25.10.2018 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 25.10.2018
Updated: 14.11.2018

Update

👉 विजयनगरम - मासखमण तप पच्चखान का आयोजन
👉 विजयनगर, बेंगलुरु - ज्ञानशाला प्रशिक्षक प्रशिक्षण शिविर का आयोजन
👉 अहमदाबाद - भिक्षु भजन संध्या का आयोजन
👉 तोलियासर - अणुव्रत समिति का गठन
👉 कालीकट - संकल्प स्वीकार वह अहिंसा प्रशिक्षण कार्यशाला
👉 शिलांग - अहिसां प्रशिक्षण कार्यशाला का आयोजन
👉 राजगढ़ - "आतिशबाजी को कहे ना" पर एक कार्यक्रम का आयोजन

प्रस्तुति: 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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🍂🍃🗯🗯🍃🍂

🛡
अणुव्रत महासमिति
का
अभियान

🎆
आतिशबाजी
को
कहें ना

👥
आइये सोचें

🎇
आतिशबाजी
से होने वाले
नुकसान

🤷‍♂🤷‍♀
तो हम दिवाली
पर आतिशबाजी
क्यों करें?

🌐
: प्रस्तुती:
अणुव्रत सोशल मीडिया

🌻
: संप्रसारक:
संघ संवाद

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Video

25 October 2018

❄⛲❄⛲❄⛲❄⛲❄

👉 *परम पूज्य आचार्य प्रवर* के
प्रतिदिन के *मुख्य प्रवचन* को
देखने- सुनने के ‌लिए
नीचे दिए गए लिंक पर
क्लिक करें....⏬

https://youtu.be/HaPn28eN-wo

📍
: दिनांक:
*25 अक्टूबर 2018*

: प्रस्तुति:
❄ *अमृतवाणी* ❄

: संप्रसारक:
🌻 *संघ संवाद* 🌻

❄⛲❄⛲❄⛲❄⛲❄

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आचार्य श्री महाश्रमण
प्रवास स्थल
माधावरम, चेन्नई

🔮
*गुरवरो धम्म-देसणं*

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आचार्य प्रवर के
मुख्य प्रवचन के
कुछ विशेष दृश्य

🏮
कार्यक्रम की
मुख्य झलकियां

📮
दिनांक:
25 अक्टूबर 2018

🎯
प्रस्तुति:
🌻 *संघ संवाद* 🌻

🔰🎌♦♻♻♦🎌🔰

Source: © Facebook

News in Hindi

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रंखला -- 455* 📝

*कुशलशासक आचार्य जिनकुशलसूरि*

जिनकुशलसूरि जैन श्वेतांबर मंदिरमार्गी खरतरगच्छ परंपरा में दादा नाम से प्रसिद्ध हैं। चार दादा गुरुओं में इनका क्रम तृतीय है। जिनदत्तसूरि और मणिधारी जिनचंद्रसूरि बड़े दादा नाम से पहचाने जाते हैं। इनकी पहचान छोटे दादा गुरु नाम से है।

*गुरु-परंपरा*

जिनकुशलसूरि की गुरु परंपरा में जिनप्रबोधसूरि लघुसिंह खरतरगच्छ के संस्थापक जिनसिंहसूरि 'कलिकाल-केवली' विरुद प्राप्त जिनचंद्रसूरि आदि प्रभावक आचार्य हुए। जिनचंद्रसूरि ने चार राजाओं को प्रतिबोध दिया था। अतः इनके समय में खरतरगच्छ 'राजगच्छ' के नाम से भी पहचाना जाने लगा।

दादा गुरुओं में जिनकुशलसूरि का नाम मणिधारी जिनचंद्रसूरि के बाद आया, परंतु जिनकुशलसूरि के दीक्षा गुरु मणिधारी जिनचंद्रसूरि नहीं थे। मणिधारी जिनचंद्रसूरि और जिनकुशलसूरि इन दोनों दादागुरुओं के बीच में शताब्दी से भी अधिक समय का अंतर है। प्रस्तुत जिनकुशलसूरि 'कलिकाल-केवली' के विरुद को प्राप्त जिनचंद्रसूरि के पट्ट-शिष्य थे। जिनचंद्रसूरि जिनप्रबोधसूरि के पट्ट-शिष्य थे।

