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👉 प्रेरणा पाथेय:- आचार्य श्री महाश्रमणजी
वीडियो - 23 नवम्बर 2018
प्रस्तुति ~ अमृतवाणी
सम्प्रसारक 🌻 *संघ संवाद* 🌻
News in Hindi
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रंखला -- 476* 📝
*जितेन्द्रिय आचार्य जयमल्ल*
आचार्य जयमल्लजी स्थानकवासी परंपरा के प्रभावक आचार्य थे। वे तपोनिष्ठ, स्वाध्याय प्रेमी, जितेंद्रिय एवं वैरागी संत थे।
*गुरु-शिष्य-परंपरा*
आचार्य जयमल्लजी के दीक्षा गुरु स्थानकवासी परंपरा के प्रभावी आचार्य भूधरजी थे। धर्मदासजी के दूसरे शिष्य धन्नाजी थे। उनके शिष्य भूधरजी थे। आचार्य रघुनाथजी उनके गुरु बंधु (एक गुरु से दीक्षित) थे। पट्टशिष्य परंपरा में आचार्य जयमल्लजी के बाद क्रमशः रायचंदजी, आसकरणजी, शबलदासजी, हीरादासजी, किस्तूरचंदजी आदि आचार्यों ने कुशलता पूर्वक उनके संघ का नेतृत्व किया।
*जन्म एवं परिवार*
आचार्य जयमल्लजी का जन्म राजस्थानान्तर्गत 'लाम्बिया' ग्राम में वीर निर्वाण 2235 (विक्रम संवत् 1765) में हुआ। वे बीसा ओसवाल थे एवं गोत्र से समदड़िया महता थे। पिता का नाम मोहनदास, माता का नाम महिमादेवी एवं अग्रज का नाम रीड़मल था। उनकी पत्नी का नाम लक्ष्मी था।
*जीवन-वृत्त*
बाईस वर्ष की अवस्था में जयमल्लजी का विवाह कुमारी लक्ष्मी के साथ हुआ। वैवाहिक सूत्र में बंधने के बाद वे एक बार व्यापारिक प्रयोजन से मेड़ता गए। स्थानकवासी परंपरा के आचार्य भूधरजी से उन्होंने सुदर्शन सेठ का व्याख्यान सुना। ब्रह्मचर्य की महिमा का प्रभाव उनके मानस में अंकित हो गया। उन्होंने जीवन की गहराइयों में झांका। भोग-विलास को निस्सार समझकर आजीवन ब्रह्मचर्य पालन की प्रतिज्ञा की। उनके हृदय में वैराग्य की तरंगे तीव्रगति से तरंगित हुईं। अंतर्मुखी प्रवृत्ति की प्रबलता ने जीवन की धारा को बदला, वे संयम पथ पर बढ़ने के लिए तत्पर हुए। उनकी धर्मपत्नी लक्ष्मी गौना लेकर ससुराल लौटी नहीं थी। विवाह के छह मास ही हुए थे कि जयमल्लजी वीर निर्माण 2257 (विक्रम संवत् 1787) मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया के दिन आचार्य भूधरजी के पास दीक्षित हो गए। ज्येष्ठ शुक्लपक्ष में उनका विवाह हुआ। कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी को उन्होंने उपदेश सुना एवं मार्गशीर्ष कृष्णा द्वितीया के दिन वे संयम मार्ग में प्रविष्ट हो गए। धर्मपत्नी लक्ष्मी नाम से लक्ष्मी और गुणों से भी लक्ष्मी थी। वह अपने पति के साथ संयम धर्म को स्वीकार कर अलौकिक लक्ष्मी के रूप में प्रकट हुई। दीक्षा लेने के बाद जयमल्लजी ने तपःसाधना को अपने जीवन का प्रमुख अंग बनाया। सोलह वर्ष तक निरंतर एकांतर तप किया। दीक्षा गुरु आचार्य भूधरजी के स्वर्गारोहण के पश्चात् सोकर नींद न लेने का संकल्प किया एवं पचास वर्ष तक पूर्ण जागरूकता के साथ इस दुर्धर संकल्प को निभाया। *'निद्दंच न बहुमन्नेज्जा'* भगवान् महावीर की वाणी का यह पद्य उनकी साधना का प्रमुख अंग था।
