22.07.2019 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 22.07.2019
Updated: 22.07.2019

News in Hindi

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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति

🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏

📖 *श्रृंखला -- 82* 📖

*पवित्र आभामंडल*

गतांक से आगे...

आचार्य मानतुंग ने इस काव्य में आदिनाथ के शरीरातिशय का वर्णन किया है, पवित्रता भामंडल और आभामंडल की स्तुति की है—

*उच्चैरशोकतरुसंश्रितमुन्मयूख-*
*माभाति रूपममलं भवतो नितांतम्।*
*स्पष्टोल्लसत्किरणमस्तमोवितानम्,*
*बिम्बं रवेरिव पयोधरपार्श्ववर्ति।।*

भामंडल और आभामंडल से ही व्यक्तित्व की सही पहचान होती है। प्राचीन काल में योगी शिष्य बनाते थे। वे व्यक्ति के रंग-रूप को नहीं देखते थे, आकृति और बनावट को नहीं देखते थे। वे यह नहीं देखते थे कि अमुक व्यक्ति काला है अथवा गोरा है? सुंदर है अथवा असुंदर? यह देखते थे कि व्यक्ति का आभामंडल कैसा है? वे आभामंडल के आधार पर यह परीक्षा करते थे कि व्यक्ति शिष्य बनाने योग्य है अथवा नहीं है? आभामंडल का यह विज्ञान वस्तुतः व्यक्तित्व के विश्लेषण का विज्ञान है। मेरी (ग्रंथकार आचार्यश्री महाप्रज्ञ) एक पुस्तक का नाम है 'आभामंडल'। गुजरात के प्रसिद्ध नाटककार मेहता ने उसे पढ़ा। उन्होंने भावविभोर होते हुए कहा— 'मैंने अपने जीवन में हजारों-हजारों पुस्तकें पढ़ी हैं। मैं रोज पढ़ता हूं और पढ़ता ही चला जाता हूं। उनसे मुझे बहुत ज्ञान मिला है, किंतु आभामंडल से जैसा ज्ञान मिला, वैसा ज्ञान कहीं नहीं मिला।'

जिसको आभामंडल का ज्ञान हो जाता है, वह बहुत कुछ जान लेता है। आज चिकित्सा के क्षेत्र में डायग्नोसिस के अनेक साधन विकसित हो गए हैं, किंतु आभामंडल में जो प्रामाणिकता है, वह संभवतः किसी अन्य साधन में नहीं है। एक अंगुली अथवा अंगूठे के आभामंडल का फोटो लिया जाता है और उसके आधार पर बीमारी का पूरा निदान कर दिया जाता है। यह पता चल जाता है कि कौन-सी बीमारी है? शरीर मन और भाव के आरोग्य का रहस्य है— पवित्र आभामंडल।

आचार्य मानतुंग ने ऋषभ की इसी विशेषता को रेखांकित करते हुए कहा— आपका शरीर कैसा है? यह आपका आभामंडल बता रहा है। इस दुनिया में तीर्थंकर जैसा सुंदर कोई नहीं है। इसलिए नहीं है कि उन जैसा भामंडल और आभामंडल किसी को नहीं मिला। अनेक लोग बहुत सुंदर कहलाते हैं, किंतु उनके सौंदर्य का हेतु सुंदर रंग-रूप होता है, आभामंडल नहीं होता। हमने अनेक लोगों को देखा है— जिनका रंग-रूप बहुत सुंदर प्रतीत होता है, किंतु उनके पास जाकर व्यक्ति बैठता है तो उसका मन विषाद से भर जाता है, निषेधात्मक भाव उभर आते हैं। उस व्यक्ति के पास बैठने का मन नहीं होता। जिसका आभामंडल पवित्र होता है, वह सुंदर होता है, उसका रंग-रूप भले ही सुंदर न हो। ऐसे व्यक्ति के पास बैठने में प्रसन्नता और आनंद की अनुभूति होती है। आकर्षण और विकर्षण का हेतु है आभामंडल। जिसका आभामंडल मलिन होता है, उसके पास बैठने से बेचैनी और उदासी की स्थिति बन जाती है। जिसका आभामंडल पवित्र होता है, उसके पास बैठने से आत्म-संतोष और शांति की अनुभूति होती है। पवित्र आभामंडल से प्रस्फुटित होने वाली रश्मियों से वातावरण में शांति व्याप्त हो जाती है।

