07.08.2018 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 07.08.2018
Updated: 08.08.2018

Update

Some people are these days spreading wrong/ misleading Stuff that #AcharyaVidyasagar Ji promotes only #Hindi Language. No.. thats not true.. He wants Bharatiya #Regional_language gets equal rights e.g. Kannada, Telgu, Marathi and so on. On stage Acharya Shri clearly said He has no opposition to #English, And it should be learned to understand dfferent things. bcoz most people don’t understand it so all legal work/ court work/ hearing and documentation in Bharat must be in regional languages too. No issue in learning, speaking, writing other country lang. like English. But don’t consider inferior to those who can’t speak English. bcoz English is not a parameter to measure ones talent. After all language is just a medium to communicate our feelings/emotions/thoughts. 🙂

cn u share it pls these ignorance wiper words..

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आचार्य श्री आज के दर्शन करे.. 😍😊

Update

contemplative pointers..

१.जो साधू अपने साथ नौकर-चाकर रखते हैं तो वो भी परिग्रह में आता है। उस साधू को महाव्रत नहीं हो सकता वो महाव्रती(मुनि) नहीं है।(तत्त्वार्थसूत्र)

२.जिस प्रकार घी, पानी,भोजन आदि के सही गलत के मानक होते है उस ही प्रकार देव-शास्त्र-गुरु के सही-गलत के भी मानक होते है। जो विवेकवान होते है वो परीक्षा करके ही देव-शास्त्र-गुरु को ग्रहण करते हैं।

३.पांचो इन्द्रियों के विषयो के वशीभूत होकर कोई चर्या करता हो तो वो गुरु की श्रेणी में नहीं आता। कोई महाव्रतों की घोषणा करने से पिच्छी-कमंडल लेने भर से ही महाव्रती नहीं हो जाता।

४. AC के प्रयोग से अहिंसा महाव्रत का पालन नहीं हो सकता।

५. साधु ने अपना घर-मठ बना लिया उसमे अच्छे-अच्छे उपकरण रखें। खूब साज-सज्जा है वह भी साधू नहीं है।

६.अंधी भक्ति नहीं होनी चाहिए मानक को समझे बिना।

७.अगर कोई साधू कहे ये मेरा है(कुछ भी वस्तु) तो वो परिग्रही महाव्रती(मुनि) नहीं हो सकता, यहाँ(आत्मा में) मैं ही मेरा हूँ।

८.जिस प्रकार भगवान 18 दोषो से रहित होते हैं। लेकिन अगर क्या 18 में से एक भी दोष कम हो गया तो,आप उसे भगवान मानोगे? नहीं ना। उस ही प्रकार अगर महाव्रतो में एक भी महाव्रत कम हो तो वो मुनि(गुरु) हो सकता हैं? ये आपको(श्रावक) को सोचना हैं।

९. आप अगर किसी को भगवान-मुनि नहीं मान रहे हैं तो वो निंदा नहीं हो सकती, क्योंकि आप अपने विवेक से तय मानकों के अनुसार वस्तु के स्वरूप देव शास्त्र गुरु को मान रहे हो। अगर सामने वाले को मानकों का नहीं पता या ज्ञान नहीं है तो वो उसका विवेक हैं।

रोहिणी, दिल्ली में चातुर्मासरत आचार्यश्री विद्यासागर जी के शिष्य मुनिश्री प्रणम्यसागर जी मुनिराज ससंघ के निर्देशन में रत्नकरण्डक श्रावकाचार ग्रन्थ का स्वाध्याय चल रहा है, मुनिश्री के सानिध्य में रोज 3 ग्रन्थ प्रवचनसार, रत्नकरण्डक श्रावकाचार,श्रायस पथ का स्वाध्याय होता है। आज मुनिश्री ने मुनि धर्म पर व्याख्यान दिया।

कृपया सभी जिनवाणी चैनल पर दिन में 2:20 बजे से मुनिराज प्रणम्यसागर जी महाराज के प्रवचन अवश्य सुने।। मुनिसंघ प्रशांत विहार,रोहिणी में विराजित है।
नजदीकी मेट्रो स्टेशन- पीतमपुरा,रोहिणी।

