17.06.2018 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 18.06.2018
Updated: 18.06.2018

News in Hindi

👉 भीलवाड़ा: अणुव्रत प्राध्यापक 'शासन श्री' मुनि श्री सुखलाल जी के सान्निध्य में अणुव्रत समिति की प्रथम बैठक का आयोजन
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👉 प्रेक्षा ध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ

प्रकाशक - प्रेक्षा फाउंडेसन

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*आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत प्रवचन का विडियो:

*अच्छे बुरे का नियंत्रण कक्ष: वीडियो श्रंखला ५*

👉 *खुद सुने व अन्यों को सुनायें*

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संप्रेषक: 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रंखला -- 353* 📝

*अनेकान्त विवेचक आचार्य अभयदेव*

*साहित्य*

आचार्य अभयदेव न्याय एवं दर्शन के गंभीर विद्वान् थे। उन्होंने आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के 'सन्मति तर्क' ग्रंथ पर 'तत्त्व-बोधिनी' नामक सुविशाल टीका रची। इसका दूसरा नाम वादमहार्णव टीका भी है। वादमहार्णव टीका की शैली प्रौढ़ एवं गंभीर है। यह टीका जैन न्याय और दर्शन का प्रतिनिधि ग्रंथ है। इस ग्रंथ में आत्मा-परमात्मा, मोक्ष आदि विविध विषयों को युक्तियुक्त प्रस्तुत किया गया है। अपने से पूर्ववर्ती अनेक दार्शनिक ग्रंथों का संदोहन कर आचार्य अभयदेव ने इस ग्रंथ का सृजन किया। इसे पढ़ने से दर्शनान्तरीय विविध ज्ञान बिंदुओं का सहज पठन हो जाता है। आचार्य विद्यानंद के ग्रंथों का इस टीका पर प्रभाव है।

दर्शन और न्याय के क्षेत्र में प्रभाचंद्राचार्य द्वारा 'न्यायकुमुदचंद्र' और प्रमेयकमलमार्तण्ड' टीका का जो महत्त्व है, वही महत्त्व अभयचंद्रसूरि द्वारा रचित इस वादमहार्णव टीका का है। ये तीनों न्याय विषयक विशाल टीकाएं हैं।

'न्यायकुमुदचंद्र टीका और 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' टीका की रचना क्रमशः आचार्य अकलङ्क के 'लघीयस्त्रय' ग्रंथ पर और माणिक्यनन्दी के 'परीक्षामुख' ग्रंथ पर हुई है।

अभयदेवसूरि की यह टीका आचार्य सिद्धसेन के 'सन्मति तर्क' ग्रंथ की विशद व्याख्या है।

न्यायकुमुदचंद्र टीका 16000 पद्य परिमाण, प्रमेयकमलमार्तण्ड टीका 12000 पद्य परिमाण है। अभयदेवसूरि की वादमहार्णव नामक यह टीका 25000 पद्य परिमाण है।

अभयदेवसूरि की टीका में कवलाहार और स्त्री मुक्ति की मान्यता का प्रबल समर्थन किया गया है।

प्रमाण-प्रमेय विषयक अन्य दर्शनान्तरीय जिन मान्यताओं के खंडन में प्रभाचंद्राचार्य की लेखनी चली उन मान्यताओं का खंडन अभयदेवसूरि ने अपनी टीका में किया है।

आचार्य प्रभाचंद्र दिगंबर विद्वान् थे और आचार्य अभयदेवसूरि श्वेतांबर विद्वान् थे। यह इन टीकाओं को पढ़ने से स्पष्ट होता है।

अनेकांत दर्शन की स्थापना में विभिन्न पक्षों का स्पर्श करती हुई यह वादमहार्णव टीका परवर्ती टीकाकारों के लिए सबल आधार बनी है।

*समय-संकेत*

दार्शनिक क्षेत्र के उज्जवल नक्षत्र अभयदेवसूरि वीर निर्वाण की 15-16वीं (विक्रम की 11-12वीं) शताब्दी के विद्वान् माने गए हैं।

वादिवेताल आचार्य शांतिसूरि आचार्य अभयदेवसूरि की शिष्य मंडली में दर्शनशास्त्र के विद्वान् थे। शांतिसूरि का स्वर्गवास वीर निर्वाण 1566 (विक्रम संवत् 1096) में हुआ।

