15.12.2018 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 17.12.2018
Updated: 17.12.2018

News in Hindi

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रंखला -- 495* 📝

*मंगलप्रभात आचार्य मघवागणी*
*और*
*आचार्य माणकगणी*

*जीवन-वृत्त*

गतांक से आगे...

मुनि मघराजजी ज्ञानार्जन में अप्रमत्त भाव से प्रवृत्त थे। जयाचार्य की प्रेरणा से उन्होंने संस्कृत भाषा का अध्ययन प्रारंभ किया। सारस्वत व्याकरण का पूर्वार्ध तथा चंद्रिका का उत्तरार्ध कंठाग्र किया। अनेक काव्य भी पढ़े। किरातार्जुनीय, दुर्घटकाव्य, समाधितंत्र, योगशास्त्र आदि ग्रंथों का गंभीर अध्ययन कर संस्कृत भाषा पर प्रभुत्व स्थापित किया। वे तेरापंथ धर्मसंघ के प्रथम संस्कृत विद्वान् थे। वे व्याख्यान में कई बार संस्कृत काव्यों का वाचन करते थे। दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि आगम, रामचरित, शलीभद्र आदि कई आखयान उन्हें अच्छी तरह से कंठस्थ थे। उनकी आगम ज्ञान में रुचि थी। बत्तीस आगमों का उन्होंने कई बार स्वाध्याय किया था। मघवागणी की स्मरण शक्ति अत्यंत तीव्र थी। एक बार उन्होंने पंडित दुर्गादासजी के समक्ष सारस्वत व्याकरण के कुछ अंशों को 26 वर्ष के बाद ज्यों का त्यों दोहरा दिया था। पंडित दुर्गादासजी मघवागणी की स्मरण शक्ति पर आश्चर्यचकित थे।

मघवागणी को 14 वर्ष की अवस्था में जयाचार्य ने सरपंच बनाया था। यह मघवागणी की निष्पक्षता का उदाहरण है।

वीर निर्वाण 2382 (विक्रम संवत् 1912) में जयाचार्य की आंखों में तकलीफ हो गई। मर्यादा पत्र वाचन का अवसर आया। जयाचार्य ने यह गुरुत्तर कार्य मुनि मघवा को सौंपा। उस समय मघवा मुनि की अवस्था लगभग 16 वर्ष की थी।

जयाचार्य द्वारा वीर निर्वाण 2390 (विक्रम संवत् 1920) में मुनि मघवा की नियुक्ति युवाचार्य पद पर की गई। उस समय युवाचार्य मघराजजी 24 वर्ष के थे।

युवाचार्य अवस्था में मघवा ने धर्म शासन के कई गुरुत्तर कार्य संभाल लिए। जयाचार्य युवाचार्य के कार्य से प्रसन्न थे। वे कई कार्यों से निवृत्त होकर साहित्य संरचना में प्रवृत्त हुए।

मघवागणी 18 वर्ष तक युवाचार्य पद पर रहे, परंतु उन्हें कभी इस पद का अहंकार नहीं था। वे पहले की तरह युवाचार्य बनने के बाद भी सरल और नम्र रहे।

जयाचार्य का वीर निर्माण 2408 (विक्रम संवत् 1938) में स्वर्गवास होने के बाद जयपुर में मघवागणी ने तेरापंथ धर्मसंघ का दायित्व संभाला।

मघवागणी 30 वर्ष तक जयाचार्य के पास रहे। अतः उन्हें अपने गुरु से विविध अनुभव प्राप्त हुए। आचार्य काल में मघवागणी ने प्रायः राजस्थान में विहरण किया। जयपुर चातुर्मास समाप्त कर जब मघवागणी आचार्य बनने के बाद पहली बार थली प्रदेश में पधारे उस समय धर्मसंघ ने आपका अभूतपूर्व स्वागत किया। धर्मसंघ की विशेष प्रभावना हुई। सहस्रों व्यक्तियों ने सम्यक्त्व दीक्षा ग्रहण की। सरदारशहर के सैकड़ों व्यक्ति तेरापंथ धर्मसंघ के अनुयायी बने।

