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🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂
🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन
👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला १६३* - *चित्त शुद्धि और कायोत्सर्ग १६*
एक *प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें*
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*
प्रकाशक
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🙏 #आचार्य श्री #महाप्रज्ञ जी द्वारा प्रदत मौलिक #प्रवचन
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👉 अजमेर - "जल है तो कल है" पर चित्रकला प्रतियोगिता का आयोजन
प्रस्तुति - *🌻संघ संवाद 🌻*
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🌊 *नैतिकता की सुर-सरिता में जन-जन मन पावन हो* 💦
🙏 *पूज्यप्रवर अपनी धवल सेना के साथ प्रातःविहार करके 'मयलापुरा' (Karnataka) पधारे..*
🛣 *गुरुदेव का आज प्रातःकाल का विहार लगभग 07.50 कि.मी. का..*
⛩ *आज दिन का प्रवास: साक्षीरिका विद्या वर्षिणी स्कूल - मयलापुरा (कर्नाटक)*
*लोकेशन:*
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दिनांक: 13/06/2019
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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति
🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏
📖 *श्रृंखला -- 53* 📖
*ज्ञान की आराधना: प्रकाश की साधना*
गतांक से आगे...
आचार्य मानतुंग के भक्ति-संभृत भावों को प्रस्तुति देने वाला यह श्लोक कितना मार्मिक है—
*किं शर्वरिषु शशिनाह्नि विवस्वता वा,*
*युस्मन्मुखेन्दुदलितेषु तमस्सु नाथ!*
*निष्पन्नशालिवनशालिनिजीवलोके,*
*कार्यं कियज्जलधरैर्जलभारनम्रैः॥*
अगले श्लोक में आचार्य मानतुंग कहते हैं— प्रभो! आपमें ज्ञान का जो प्रकाश है, वह मुझे अन्यत्र दिखाई नहीं देता। ज्ञान ने आपमें जो स्थान पाया है, वह स्थान अन्यत्र उसे नहीं मिला। आपने उसे स्थान दे दिया या उसने अपना स्थान खोज लिया। अन्यत्र न तो उसे कोई स्थान देने वाला मिला, न उसे खोजने की जरूरत पड़ी। इसीलिए ज्ञान ने जैसे आपमें स्थान बनाया हुआ है, वैसा किसी दूसरे में वह अपना स्थान नहीं बना सका है। यह एक दुर्लभ बात है। वस्तुतः घोर साधना के बाद आपने यह प्रकाश उपलब्ध किया है।
इस श्लोक के साथ आचार्य मानतुंग एक दार्शनिक चर्चा प्रारंभ कर रहे हैं। वे कहते हैं— आप में ज्ञान का जो प्रकाश है, वह अन्यत्र नहीं है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि आपने आत्मा का जो दर्शन दिया, वैसा किसी ने नहीं दिया। भगवान् ऋषभ आत्मवाद के प्रवर्तक थे। उन्होंने आत्मा की खोज की, आत्मा का अनुसंधान और प्रतिपादन किया। दर्शन के इतिहास में आत्मा के सबसे पहले प्रवक्ता भगवान् ऋषभ ही हैं। उत्तरवर्ती दार्शनिकों ने भी आत्मा का प्रतिपादन किया, किंतु वह मेरी दृष्टि में समीचीन नहीं है। किसी ने आत्मा को सर्वव्यापी मान लिया, किसी ने आत्मा को अंगुष्ठ प्रमाण मान लिया। ये मान्यताएं युक्तियुक्त नहीं हैं। इसका कारण यही है कि जो प्रकाश आपको मिला है, वह उन्हें नहीं मिला।
दूसरा प्रमाण यह है— आपने आत्मा के कर्तृत्व का प्रतिपादन किया। आत्मा ही कर्ता है, कोई और नहीं है। हमारे सुख-दुःख की कर्ता हमारी आत्मा ही है। सुख-दुःख आत्मकृत हैं— ऐसा किसी दूसरे ने नहीं कहा। नैयायिक आदि दार्शनिकों ने कहा— 'कर्म आत्मा करती है, फल ईश्वर देता है।' सांख्य दर्शन ने कहा— 'आत्मा अकर्ता है, फल की भोक्ता नहीं है।' मानतुंग ने कहा— इन दर्शनों में विसंगति ही विसंगति दिखाई देती है। ऐसा कोई दर्शन नहीं, जिसमें संगति हो। बहुत कठिन है प्रारंभ से अंत तक, उपक्रम से उपसंहार तक सुसंगति हो। यह संभव तभी है, जब केवलज्ञान या आत्मा का साक्षात्कार हो जाए।
*विसंगति या विरोधाभासों को एक घटना के माध्यम से...* समझेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः
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