19.11.2018 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 19.11.2018
Updated: 20.11.2018

Update

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👉 प्रेरणा पाथेय:- आचार्य श्री महाश्रमणजी
वीडियो - 19 नवम्बर 2018

प्रस्तुति ~ अमृतवाणी
सम्प्रसारक 🌻 *संघ संवाद* 🌻

Update

⛩ *चेन्नई* (माधावरम्): *पूज्यप्रवर के दर्शनार्थ प्रबुद्ध जन..*

💠 *दिनामलर के संपादक डॉ. रामसुब्बू बालाजी*

💠 *राष्ट्रीय समता पार्टी के राज्य अध्यक्ष श्री अरुल सेलवन BABL.*

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🌻 *संघ संवाद* 🌻

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आचार्य श्री महाश्रमण
प्रवास स्थल
माधावरम, चेन्नई

🔮
*गुरवरो धम्म-देसणं*

📒
आचार्य प्रवर के
मुख्य प्रवचन के
कुछ विशेष दृश्य

🏮
कार्यक्रम की
मुख्य झलकियां

📮
दिनांक:
19 नवम्बर 2018

🎯
प्रस्तुति:
🌻 *संघ संवाद* 🌻

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News in Hindi

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रंखला -- 472* 📝

*धर्मोद्योतक आचार्य धर्मदास*

*जीवन-वृत्त*

गतांक से आगे...

धर्मसंघ की सुव्यवस्था हेतु धर्मदासजी ने वीर निर्वाण 2242 (विक्रम संवत 1772) में धारा नगर में अपने 22 विद्वान् शिष्यों के 22 दल बना दिए। तब से यह संघ बाईस टोला के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

इसी वर्ष धर्मदासजी के मुनि लूणकरण नामक एक शिष्य ने यावज्जीवन अनशन व्रत (संथारा) लिया। उत्तम कार्य को सबल व्यक्ति ही सफल कर सकते हैं, निर्बल नहीं। धर्मदासजी के शिष्य में मनोबल नहीं था। क्षुधावेदना की तीव्रता ने मुनि को अपने संकल्प से विचलित कर दिया। आचार्य धर्मदासजी यथार्थ में धर्म के दास थे। धर्म प्रभावना के लिए अपने प्राणों की भेंट चढ़ाने वाले बलिदानी आचार्य थे। उस समय जैन धर्म की कीर्ति के लिए अपना उत्तराधिकार शिष्य मूलचंद को सौंपकर अनशनस्थ मुनि के स्थान पर स्वयं अनशन ग्रहण कर लिया।

किसी भी व्रत के ग्रहण की सफलता के लिए उसका (व्रत का) जागरूकता के साथ अंतिम क्षण तक पालन करना चाहिए। धर्मदासजी अपनी प्रतिज्ञा में दृढ़ और पूर्ण सजग थे। उनका अनशन अत्यंत उल्लास के साथ सानंद संपन्न हुआ।

धर्मदासजी संकल्प शक्ति के धनी थे। धर्म संघ को लोकापवाद से बचाने के लिए अनशनस्थ शिष्य का आसन ग्रहण कर उन्होंने संसार को बताया "पणया वीरा महावीहिं" धीर और वीर व्यक्ति ही त्याग के महापंथ पर समर्पित हो सकते हैं। आचार्य धर्मदासजी के जीवन का यह प्रभावी प्रसंग निःसंदेह उन्हें धर्ममूर्ति के रूप में प्रस्तुत करता है।

*समय-संकेत*

धर्मदासजी का दीक्षा ग्रहण समय वीर निर्वाण 2186 (विक्रम संवत् 1716) है। वे इक्कीस वर्ष की उम्र में आचार्य बने। उन्होंने लगभग 51 वर्ष तक आचार्य पद का दायित्व संभाला। सात दिन के अनशन में वीर निर्वाण 2242 (विक्रम संवत् 1772) में उनका स्वर्गवास हुआ।

श्री धर्मदासजी के 98 शिष्यों ने मालव, मेवाड़, मारवाड़ आदि क्षेत्रों में धर्म प्रचार किया। श्री धर्मदासजी के प्रमुख शिष्य मूलचंदजी ने गुजरात और सौराष्ट्र में धर्म प्रचार किया। मूलचंदजी के सात शिष्य थे। शिष्यों से पृथक्-पृथक् धर्म संप्रदाय बने।

लीमड़ी संप्रदाय, गोंडल संप्रदाय, आठ कोटि कच्छी संप्रदाय आदि मूलचंदजी के शिष्य संप्रदाय की शाखाएं हैं। लीमड़ी संप्रदाय काफी प्रसिद्ध है।