जब मघवागणी का शासनकाल प्रारंभ हुआ उस समय साध्वीप्रमुखा पद पर साध्वी गुलाब थीं। वीर निर्वाण 2410 (विक्रम संवत् 1940) के पौष महीने में भगिनी महासती गुलाब का स्वर्गवास हो गया था। मघवागणी ने साध्वी नवलांजी को प्रमुखां पद पर नियुक्त किया।

उदयपुर आदि क्षेत्रों में मघवागणी के चातुर्मास विशेष प्रभावक रहे। तत्कालीन महाराजा फतेहसिंहजी ने मघवागणी के संपर्क में आकर बोध प्राप्त किया। उदयपुर के सुविश्रुत कविवर सांवलदासजी भी मघवागणी से प्रभावित थे।

मघवागणी के शासनकाल में 119 दीक्षाएं हुईं उनमें संतों की संख्या 26 एवं साध्वियों की संख्या 83 थी। धर्मसंघ के संचालन में मघवागणी की कोमल अनुशासना सामूहिक जीवन में अहिंसा का अभिनव प्रयोग था।

*माणिक सी चमक जैसे प्रभावी व्यक्तित्व के धनी आचार्य माणकगणी के प्रभावक चरित्र* के बारे में पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡

📜 *श्रंखला -- 149* 📜

*बनजी चंदाणी*

*डालगणी का पदार्पण*

कच्छ की अपनी अंतिम यात्रा संपन्न करके संवत् 1954 में जब अग्रणी अवस्था में डालगणी वापस आ रहे थे, तब आडेल आदि गांवों में भी पधारे। यद्यपि वे गांव उनके मार्ग में नहीं थे। उधर जाने से उन्हें कुछ कोसों का चक्कर लेना पड़ा। फिर भी जनहित की भावना से उन्होंने उन क्षेत्रों को संभाला। एक दूसरा कारण यह भी था कि बनजी उन दिनों अस्वस्थ थे। ऐसे धर्मप्रेमी श्रावक को दर्शन दिए बिना वे आगे कैसे पधार सकते थे? उन एकांत गांवों में मुनि डालचंदजी के अप्रत्याशित दर्शन पाकर बनजी का मन आह्लाद से भर गया। वे दर्शन उनके लिए औषध बन गए। वे शीघ्र ही स्वस्थ हो गए।

*सिलोको*

मुनि डालचंदजी के प्रवासकाल में बनजी ने उन्हें एक स्वरचित 'सिलोको' सुनाया था। उन्होंने उसे गजल कहा है। वह संवत् 1952 में लिखा गया था। उसमें 32 पद्य हैं। उसमें तेरापंथ के सभी आचार्यों का गुणगान करने के पश्चात् कुछ विशिष्ट साधु-साध्वियों के नामों का भी उल्लेख है। साधुओं में केवल दो नाम दिए गए हैं। एक मुनि कालूजी का और दूसरा मुनि डालचंदजी का। इससे लगता है कि वे डालगणी से बहुत पहले से ही परिचित एवं प्रभावित थे।

मुनि डाल आडेल पधारे उसी वर्ष आचार्य बन गए। बनजी को उससे अपार हर्ष हुआ। संवत् 1956 में उन्होंने एक दूसरा 'सिलोको' बनाया। उसमें 45 पद्य हैं। उनमें स्वामीजी से लेकर डालगणी तक सभी आचार्यों की स्तुति की गई है। डालगणी के निर्वाचन और जोधपुर पदार्पण का उसमें अच्छा विवरण प्रस्तुत किया गया है। अपने गांव में डालगणी के पदार्पण को उन्होंने इस प्रकार अभिव्यक्त किया है—

'गांव आडेल नै बटेरां री ढाणी,
जंगी धोरा नै टांकां रो पाणी।
जठे म्हारासा पगल्या जी कीधा,
सारा जणां ने दरसण दीधा।।43।।'

अपने गांव की धार्मिक स्थिति और चौधरियों द्वारा लिए गए व्रत का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है—

'गांव आडेल में समगत रो वासो,
धरम रो उद्यम बारो ही मासो।
सारा चौधरियां सोगन कीना,
म्हे छमछरी नै हल नहीं खीना।।44।।'

*जाट परिवार के सदस्य बटेरां री ढाणी के श्रावक अर्जुनजी बटेर के प्रेरणादायी जीवन-वृत्त* के बारे में जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

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दिनांक: 15/12/2018

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