*जितेन्द्रिय आचार्य जयमल्ल के तेरापंथ के आद्य-प्रवर्तक आचार्य भिक्षु के साथ सौहार्दपूर्ण संबंधों* के बारे में पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡
📜 *श्रंखला -- 130* 📜
*श्रीचंदजी गधैया*
*आचार्यों के कृपापात्र*
श्रीचंदजी पर प्रत्येक आचार्य की अतिशय कृपादृष्टि रही। उनकी प्रायः प्रत्येक प्रार्थना सहज ही स्वीकार हो जाती थी। यों भी कहा जा सकता है कि वे अवसर देखकर उपयुक्त प्रार्थना ही करते थे। डालगणी की उन पर विशेष कृपा थी। कृपा का ही परिणाम था कि श्रीचंदजी के पुत्र वृद्धिचंदजी रुग्ण हुए तब भी सरदारशहर पधार कर डालगणी ने उनको दर्शन दिए तथा छोटे पुत्र उदयचंदजी की मृत्यु होने पर भी शोक-विह्वल परिवार को वहां पधार कर दर्शन दिए।
कालूगणी की भी उन्हें कृपा प्राप्त थी। संवत् 1975 से उन्होंने उन को शय्यातर का लाभ देना प्रारंभ किया तब से साधु-साध्वियों तथा आचार्यों के चातुर्मास बहुधा उन्हीं के नोहरे (वर्तमान नाम समवसरण) में होते आए हैं। आचार्यश्री सरदारशहर पधारते हैं तब साध्वियां प्रायः गधैयाजी की हवेली में ठहरती हैं।
संवत् 1981 के शीतकाल में कालूगणी बिदासर पधारे। माता छोगांजी ने मर्यादा महोत्सव प्रदान करने की प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना के पश्चात् प्रायः निश्चित सा ही था कि वह महोत्सव बिदासर को ही मिलेगा। परंतु श्रीचंदजी गधैया वहां दर्शन सेवा करने आए और प्रार्थना की कि शीतकाल है, वृद्ध साधु-साध्वियों के विहारों में कष्ट भी है, फिर भी मेरी वृद्धावस्था को देखते हुए यह महोत्सव सरदारशहर को प्रदान करने की कृपा करें। संभव है मेरे लिए यह अंतिम महोत्सव ही हो।
कालूगणी ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार किया और भरपूर शीतकाल में संघ को लेकर सरदारशहर पधारे। वस्तुतः उनके जीवन का सरदारशहर में वह अंतिम मर्यादा महोत्सव ही सिद्ध हुआ।
*देहावसान*
नाटा कद, मजबूत काठी और सुदृढ़ मनोबल के साथ श्रीचंदजी एक हल्के-फुल्के शरीर वाले व्यक्ति थे। वे विशेष रुग्ण नहीं रहे। अंतिम अवसर तक शरीर में उनको अच्छा सहयोग प्रदान किया। कुछ ही घंटों की बीमारी भोग कर वे संवत् 1986 वैशाख शुक्ला 8 को दिवंगत हो गए।
*विविधरंगी स्वभाव वाले आमेट के अत्यन्त श्रद्धाशील और दृढ़ सम्यक्त्वी श्रावक पूरमलजी चोरड़िया के प्रेरणादायी जीवन-वृत्त* के बारे में पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
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👉 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत प्रवचन का विडियो:
*अभयदान: वीडियो श्रंखला ३*
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आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*
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*क्रोध नियन्त्रण - क्रमांक: २*
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