क्रियोद्धारक धर्मदासजी 18वीं शताब्दी के प्रभावक आचार्य थे।

*भव्यजन-बोधक आचार्य भूधर के प्रभावक चरित्र* के बारे में पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡

📜 *श्रंखला -- 126* 📜

*श्रीचंदजी गधैया*

*सूखी कतलियां*

श्रीचंदजी एक उदारमना व्यक्ति थे। खुले हाथ से व्यय करने की उनकी प्रकृति थी। धन बढ़ता गया उसके साथ ही व्यय भी बढ़ता गया। संपत्ति के सेवक न बनकर स्वामी बनकर रहना ही उन्होंने सीखा था। घर में कोई वस्तु लाई जाती या बनवाई जाती तो थोड़ी से काम नहीं चलता। विवाह आदि विशेष प्रसंगों में भी यही स्थिति थी। सामान बढ़ चाहे कितना ही जाए, पर घटना हरगिज़ नहीं चाहिए। इसी भावना से प्रेरित होकर कभी-कभी दुगुना सामान बनवा डालते।

संवत् 1963 के आषाढ़ में उनकी पुत्री का विवाह हुआ। उसमें बनवाई गईं बादाम की कतलियां इतनी बढ़ गईं कि कई महीनों तक खपाई नहीं जा सकीं। उसी वर्ष शीतकाल में डालगणी का सरदारशहर में पदार्पण हो गया। एक दिन मुनि मगनलालजी गोचरी के लिए श्रीचंदजी के घर पधारे। उनकी पत्नी कुनणीबाई ने अन्य वस्तुओं के साथ-साथ सूखी कतलियों के लिए भी निवेदन किया। उस पर श्रीचंदजी बहुत बिगड़े और घरवाली को काफी डांट पिलाई। मुनि मगनलालजी ने स्थान पर आकर वह बात डालगणी के सम्मुख कह दी। डालगणी ने तब श्रीचंदजी को फरमाया— "यह तो सूखी कतलियां हैं, भावना तो साधारण धोवन-पानी से भी भाई जाती है।" उन्होंने दुबारा संतो को भेजकर वह सुखी मिठाई मंगवाई। उपालंभ से उदास हुई पत्नी की तो मानो बांछें खिल गईं। श्रीचंदजी को भी तब अपने उस व्यवहार पर पश्चात्ताप होना ही था। उस निवास काल में डालगणी ने कई बार सूखी कतलियां मंगवा कर संतों में वितरित कीं।

*वचन के पक्के*

कालूगणी नोहर पधारे। श्रीचंदजी सेवा में थे। नोहर का एक भाई कलकत्ते में कार्य करता था। वह भी उस समय वहीं आया हुआ था। उसे कलकत्ते में अपने व्यापार में कुछ धन की आवश्यकता थी। अवसर देखकर श्रीचंदजी के पास उसने अपनी बात चलाई। श्रीचंदजी ने कहा— "मैं स्वयं तो अब कलकत्ते नहीं जाया-आया करता। लड़के ही वहां का सारा कारोबार संभाल रहे हैं, पर मैं तुम्हारे लिए लिख दूंगा ताकि तुम वहां से सहायता प्राप्त कर सको।"

कालांतर में वह भाई कलकत्ता चला गया। श्रीचंदजी ने उसकी आर्थिक सहायता करने के लिए अपनी फर्म को पत्र पहले ही भेज दिया था, परंतु वहां गणेशदासजी ने उसके उत्तर में लिखा कि आपने जिस व्यक्ति को रुपए देने की बात लिखी है, सुनते हैं, उसका काम तो कच्चा है।

श्रीचंदजी ने उस पत्र का उत्तर देते हुए लिखा— "कार्य कच्चा हो या पक्का। तुम लोग उसे रुपए दे देना। मैं इस विषय में हुंकारा भर चुका हूं। डूब जाएंगे तो डूब जाएंगे उसकी परवाह मत करना।"

कहना नहीं होगा कि अपने पिता के वचन का महत्त्व रखते हुए गणेशदासजी ने उस व्यक्ति को पांच हजार रुपये दिए। जैसी की संभावना थी, वे रुपए आखिर डूब ही गए।

*तेरापंथ के प्रति अत्यंत द्वेष रखने वाले यति प्रेमचंदजी की एक निंदात्मक पुस्तक से संबंधित घटनाक्रम* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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👉 प्रेक्षा ध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ

प्रकाशक - प्रेक्षा फाउंडेसन

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