Update
👉 चेन्नई - आचार्य महाश्रमण तेरापंथ जैन पब्लिक स्कूल का लोकार्पण समारोह
👉 चेन्नई - आध्यात्मिक मिलन एवं स्वागत समारोह
👉 इचलकरंजी - पश्चिम महाराष्ट्र व उत्तरी कर्नाटक स्तरीय व्यक्तित्व विकास कार्यशाला 'लक्ष्य- हो ऊंचा हमारा' का आयोजन
👉 जयपुर, शहर - "सीख ले रिश्तो की एबीसीडी खुशहाल रहेगी हर पीढ़ी" कार्यशाला का आयोजन
प्रस्तुति - *🌻संघ संवाद 🌻*
Update
👉 प्रेरणा पाथेय:- आचार्य श्री महाश्रमणजी
वीडियो - 11 जून 2019
प्रस्तुति ~ अमृतवाणी
सम्प्रसारक 🌻 *संघ संवाद* 🌻
News in Hindi
🙏 *पूज्यप्रवर अपनी धवल सेना के साथ प्रातःविहार करके 'तावरेकेरे' (Karnataka) पधारे..*
🛣 *गुरुदेव का आज प्रातःकाल का विहार लगभग 08.80 कि.मी. का..*
⛩ *आज दिन का प्रवास: गोवर्नमेंट हायर प्राइमरी स्कूल - तावरेकेरे (कर्नाटक)*
*लोकेशन:*
https://maps.google.com/?q=13.133135,77.927883
🙏 *साध्वीप्रमुखा श्री जी विहार करते हुए..*
👉 *आज के विहार के कुछ मनोरम दृश्य..*
दिनांक: 12/06/2019
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🌻 *संघ संवाद* 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 64* 📜
*आचार्यश्री भीखणजी*
*तेरापंथ का उदय*
*सभी प्रभावित*
जिन लोगों ने अपनी दूरभिसंधि के आधार पर स्वामीजी को वह स्थान बतलाया था, वे प्रातःकाल होते ही उसका परिणाम देखने की उत्सुकता से वहां आए। उन्होंने देखा कि स्वामीजी तथा उनके सभी संत सानंद हैं। वे बहुत चकित हुए। उनके विचार से वह कोई अघटित घटना थी। उनकी धारणा थी— 'आज तक रात्रि में वहां रहकर कोई व्यक्ति जीवित बाहर नहीं निकल पाया।' उन सबको अपनी चाल के विफल हो जाने का बड़ा दुःख हुआ। यद्यपि किसी ने भी उस समय अपने दुख को व्यक्त करने के लिए मुख नहीं खोला, परंतु उद्देश्य-पूर्ति की विफलता से उत्पन्न खिन्नता उनकी आकृतियों पर स्पष्ट उभर आई। सबसे बड़ा दुख तो उनको यह था कि स्वामीजी को वहां चातुर्मास करने के लिए स्थान प्राप्त हो गया।
वे लोग प्रभावित भी हुए कि स्वामीजी उस भय-स्थान में भी निर्भय रहने की क्षमता रखते हैं। उन लोगों को सर्प-संबंधी उपसर्ग का पता लगा, तब तो उन्होंने दांतों तले अंगुली दबा ली। मुनि भारमलजी की निर्भीकता और स्वामीजी की सतत जागरूक आत्म-शक्ति का उन लोगों को वह प्रथम परिचय प्राप्त हुआ। यद्यपि मानसिक स्तर पर उनका विद्वेष समाप्त नहीं हुआ, फिर भी उस घटना से वह दब अवश्य गया। कुछ व्यक्तियों के लिए वह घटना कालांतर में स्वामीजी के प्रति श्रद्धाशीर बनने का हेतु भी बनी।
*भाव-संयम*
केलवा में स्वामीजी का प्रथम दिन उपसर्ग-विजय का रहा और द्वितीय दिन चातुर्मासिक चतुर्दशी का। तृतीय दिन विक्रम संवत् 1817 की आषाढ़ पूर्णिमा का था, जो कि भाव-संयम ग्रहण करने के लिए निर्णीत किया गया था। उस दिन एक प्रकार के नए जीवन का प्रारंभ होने जा रहा था, अतः पुराने जीवन के लिए व्युत्सर्ग-भाव और नए जीवन के लिए स्वीकार-भाव से सब साधुओं की मुखाकृति आनंदातिरेक से दमक रही थी। सभी का मन अपूर्व उत्साह से भरा हुआ था।
अनुश्रुति है कि उस दिन स्वामीजी आदि संतों के तेले की तपस्या थी। सायंकाल में चातुर्मासिक पाक्षिक प्रतिक्रमण करने से पूर्व, रात्रि के प्रारंभकाल में साढ़े सात बजे के लगभग स्वामीजी और उनके सहवर्ती साधु सम्मिलित होकर पूर्व-दिशि ईशान कोण के अभिमुख बैठे। अरिहंत भगवान् की आज्ञा लेकर तथा सिद्धों के साक्ष्य से सर्वप्रथम स्वामीजी ने मेघ-मन्द्र स्वर से सामायिक-सूत्र का उच्चारण करते हुए सामायिक-चारित्र ग्रहण किया। तत्रस्थ अन्य साधुओं ने भी स्वामीजी द्वारा उच्चारित सामायिक-पाठ के द्वारा चारित्र ग्रहण किया। तेरापंथ की वास्तविक स्थापना स्वामीजी के भाव-संयम ग्रहण करने के साथ उसी दिन हुई।
युग-प्रवर्तक स्वामीजी ने नए युग का प्रारंभ करने के लिए जो दिन चुना, वह वस्तुतः जैनागम-सम्मत ऐसा संधि-दिन था कि जहां से काल-परिवर्तन की गणना सदा से की जाती रही है। कालचक्र, अवसर्पिणी काल, उत्सर्पिणी काल, अर तथा सम्वत्-परिवर्तन के लिए मान्य संधि-दिन, द्रव्य-संयम और भाव-संयम का भी संधि-दिन हो गया।
*तेरापंथ की कुंडली के बारे में विस्तार से* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति
🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏
📖 *श्रृंखला -- 52* 📖
*ज्ञान की आराधना: प्रकाश की साधना*
गतांक से आगे...