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अगर आप तीर्थंकर की कही बातें यानी जिनवानी/ जैन ग्रंथ पढ़कर जिन धर्म को मानते ओर समझते है.. ओर यदि कोई साधु दोष/ अनाचार करे तो भी आपका विश्वास जिन धर्म से डगमग नहीं करेगा.. बल्कि आपको ओर ज़्यादा जागरुक बनाएगा.. आप Alert रहेंगे जीवन मे.. आप विवेक से देव ओर गुरु का चयन करेंगे.. ना की अंधभक्ति से ओर गुरु की भक्ति मे अंधभक्त नहीं हो जाएँगे.. धर्म आपको विवेकि बनाता हैं.. अंध भक्त नहीं!! धर्म बहुत बहुत broad है.. धर्म डराता नहीं बल्कि आपकी thinking level को broad करता है.. जिसको हम अनेकांतवाद कह सकते है..

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#Inspirational

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News in Hindi

आज आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने नियम दिया है.. 24 धंटे TV न देखने का

जिनेन्द्र वर्णी जी...जिनके बारे में आचार्य श्री विद्यासागर जी कहा था 'आचार्य श्री शान्तिसागर जी के बाद ही सल्लेखना हुई है, ऐसे लोग विरले ही होते है, मुझे विश्वास है वे 2-3 भव में मोक्ष प्राप्त करेंगे, मेरी भावना है मेरी भी ऐसी ही सल्लेखना हो

’जैनेन्द्र सिद्धांत कोष’ तथा ’समणसुत्तं’ जैसी अमर कृतियों के रचयिता श्रद्धेय श्री जिनेन्द्रजी वर्णी से कौन परिचित नहीं है। अत्यन्त क्षीण-काय में स्थित उनकी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी तथा दृढ़ संकल्पी आत्मा स्व-पर-हितार्थ अध्यात्म मार्ग पर बराबर आगे बढ़ती रही है और बढ़ती रहेगी, जब तक कि वह अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेती।

आपका जन्म ज्येष्ठ कृ. २ सं. १९७८ में पानीपत (पंजाब) में हुआ। आप जैन, वैदिक, बौद्ध तथा अन्य जैनेतर वाङमय के सुप्रसिद्ध विद्वान्‌ पानीपत निवासी स्वर्गीय श्री जयभगवान जी जैन एडवोकेट के ज्येष्ठ सुपुत्र हैं। पैतृक-धन के रूप में यही सम्पत्ति आपको अपने पिता से प्राप्त हुई। अध्यात्म क्षेत्र में आपका प्रवेश बिना किसी बाह्य प्रेरणा के स्वभाविक रूप से हो गया। ’होनहार बिरवान के होत चीकने पात’, बाल्यकाल में ही शान्ति प्राप्ति की एक टीस हृदय में लिये कुछ विरक्त से रहा करते थे, फलतः वैवाहिक बन्धनों से मुक्त रहे। इलैक्ट्रिक तथा रेडियो विज्ञान का प्रशिक्षण प्राप्त कर लेने पर आपने व्यापारिक क्षेत्र में प्रवेश किया और पानीपत में ही इण्डियन ट्रेडर्ज नामक एक छोटी सी फर्म की स्थापना की, जो आपकी प्रतिभा के फलस्वरूप दो तीन वर्षों में ही वृद्धी को प्राप्त होकर कलकत्ता एम.ई. एस. की एक बड़ी ठेकेदारी संस्था के रूप में परिवर्तित हो गई। इतना होने पर भी आपके चित्त में धन तथा व्यापार के प्रति कोई आकर्षण उत्पन्न नहीं हुआ। आप सब कुछ करते थे, परन्तु बिल्कुल निष्काम भाव से केवल अपने छोटे भाईयों के लिये। ’मेरे छोटे भाई जल्दी से जल्दी अपने पाँव पर खड़े हो जायें’ बस एक यह भावना थी और उसे अपना कर्त्तव्य समझ कर आप सब कुछ कर रहे थे। फर्म में हिस्सा देने के लिये भाईयों ने बहुत आग्रह किया, परन्तु इतना मात्र उत्तर देकर आप पानीपत लौट आये कि "प्रभु-कृपा से मेरा कर्त्तव्य पूरा हुआ, इस कर्त्तव्य की पूर्ति द्वारा मेरा पितृ-यज्ञ पूरा हुआ, इससे बड़ी बात मेरे लिये और क्या हो सकती है, इसी में मुझे सन्तोष है"।