*जन्म एवं परिवार*

जिनकुशलसूरि वैश्य वंशज थे। छाजेड़ परिवार में वीर निर्वाण 1807 (विक्रम संवत् 1337) में उनका जन्म हुआ। वे समियाणा (सिवाणा) के यशस्वी मंत्री जेसल के पुत्र थे। माता का नाम जयंतश्री था। जिनकुशलसूरि का जन्म नाम करमण था।

*जीवन-वृत्त*

जिनकुशलसूरि ने पूर्ण वैराग्य के साथ 'कलिकाल-केवली' विरुद प्राप्त जिनचंद्रसूरि से वीर निर्वाण 1817 (विक्रम संवत् 1347) में मुनि दीक्षा ग्रहण की। मुनि जीवन में उनका नाम कुशलकीर्ति रखा गया। शास्त्रों का गंभीर अध्ययन कर कुशलकीर्ति मुनि ने बहुश्रुतता प्राप्त की तथा शास्त्रेतर साहित्य का अनुशीलन कर वे प्रगल्भ विद्वान् बने।

श्री राजेंद्राचार्य ने पाटण में कुशलकीर्ति मुनि को वीर निर्वाण 1847 (विक्रम संवत् 1377) ज्येष्ठ कृष्णा एकादशी के दिन 'कलिकाल-केवली' आचार्य जिनचंद्रसूरि के स्थान पर नियुक्त किया। उनका नाम कुशलकीर्ति से जिनकुशलसूरि हुआ। सिन्ध और राजस्थान (मारवाड़) उनके धर्म प्रचार के प्रमुख क्षेत्र थे।

वे चामत्कारिक आचार्य थे एवं भक्तों की मनोकामना पूर्ण करने के लिए कल्पवृक्ष के समान थे। जनता आदर के साथ उनके प्रवचनों को सुनकर एवं उनका आशीर्वाद पाकर पुलक उठती थी। आज भी अनेक स्थानों पर उनकी पादुकाएं भक्ति भाव से पूजी जाती हैं। संकट की घड़ी में लोग बड़ी निष्ठा से उनका स्मरण करते हैं। उनके नाम पर अनेक स्तवन और स्मारक बने हैं।

जनपद्म, विनयप्रभ, विवेकसमुद्र आदि शिष्यों में तरुणप्रभ उनके पट्ट-शिष्य थे।

बावेल, डागा, संघवी, जड़िया आदि कई गोत्रों की स्थापना का श्रेय जिनकुशलसूरि को है।

*साहित्य*

साहित्य रचना में आचार्य जिनकुशलसूरि की प्रमुख रचना "चैत्यवन्दन कुलक" वृत्ति है। इसकी रचना वीर निर्वाण 1853 (विक्रम संवत् 1383) में हुई थी। चैत्यवंदन कुलक कृति 27 पद्यों की लघु रचना है। इस लघु कृति की व्याख्या में रचित चैत्यवन्दन कुलक वृत्ति का ग्रंथमान 4000 श्लोक परिमाण है। साहित्य के क्षेत्र में इस रचना का विशेष समादर हुआ है। कविता विनोद, विद्या विनोद, भाषा विनोद आदि कई ग्रंथ जिनकुशलसूरि द्वारा रचित हैं।

*समय-संकेत*

जिनकुशलसूरि का स्वर्गवास पाकिस्तानन्तर्गत देवराजपुर (देवाउर) में वीर निर्वाण 1859 (विक्रम संवत् 1389) फाल्गुनी अमावस्या के दिन अनशनपूर्वक हुआ।

आचार्य जिनकुशलसूरि का नाम गुणनिष्पन्न था। उनके शासनकाल में संघ में सब तरह से कुशलता रही। उनके द्वारा जैन धर्म की महती प्रभावना हुई।

*मेधावी आचार्य (मेरुतुंग प्रबंध चिंतामणि रचनाकार) के प्रभावक चरित्र* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡

