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🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂
🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन
👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला १३५* - *समय प्रबंधन और प्रेक्षाध्यान १५*
एक *प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें*
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*
प्रकाशक
*Preksha Foundation*
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🌻 *संघ संवाद* 🌻
👉 तिरुकलीकुन्ड्रम् (पक्षी तीर्थ)(तमिलनाडु) - जन्मोत्सव-पट्टोत्सव कार्यक्रम
👉 लखनऊ - उत्तरप्रदेश के उपमुख्यमंत्री से चुनाव शुद्धि पर भेंटवार्ता
👉 खारूपेटिया(असम) - जन्मदिवस अभिवंदना कार्यक्रम आयोजित
👉 जीन्द - शासन स्तंभ मंत्री मुनि की स्मृति सभा का आयोजन
👉 विजयनगर, बेंगलुरु - पटोत्सव का आयोजन
👉 विजयनगर, बेंगलुरु - आचार्य श्री महाश्रमण जी के 58वें जन्मोत्सव पर कार्यक्रम का आयोजन
👉 नेहरू नगर, बैंगलोर - जन्मोत्सव एवं पट्टोत्सव समारोह
प्रस्तुति - *🌻संघ संवाद 🌻*
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News in Hindi
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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति
🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏
📖 *श्रृंखला -- 29* 📖
*सौंदर्य की मीमांसा*
गतांक से आगे...
मानतुंग सूरि भगवान् आदिनाथ की स्तुति करते हुए कहते हैं— भगवन्! ऐसा सुंदर और शांतिमय आकार मैंने और कहीं नहीं देखा, इसलिए मैं अभिभूत हूं। स्पष्ट है कि आचार्य मानतुंग किसी बाह्य सौंदर्य को देखकर ऐसा नहीं कह रहे हैं। किसी बाह्य सौंदर्य में वे उलझते ही नहीं। जब हमने अजंता और एलोरा की गुफाओं को देखा, उनके सौंदर्य को देखा तब मैंने (ग्रंथकार आचार्यश्री महाप्रज्ञजी) एक लंबी कविता लिखी। उस कविता की एक पंक्ति है— "बाहर का सौंदर्य यहां तो भीतर का प्रतिबिंब रहा है।" बाहर का जो सौंदर्य दिखाई दे रहा है, वह भीतर का ही प्रतिबिंब है। मानतुंग की बात अंतरंग सौंदर्य के विषय में है। वे कह रहे हैं— आपने अपनी आत्मा को इतना सुंदर बना लिया, अपनी चेतना को इतना सुंदर बना लिया, अपने भावों को इतना सुंदर बना लिया कि अब वह सौंदर्य आपके भीतर-बाहर चारों ओर से टपक रहा है।
यह सौंदर्य बोध बहुत महत्त्वपूर्ण है। कला और सौंदर्य को छोड़कर दर्शन की बात भी नहीं सोची जा सकती। आजकल सौंदर्य दर्शन की एक शाखा ही बन गई है। सौंदर्य की मीमांसा की जाती है। अनेक आचार्यों ने भीतर के सौंदर्य को समझने का विवेक दिया है। एक संत ने किसी से पूछा— बताओ, दुनिया में सबसे ज्यादा बुद्धिमान कौन है? उत्तर मिला— जो अपने हित-अहित, शत्रु-मित्र को समझ सके, वह बुद्धिमान है। संत बोले— फिर तो पशु भी बुद्धिमान कहा जाएगा, क्योंकि वह भी अपने शत्रु-मित्र को समझता है। जानवरों और जंतुओं में बदले की अद्भुत भावना पाई जाती है। संत ने स्वयं अपने इस तर्क से उत्तरदाता को मौन बना दिया। स्वयं अपने ही प्रश्न का उत्तर देते हुए संत ने कहा— "बुद्धिमान वह है जो यह विवेक करना जानता है कि बुरी चीजों में सबसे ज्यादा बुरी चीज कौन सी है और अच्छी चीजों में सबसे ज्यादा अच्छी चीज कौन सी है? जिसमें यह विवेक है, वह बुद्धिमान है।"