*वादिगज-पंचानन आचार्य वादिराज (द्वितीय) के प्रेरणादायी प्रभावक चरित्र* के बारे में पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡

📜 *श्रंखला -- 7* 📜

*बहादुरमलजी भण्डारी*

*नरेश के कोप-भाजन*

बहादुरमलजी प्रायः नरेश तख्तसिंहजी के कृपा-पात्र ही रहे थे, परंतु एक अवसर ऐसा भी आया जब वे उनके अत्यंत कोप-भाजन बन गए। परिस्थितियों के इस प्रकार मोड़ लेने का कारण बना नरेश द्वारा प्रारंभ किया गया एक नजराना। उन दिनों भंडार में रुपया काफी कम रह गया था, अतः नरेश के अनेक कार्यों में कठिनाइयां आने लगीं। उन्होंने तब अपने मुसद्दियों से 'ढोलिए का नजराना' लेना प्रारंभ किया। किसी ने लाख रूपय भेंट किए तो किसी ने पचास हजार। भंडारीजी की बारी आई तो उन्होंने नरेश से प्रार्थना की— "मैं अनीति का एक पैसा भी अपने घर में नहीं आने देता, इसलिए इस तरह भेंट भी नहीं कर सकता।" नरेश ने रुष्ट होते हुए कहा— "अन्य सभी कर रहे हैं तब तुम्हारे क्या अड़चन है?" भंडारीजी बोले— "ये सब इधर आपको भेंट करेंगे, उधर गरीब प्रजा से दुगुना उगाह लेंगे। मैं ऐसा करना अनुचित समझता हूं। आप 'ढोलिए' (पलंग) के नाम से भेंट लेंगे तो आपके मुसद्दी थाली लोटा तक के नाम से भेंट लेना प्रारंभ कर देंगे, अन्ततः पिसाई तो गरीब प्रजा की ही होगी।"

भंडारीजी की बात से नरेश को लगा कि यह रुपया देना नहीं चाहता, अतः मेरी सारी योजना को ही ध्वस्त कर देना चाहता है। वे रुष्ट हो गए। भंडारीजी के विरोधियों ने अच्छा अवसर समझकर नरेश को उनके विरुद्ध खूब सुलगाया कि ये आप की दी हुई जागीर तो खाते हैं, परंतु समय पर कोई सेवा देना नहीं चाहते। मुसद्दियों के इस कथन ने आग में घी का काम किया। नरेश ने जागीर में दिया हुआ 'हरडाणी' गांव जब्त कर लिया और कोतवाली के आदमियों को आदेश दिया कि प्रातः घर जाकर भंडारी को गिरफ्तार कर लिया जाए।

भंडारीजी प्रतिदिन प्रातः शीघ्र उठकर सामायिक किया करते थे। उस दिन भी की। सामायिक पूर्ण होते ही नौकर ने बतलाया की हवेली के दरवाजे पर पुलिस के आदमी बैठे हैं। भंडारीजी तत्काल समझ गए कि वे उन्हें गिरफ्तार करने आएं हैं। पुलिस की पहचान से बचने के लिए वे चादर ओढ़े, नंगे सिर और नंगे पैर एकांकी ही घर से चल पड़े। पुलिस वालों के सामने से होकर ही वे गए, परंतु कोई समझ ही नहीं पाया कि ये भंडारीजी जा रहे हैं। वे अपने मित्र पोकरण ठाकुर की हवेली पहुंचे और उन्हें सारी स्थिति से अवगत किया। ठाकुर साहब ने उनको सादर एवं साग्रह अपने यहां ठहराया और नरेश से कहलवा दिया— "भंडारीजी मेरे यहां है। अब यदि आप उनके विरुद्ध कोई कदम उठाएंगे तो वह पोकरण ठिकाने के विरुद्ध समझा जाएगा।" उक्त स्थिति में नरेश ने भंडारीजी को पकड़ पाना संभव नहीं समझा, अतः उस ओर से चुप्पी साध ली।

*बहादुरमलजी भण्डारी को नहीं पकड़ पाने की स्थिति में जोधपुर नरेश ने अपना कुंठित रोष किस पर निकाला...?* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

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