इस व्यापार को छोड़्कर अब आप शान्ति की खोज का व्यापार करने लगे। प्रारम्भ में ही इस रहस्य का कुछ-कुछ स्पर्श होने लगा और आठ वर्ष के अल्पकाल में उसे हस्तगत करने में सफल हो गये। सन्‌ १९५० में आपने स्वतन्त्र स्वाध्याय प्रारम्भ किया, सन्‌ १९५४-५५ में उसका मञ्जन करने के लिये सोनगढ़ गए, ज्ञान के साथ-साथ अनुभव तथा वैराग्य की तीव्र बृद्धि होती गई, यहाँ तक कि सन्‌ १९५७ में अणुव्रत धारण करके गृह-त्यागी हो गए। आप घर की बजाय मंदिर में रहने लगे और भोजन-चर्या के विषय में सरलता धारण कर ली, जो बुलाता उसी के यहाँ जाकर खा लेते। धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा तथा अपने भीतर डूबकर प्रत्येक विषय को साक्षात‌ करने का दृढ़-संकल्प इत्यादि कुछ दैवी गुणों के कारण इस मार्ग पर आपकी प्रगति बराबर बढ़ती गई, और भाद्रपद शु. ३ वि. सं. २०१९ सन्‌ १९६१ को आप्ने ईसरी में क्षुल्लक दीक्षा धारण कर ली। शारीरिक स्वास्थ्य अनुकूल न होते हुए भी आपने कभी बाह्याचार की उपेक्षा नहीं की। अन्तरंग-साधना के साथ बाह्य-साधना की इतनी सुन्दर मैत्री बहुत कम स्थानों पर देखने को मिलती है। समय-समय पर किया गया आपका उत्तरोत्तर वृद्धिगत परिग्रह-परिमाण, जिह्वा-इन्द्रिय सम्बन्धी नियन्त्रण तथा पोष माघ की कड़कड़ाती सर्दियों में पतली सी धोती तथा सूती चादर में रहना आपकी आचार-दृढ़ता तथा कष्ट-सहिष्णुता के साक्षी हैं। मौनवृति तथा एकान्त प्रियता आपकी जन्मजात प्रकृतियाँ हैं। विद्यार्थी जीवन में भी आप प्रायः बहुत कम बोलते थे और घर तथा स्कूल के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं जाते थे। यही कारण है कि आपके मित्रों की संख्या दभी एक या दो से अधिक नहीं हो सकी।

शरीर सदा दुर्बल तथा अस्वस्थ रहा, बचपन से ही प्रायः टाइफाइड के आक्रमण होते रहे, पिता से श्वास रोग प्राप्त हुआ, और सन्‌ १९३८ में जब आप केवल १६ वर्ष के थे तब आपको क्षयरोग ने आ दबाया फिर भी न जाने कितनी दृढ़ है आपकी आयु की डोर जो भयंकर से भयंकर झटकों से भी भग्न नहीं हुई, सम्भवतः इसलिये कि यह जर्जर शरीर आपको आत्म-कल्याण के लिये मिला है, किसी लौकिक प्रयोजन से नहीं।

यद्यपि बचपन में धर्म कर्म का कोई विशेष परिज्ञान आपको नहीं था, प्रमादवश मन्दिर भी नहीं जाते थे और न कभी शास्त्रादि पढ़ते या सुनते थे तदपि जन्म से ही आप्का धर्मिक संस्कार इतना सुदृढ़ था कि क्षयरोग से ग्रस्त हो जाने पर जब डाक्टरों ने आपसे मांस तथा अण्डे का प्रयोग करने के लिये आग्रह किया तो आप ने स्पष्ट जवाब दे दिया। कांड लिवर आयल तथा लिवर ऎक्सट्रेक्ट का इञ्जेक्शन भी लेना स्वीकार नहीं दिया, यहाँ तक कि इस भय से कि ’कदाचित दवाई में कुछ फ़्म्लाकर न पिला दे’ अस्पताल की बनी औषधि का भी त्याग कर दिया

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