सचमुच मानतुंग ने सबसे सुंदर वस्तु का विवेक कर अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय दिया है। सौंदर्य शास्त्र के बड़े प्रश्न को उन्होंने हल कर दिया कि सबसे अधिक सुंदर कौन है? अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए आचार्य कहते हैं— प्रभो! मैं आपके सौंदर्य की जो बात कह रहा हूं, वह निराधार नहीं है। मेरे पास इसका ठोस आधार है। वह आधार भौतिक भी है और आध्यात्मिक भी। भौतिक आधार यह है— जिन परमाणुओं से आपकी रचना हुई है, वैसे परमाणु और नहीं हैं। आपका शरीर निर्मित होने के पश्चात् वे परमाणु भी समाप्त हो गए, शेष नहीं रहे। जिस मिट्टी से यह पुतला गढ़ा गया, वह इतनी ही थी– यह बात साहित्य में अक्सर कही जाती है। मानतुंग भी कहते हैं कि जिन परमाणुओं से आपकी रचना हुई, वे उतने ही थे इसलिए आप के समान दूसरा और कैसे बनता? कहां से बनता? अनंत परमाणुओं के स्कंध से विश्व भरा पड़ा है इसलिए आपका शरीर जिन परमाणुओं से बना है, उनकी विशेषता क्या है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं— आपके परमाणु शांत-रागरुचि वाले हैं। *शांत-राग-रुचि* इस पद के दो अर्थ हो सकते हैं। एक अर्थ यह है कि जिन्होंने राग को शांत कर दिया है अथवा जिनकी राग की रुचि शांत हो गई है। राग से तात्पर्य राग-द्वेष दोनों से है। मूल वृत्ति है राग। द्वेष तो उसका उपजीवी है। राग है तभी द्वेष होता है। राग नहीं है तो द्वेष होगा ही नहीं। मानतुंग कहते हैं जिन परमाणुओं ने आपकी राग-रुचि को शांत कर दिया, वे दुर्लभ हैं। इसका दूसरा अर्थ यह है— वैसा शरीर दुर्लभ है, जिस शरीर में शांत रस वाली किरणें फूट रही हैं।
*नौ रसों में शांत रस को ही स्थाई रस माना जाता है... क्यों...?* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः
प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 41* 📜
*आचार्यश्री भीखणजी*
*भाव संयम की भूमिका*
*निष्कर्ष की घोषणा*
स्वामीजी प्रायः चातुर्मासांत तक शास्त्रों का अध्ययन-मनन कर रहस्यों को हृदयंगम करते रहे। अंततः आगम-मंथन के उस महान् परिश्रम से उपनिषद्-भूत जो निष्कर्ष सामने आया, उससे उनका पूरा-पूरा विश्वास हो गया कि श्रावकों का पक्ष सत्य है। साधु-समाज जिन-आज्ञा के अनुसार नहीं चल रहा है। दर्शन और चारित्र ये दो ही साधना के अनिवार्य अंग हैं, किंतु यहां इन दोनों का सम्यग् भाव दृष्टिगत नहीं होता।
स्वामीजी अपने निष्कर्ष को गोल-मटोल भाषा में छिपाकर रखना नहीं चाहते थे। वे अपनी पूर्वकृत भूल को सुधार कर सब कुछ स्पष्ट कह देने का निश्चय कर चुके थे। इसलिए पहले अपने साथ के अन्य साधुओं के सामने उन्होंने सारी बातें विस्तार सहित रखीं। साधु का वास्तविक आचार-विचार क्या होना चाहिए, यह उन सबको आगम-सम्मत दृष्टिकोण से समझाया। अच्छी तरह समझ लेने के पश्चात् चारों साधुओं ने स्वामीजी के उस दृष्टिकोण का अनुमोदन किया।
