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संसार भ्रमण का कारण स्वयं के द्वारा किए गए कर्म है - पूज्य आचार्य श्री 108 ज्ञानसागर जी मुनिराज
श्री चंद्रप्रभु दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र, तिजारा जी की पावन धरा पर श्री सिद्धचक्र महामंडल विधान के छठवें दिन पूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी मुनिराज ने अपनी पीयूष वाणी द्वारा कहा कि अनंत काल से संसारी जीव की यात्रा चल रही है। इस यात्रा का मुख्य कारण स्वयं के द्वारा किए हुए कर्म हैं, प्रति समय यह जीव राग- द्वेष- मोह के कारण कर्मों का बंध किया करता है। उन कर्मों का जब उदय होता है तो अलग अलग फल प्राप्त करता है। पुण्य कर्म का जब उदय होता है तब अनुकूलता रहती हैं, पाप कर्म का जब होता है तब प्रतिकूलता रहती है।
आज संसार में जो भी विषमता नजर आ रही हैं वह सब कर्मों के फल स्वरुप है। कोई सुखी नजर आता है, कोई दुखी नजर आता है, कोई स्वस्थ रहता है, कोई रोगों से ग्रसित हो जाते हैं, कोई निर्बल नजर आते हैं, कोई बहुत सुंदर लगते हैं, कोई बहुत कुरूप लगते हैं। किसी के पास अच्छा धन होता है किसी के पास धन नहीं होता इन सभी का एक ही कारण है वह है कर्म।
कोई दूसरा व्यक्ति हमें सुखी दुखी नहीं करता सामने वाला व्यक्ति तो मात्र निमित्त होता है। मूल में हमारे ही कर्म का उदय होता है। अच्छे भावों से अच्छे कर्म का बंध होता है, बुरे भावों से बुरे कर्म का बंध होता है। व्यक्ति चाहे तो अच्छे भाव से पाप कर्मों को पुण्य में परिवर्तित कर सकता है, और बुरे भावों से पुण्य कर्म को पाप रूप बदल सकता है।
गृहस्थ को अपने परिणामों की संभाल करनी चाहिए। बाहरी पदार्थों की संभाल तो अब तक बहुत की है, पर भावों की संभाल नहीं की। यही वजह है कि अनंत काल से ही चारों गति में परिभ्रमण कर रहा है। सिद्ध परमात्मा ने कर्म बंधनों से मुक्त होकर संसार परिभ्रमण हमेशा हमेशा के लिए छोड़ दिया है। अनंतानंद सिद्धों का आज आप 256 अर्घ चढ़ाकर गुणगान कर रहे हैं।