📜 *श्रंखला -- 109* 📜

*गणेशदासजी चंडालिया*

*इतिहास दोहराया गया*

मारवाड़ से मेवाड़ में प्रवेश करने वाले सिंघाड़ों को उस वर्ष आगे के मार्ग में भी अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ा। यह स्वाभाविक ही था कि रोगग्रस्त क्षेत्र से आने वाले व्यक्तियों को संदेश और भय की दृष्टि से देखा जाता था। अपने-अपने क्षेत्रों की सभी को चिंता थी। रोग का फैलाव वहां न होने पाए इसके लिए प्रत्येक गांव सावधानी बरत रहा था। यह उचित भी था, परंतु इस कार्य में कई स्थानों पर साधु-साध्वियों के लिए एक परिषह का रूप धारण कर लिया। ठहरने के लिए स्थान मिलने में बड़ी कठिनाइयां उत्पन्न हो गईं। साधुओं की अपेक्षा साध्वियों के लिए वह स्थिति अधिक चिंताजनक थी।

मारवाड़ से मेवाड़ जाने वाले अनेक सिंघाड़ों में साध्वियों का एक सिंघाड़ा विहार करता हुआ आसींद पहुंचा। वहां के रावजी को पहले ही समाचार मिल चुके थे कि वह साध्वियां मारवाड़ से आ रही हैं। उन्होंने अपना आदमी भेज कर साध्वियों को गांव में ठहरने का निषेध करवा दिया। इतना ही नहीं उन्होंने उसी समय गांव छोड़कर अन्यत्र चले जाने का आदेश दे दिया। साध्वियों के सामने वहां से आगे विहार कर देने के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं था। दूर से थकी हुई आई थीं न वहां विश्राम कर सकीं और न आहार-पानी ही। मध्याह्न की तपती हुई दुपहरी में उन्हें वहां से आगे बढ़ना पड़ा।

आसींद से दौलतगढ़ की ओर जाते समय बीच में एक छोटा सा गांव आता है। वहां पहुंचने पर साध्वियों को पता लगा कि रावजी ने वहां के लोगों को भी समाचार भेज कर परामर्श दिया है कि मारवाड़ से आई हुई साध्वियों को गांव में मत ठहरने देना। इस सारी बात का पता चल जाने पर भी साध्वियों ने साहस नहीं छोड़ा। उन्होंने स्थान की गवेषणा प्रारंभ की, परंतु सारे गांव में घूम लेने पर भी स्थान प्राप्त नहीं हो सका। उनके सम्मुख बड़ी असमंजसता की स्थिति उत्पन्न हो गई। वे सोच नहीं पा रही थीं कि अब क्या किया जाए? आगे विहार करने का साहस भी नहीं हो रहा था। क्योंकि यह प्रश्न वहां के लिए भी ऐसा का ऐसा ही था कि वहां भी यदि स्थान नहीं मिल पाया तो फिर क्या किया जाएगा? गांव के अंतिम छोर पर खड़ीं वे परस्पर इस पर विचार विमर्श कर रही थीं, किंतु किसी निश्चय पर नहीं पहुंच पा रही थीं।

वहीं पास में एक कुम्हार का घर था। उसने साध्वियों की पारस्परिक सारी बातें सुन ली। दूर से चलकर आई हुई साध्वियों को ठहराने के लिए गांव में किसी ने स्थान नहीं दिया इससे उसे बड़ी आत्मग्लानि हुई। वह बाहर आया और साध्वियों को अपने झोपड़े में ठहर जाने के लिए कहने लगा।

साध्वियों को उस अप्रत्याशित निमंत्रण पर लगा की पुरातनकाल में राजर्षि उदायी को स्थान देने वाले कुम्हार की परंपरा अभी तक लुप्त नहीं हुई है। साध्वियों ने कुम्हार को अपनी ओर से सावधान कर देना आवश्यक समझा, अतः कहने लगीं— "तुम स्थान तो दे रहे हो, परंतु इससे रावजी तुम्हारे पर रुष्ट हो गए तो क्या करोगे?"

*कुम्हार ने साध्वियों की बात का क्या उत्तर दिया...?* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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*आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत प्रवचन का विडियो:

*अपने बारे में अपना दृष्टिकोण: वीडियो श्रंखला ६*

👉 *खुद सुने व अन्यों को सुनायें*

*- Preksha Foundation*
Helpline No. 8233344482

संप्रेषक: 🌻 *संघ संवाद* 🌻

👉 प्रेक्षा ध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ

प्रकाशक - प्रेक्षा फाउंडेसन

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