चातुर्मास जब समाप्ति के करीब आया, तब एक दिन श्रावकों की सभा के सम्मुख अपना चिर-प्रतीक्षित निर्णय सुनाते हुए स्वामीजी ने निर्भीकतापूर्वक उद्घोषित किया— 'श्रावकों! तुम लोग सत्य-मार्ग पर हो, हम गलत हैं। वास्तव में ही साधु-वर्ग शास्त्र-सम्मत मार्ग से भटक गया है, किंतु इसके लिए धैर्य होने की आवश्यकता नहीं है। मैं आचार्यश्री के पास जाकर निवेदन करूंगा। मुझे पूर्ण विश्वास है कि वे इस पर ध्यान देकर साधु-संघ को नियंत्रित करेंगे, ताकि संघ में शुद्ध आचार और शुद्ध विचार का वातावरण फिर से फैल सके। अवश्य ही कोई न कोई ऐसा उपाय खोज लिया जाएगा जो लक्ष्य तक पहुंचने में सहायक होगा और गति में तीव्रता लाएगा। आप सब लोगों को तब तक के लिए धैर्यपूर्वक कुछ और प्रतीक्षा करनी चाहिए।'
स्वामीजी की खरी बात को सुनकर श्रावक बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा— 'हमें आपसे जैसी आशा थी, वैसा ही काम आपने कर दिखाया।'
*संघ-कल्याण की दृष्टि*
स्वामीजी ने सत्य-मार्ग को स्वीकार करने की प्रतीक्षा की थी, उसका तात्पर्य यह नहीं था कि वे स्वयं आचार्य बनना चाहते थे या अपना पृथक् पंथ चलाना चाहते थे। उनके सामने तो केवल सत्य का ही प्रश्न था। वे आत्म-कल्याण के पथ पर शिष्यत्व या गुरुत्व में कोई भेद नहीं मानते थे। किसी भी प्रकार के सत्य का पालन हो, आत्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो, यही उनका प्रमुख लक्ष्य था।
स्वामीजी अपना अकेले का ही नहीं, अपितु सारे संघ का कल्याण चाहते थे। इसीलिए गुरु को गलत समझ लेने पर भी उन्होंने उनसे संबंध-विच्छेद नहीं किया, प्रत्युत उनके दृष्टिकोण को बदलकर सारे संघ को शुद्ध मार्ग पर प्रवृत्त करने का ही निश्चय किया। आचार्यश्री के न मानने पर जो कुछ करने का था, उसका निर्णय भी वे कर चुके थे, परंतु उस निश्चय को काम में न लेना पड़े, इसीलिए पहले गुरु को सोचने तथा समझने का काफी अवसर दे देना चाहते थे। इतने पर भी यदि गुरु और सत्य, इन दोनों में से केवल एक को ही चुनना पड़े, तो वे सत्य को चुनने का निश्चय कर चुके थे।
*चातुर्मास की समाप्ति पर स्वामीजी के सिंघाड़े का आचार्यश्री की ओर प्रस्थान व इस दौरान उनके एक साथी द्वारा की गई भूल* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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👉 *सेलम - आचार्य श्री महाश्रमण 10 वां पदाभिषेक समारोह*
💢 आज के मुख्य कार्यक्रम के अनुपम दृश्य
💢मुख्य मुनि श्री अपने भावों की प्रस्तुति देते हुए
💢साध्वी वृन्द की गीतिका द्वारा प्रस्तुति
💢पूज्यवर के संसार पक्षीय भाई श्री श्रीचंद जी दुगड़ की प्रस्तुति
दिनांक - 14-05-2019
प्रस्तुति - *संघ संवाद*
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👉 *सेलम - आचार्य श्री महाश्रमण 10 वां पदाभिषेक समारोह*
💢 आज के मुख्य कार्यक्रम के अनुपम दृश्य
दिनांक - 14-05-2019
प्रस्तुति - *संघ संवाद*
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🏵 *तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम् अधिशास्ता परमपूज्य आचार्यश्री महाश्रमण जी के 10 वे पट्टारोहण दिवस पर *भावभीनी अभिवंदना*
🙏श्रद्धावनत🙏
🌍 *जैन विश्व भारती परिवार* 🌏
*मीडिया एवं प्रचार प्रसार विभाग*
🌐 *जैन विश्व भारती* 🌐
सम्प्रसारक:
🌻 *संघ संवाद* 🌻
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*अणुव्रत अनुशास्ता*
*आचार्यश्री महाश्रमण*
*के पट्टारोहण दिवस पर*
*भावभीनी अभिवंदना*
🙏श्रद्धावनत🙏
*अणुव्रत सोशल मीडिया*
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*अणुव्रत महासमिति*
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