भक्ति के शिखर पर खड़ा होकर व्यक्ति जिस वाणी में बोलता है, उस वाणी की तुलना हम सामान्य वाणी से नहीं कर सकते। वह बिल्कुल अलग बात होती है। इतिहास प्रमाण है— जितने भी अलौकिक भक्त हुए हैं, वे अनुत्तर भूमिका को प्राप्त हुए हैं। उन्होंने जब भी भक्ति में अभिस्नात होकर जो कोई बात कही, सामान्य आदमी को उसे समझने में बहुत समय लगा। मूर्धन्य भक्तों, कवियों के द्वारा कही गई बात के आज तक न जाने कितने-कितने और कैसे-कैसे अर्थ लगाए जा रहे हैं। सब अपनी-अपनी दृष्टि के अनुसार उसका अर्थ निकाल रहे हैं। एक सामान्य आदमी चांद और सूरज को निरर्थक नहीं बता सकता। वह नहीं कह सकता कि उसे इनकी जरूरत नहीं है। किंतु जब एक भक्त-मानस भगवान् में ही प्रकाश देखता है और भगवान् में ही शांति का अनुभव करता है तब उसके लिए न अन्यत्र प्रकाश होता है और न शांति। ऐसी अवस्था में वह कह सकता है— भगवन्! मुझे आपके अतिरिक्त और किसी की जरूरत नहीं। राम-भक्त हनुमान के बारे में प्रसिद्ध है कि वे जड़-चेतन सब में राम की ही छवि देखते थे। सीता द्वारा प्राप्त हार को तोड़कर उसमें भी उन्होंने राम को ही ढूंढने की कोशिश की थी। जहां यह भक्ति का अतिरेक और श्रद्धा की चरम स्थिति होती है, वहां भक्त को केवल भगवान् ही दिखाई देते हैं, उनके सिवाय और कुछ नजर नहीं आता। जिस व्यक्ति की श्रद्धा चरित्र में है, वैराग्य में है, उसे और सब कुछ फीका सा लगता है। अलौकिक चिंतन की धारा और अभिव्यक्ति भक्ति की भूमिका पर ही होती है। इसलिए आचार्य मानतुंग ने जो कहा, उस में न कोई अतिशयोक्ति है न कोई उपेक्षा। वह केवल भक्ति की अभिव्यक्ति मात्र है।
आचार्य मानतुंग अपनी बात को समर्थन भी बहुत अच्छा करते हैं। उससे सारी बात स्पष्ट हो जाती है। वे कहते हैं— मेरा तात्पर्य यह नहीं कि सूर्य की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि चंद्रमा की कोई आवश्यकता नहीं है। उनकी आवश्यकता है, पर वह दुनिया को है, मुझे नहीं। बीज बोया गया, उसे पानी या वर्षा की जरूरत है, किंतु फसल पक जाने के बाद भी क्या उसकी जरूरत होगी? तब तक बरसात की जरूरत है, जब तक फसल तैयार नहीं होती। फसल पककर तैयार होने के बाद उसे जल की आवश्यकता नहीं रह जाती। हम जानते हैं— सावन, भादों के महीने में काले-कजरारे बादल और वर्षा की झड़ी सबको मनोरम लगती है, किंतु चैत्र, वैशाख में इस तरह की स्थिति हो जाए तो कहा जाता है— मौसम खराब है। जो वर्षा जुलाई-अगस्त में अच्छी लगती है वह अप्रैल-मई में खराब क्यों लगने लगती है? इसलिए कि उसकी अपेक्षा नहीं है, जरूरत नहीं है। बिना जरूरत कोई वस्तु जबरदस्ती मिलेगी तो मूड खराब ही होगा। जहां वस्तु अपनी सार्थकता सिद्ध न करे, वहां वह वांछनीय नहीं होती।
आचार्य कहते हैं— चावलों की खेती पक जाने के बाद जल के भार से झुके हुए जलधरों की हमें कोई जरूरत नहीं है। मुझे प्रकाश मिल गया, मुझे शांति मिल गई और सबसे बड़ी बात यह है कि प्रकाश और शांति देने वाला मेरा भगवान् मुझे मिल गया। अब मुझे और क्या चाहिए? इस संदर्भ में आचार्य के कथ्य को हृदयंगम करें तो लगेगा— उन्होंने कोई व्यर्थ बात नहीं कही है, अव्यावहारिक बात नहीं कही है। अपनी अलौकिक भूमिका में बस यही कहा है कि मुझे अब और किसी की जरूरत नहीं है। क्योंकि मेरी खेती पक चुकी है।
*आचार्य मानतुंग के भक्ति-संभृत भावों को प्रस्तुति देने वाले एक मार्मिक श्लोक...* को समझेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः
प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻
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Source: © Facebook
🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂
🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन
👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला १६१* - *चित्त शुद्धि और कायोत्सर्ग १४*
एक *प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें*
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*
प्रकाशक
*Preksha Foundation*
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