*आभामंडल के बारे में पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी से जुड़े एक घटना प्रसंग के माध्यम से...* समझेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 94* 📜

*आचार्यश्री भीखणजी*

*संघर्षों के निकष पर*

*बाह्य संघर्ष*

*क्यों भ्रांत करते हो?*

तत्कालीन अनेक मुनि तथा आचार्य स्वयं तो स्वामीजी का विरोध करते ही थे, पर बहुत बार अजैन व्यक्तियों को भी उनके विरोध में खड़ा करने का प्रयास करते रहते थे। बीलाड़ा में आचार्य रघुनाथजी ने ब्राह्मणों को सुलगा दिया कि मेरा शिष्य अविनीत हो गया है। वह हमें तो असाधु कहता ही है, किंतु ब्राह्मणों को दान देने में भी पाप कहता है।

ब्राह्मण इस पर बहुत क्रुद्ध हुए एकत्रित होकर वे स्वामीजी के पास आए और झगड़ा करने लगे।

स्वामीजी उनको समझाने के लिए कुछ कहें, उससे पूर्व ही वहां उपस्थित श्रावक रामचंद्रजी कटारिया बोले— 'स्वामीजी! आप तो प्रतिदिन लोगों को समझाते ही रहते हैं। इन्हें समझाने का अवसर मुझे दीजिए।'

स्वामीजी ने उनके सुझाव को स्वीकार कर लिया। उन्होंने तब आगंतुक ब्राह्मणों से कहा— 'स्वामीजी के मंतव्य को समझने से पूर्व यह पता तो अवश्य लगा ही लेना चाहिए कि वे लोग तो इसमें धर्म ही मानते हैं न?'

ब्राह्मण— 'धर्म नहीं मानते होते तो वे तुम्हारे मंतव्य के विरुद्ध हमें कुछ कह ही कैसे सकते थे?'

रामचंद्रजी— 'ठीक है, मेरे सामने उनके मुख से धर्म कहलवा दो, तो मैं पच्चीस मन गेहूं तुम्हें दान कर दूंगा।'

ब्राह्मण— 'हमारे साथ चलो, यह तो अभी कहलवा सकते हैं।'

ब्राह्मण और रामचंद्रजी आचार्य रघुनाथजी के पास आए। रामचंद्रजी ने कहा— 'आप धर्म कहे तो मैं पच्चीस मन गेहूं इन ब्राह्मणों को दान दे दूंगा। आप आज्ञा करें तो उनकी 'घूघरी' बनाकर खिला दूं या फिर आटा पिसाकर रोटी बनवाकर साथ में दो मन चनों के आटे की कढ़ी बनवा कर खिला दूं। जिसमें अधिक धर्म होता हो, वही बतलाएं।'

आचार्यजी— 'हम साधु हैं। हमें इस विषय में कुछ भी कहना नहीं कल्पता।'

रामचंद्रजी— 'जब आप स्वयं इसमें धर्म नहीं कहते हैं तो फिर स्वामी भीखणजी का नाम लेकर इन्हें क्यों भ्रांत करते हैं? वे तो आपसे कहीं अधिक कठोर चर्या का पालन करते हैं।'

आचार्यजी ने रामचंद्रजी की उक्त बात का कोई उत्तर नहीं दिया। उनके मौन से ब्राह्मणों ने तत्काल समझ लिया कि उन्हें मूर्ख बनाया गया है।

*स्वामी भीखणजी के प्रति द्वेष के कुछ और भी घटना प्रसंगों...* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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