर में अनेक आग्रहों और दबाव के कारण उनके विचारों में परिवर्तन आया। उन्होंने आज्ञा पत्र लिख दिया और मूल प्रति अपने पास रखकर उसकी प्रतिलिपि उन्हें दी। गुलाबदेवी ने तब अपने पीहर वालों के साथ जाकर मेवाड़ में रायपुर (बोराणा) में जयाचार्य के दर्शन किए। दीक्षा की प्रार्थना करने पर जयाचार्य ने फरमाया— "अवसर आने दो।" अवसर की प्रतीक्षा करती हुई वे सेवा में साथ-साथ चलती रहीं।

कालांतर में जयाचार्य का पदार्पण केलवा में हुआ। एक दिन केलवा के राव साहब सेवा में बैठे थे। जनता भी उपस्थित थी। प्रसंगवश राव साहब ने कहा— "केलवा को तेरापंथ की एक जन्मभूमि होने का गौरव प्राप्त है। पूर्वजों से सुना है कि आचार्यश्री भिक्षु ने यहीं पर जैन तेरापंथ दीक्षा स्वीकार की थी। हमने न तो आचार्य भिक्षु को देखा और न कभी जैन दीक्षा विधि ही देखी। आप नए आचार्य बने हैं। मेवाड़ में प्रथम बार पधारे हैं, तो केलवा को एक दीक्षा महोत्सव प्रदान करिए। हम अनभिज्ञ जनों को भी दीक्षा विधि देखने तथा जानने का सहज ही सुअवसर प्राप्त हो जाएगा।" ठाकुर साहब के उक्त निवेदन के साथ स्थानीय श्रावक समाज का स्वर भी समवेत था।

जयाचार्य एक क्षण के लिए मुस्कुराए और बोले— "निवेदन तो ठीक है, परंतु दीक्षा लेने के लिए कौन तैयार है?"

प्रश्न जटिल था। एक बार के लिए सारी सभा में सन्नाटा छा गया। सब एक-दूसरे के मुख की ओर ताक कर रह गए। परंतु उत्तर देने वाला कोई दृष्टिगत नहीं हो पाया। गुलाबदेवी ने अवसर की महत्ता को पहचाना और एक क्षण का भी विलंब किए बिना सहसा परिषद् में खड़ी होकर निवेदन करने लगी— "गुरुदेव! कृपा करिए। मेरी दीक्षा ग्रहण करने की तीव्र इच्छा है। केलवा वासियों की प्रार्थना स्वीकार होगी तो मेरा कल्याण हो जाएगा।" अब तो ठाकुर साहब तथा श्रावक समाज की प्रार्थना को बहुत बड़ा संबल मिल गया। उनकी प्रार्थना आग्रह में बदल गई। जयाचार्य ने तब उसे स्वीकार कर लिया।

गुलाबदेवी का पीहर सवाई (सरदारशहर के पास एक गांव) के चंडालिया परिवार में था। माता-पिता उनके साथ ही सेवा में आए हुए थे। उनकी मौखिक आज्ञा तथा पति शिवाजीरामजी की लिखित आज्ञा की प्रतिलिपि के आधार पर जयाचार्य ने संवत् 1909 ज्येष्ठ कृष्णा 8 को केलवा के गढ़ में उन्हें दीक्षा प्रदान कर दी। पुत्री को दीक्षा देकर माता-पिता जब वापस सवाई गए तब मार्ग में लाडनूं आया। गुलाबदेवी का रथ तथा वस्त्राभूषण उन्होंने ससुराल वालों को संभलाए एवं वहां के सारे समाचारों से उन्हें अवगत किया।

*गुलाबदेवी की दीक्षा पर उनके पुत्र दुलीचंदजी दुगड़ की क्या प्रतिक्रिया हुई...* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

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*आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत प्रवचन का विडियो:

*तनाव और ध्यान: वीडियो श्रंखला ५*

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👉 प्रेक्षा ध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ

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👉 *अणुव्रत महासमिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अशोक संचेती की चेन्नई - “संगठन यात्रा”*
✨चेन्नई, *अणुव्रत समिति द्वारा "अणुव्रत मैराथन" - एप्प का लोकार्पण*
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