23.08.2019 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 23.08.2019
Updated: 24.08.2019

Update

👉 हिसार ~ अणुव्रत समिति द्वारा नशामुक्ति का प्रचार प्रसार
👉 कोटा ~ हैप्पी एन्ड हार्मोनियस फैॅमिली विषय पर सेमिनार का आयोजन
👉 सरदारशहर ~ संथारा सानन्द गतिमान
👉 सादुलपुर ~ अणुव्रत समिति द्वारा "नशा मुक्ति अभियान "
👉 सेलम - "स्वस्थ आहार का सेवन, श्रेष्ठ आरोग्य हर क्षण" कार्यशाला आयोजन
👉 ईरोड - "स्वस्थ आहार का सेवन, श्रेष्ठ आरोग्य हर क्षण" कार्यशाला आयोजन
👉 बैंगलोर ~ अणुव्रत समिति द्वारा नशामुक्ति का प्रचार प्रसार

प्रस्तुति - *🌻संघ संवाद 🌻*

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🏭 *_आचार्य तुलसी महाप्रज्ञ चेतना सेवा केन्द्र,_ _कुम्बलगुड़ु, बेंगलुरु, (कर्नाटक)_*

💦 *_परम पूज्य गुरुदेव_* _अमृत देशना देते हुए_

📚 *_मुख्य प्रवचन कार्यक्रम_* _की विशेष_
*_झलकियां_ _________*

🌈🌈 *_गुरुवरो घम्म-देसणं_*

⌚ _दिनांक_: *_23 अगस्त 2019_*

🧶 _प्रस्तुति_: *_संघ संवाद_*

https://www.facebook.com/SanghSamvad/

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News in Hindi

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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 122* 📜

*आचार्यश्री भीखणजी*

*जीवन के विविध पहलू*

*7. आचार-हीनता के विरोधी*

*कहो साधु किसका सगा?*

विभिन्न देशों, विभिन्न जातियों और विभिन्न प्रकृतियों के व्यक्ति संयम ग्रहण करके एक संघ में रहते हैं, तब उनके एकत्व का माध्यम एकमात्र आगम-निर्दिष्ट आचार ही होता है। उनका पारस्परिक स्नेह-भाव भी मोह-भाव न होकर केवल आचार-ऐक्य का प्रतीक ही होता है। किसी एक भी आचारहीन व्यक्ति को संघ में महत्त्व प्रदान करना सारे संघ की प्रतिष्ठा को विनष्ट कर देना है। स्वामीजी इस विषय में अत्यंत सावधान थे। उनका कहना था—

*कहो साधु किसका सगा, तटकै तोड़ै नेह।*
*आचार स्यूं हिलमिलै, अणाचारी सूं छेह।।*

वे विशुद्ध आचार के ही पक्षपाती थे। आचारहीनता को कभी सहन नहीं करते थे। उन्होंने अपने संघ के अनेक साधुओं तथा आर्याओं को इसीलिए पृथक् कर दिया था कि वे आचार में परिपूर्ण नहीं थे। उस समय उनके पास साधु-साध्वियों की संख्या बहुत कम थी, किंतु उन्होंने उसकी कोई परवाह नहीं की।

*पांच का सम्बन्ध-विच्छेद*

चंडावल में फत्तूजी आदि पांच आर्याओं को स्वामीजी ने कहा— 'आवश्यकतानुसार कपड़ा ले लो।' उन्होंने जितनी आवश्यकता बतलाई, स्वामीजी ने उतना कपड़ा दे दिया। वे उसे लेकर अपने स्थान पर चली गईं। पीछे से स्वामीजी को संदेह हुआ कि कहीं उन्होंने कल्प से अधिक कपड़ा तो नहीं ले लिया? तत्काल मुनि अखैरामजी को भेजकर साध्वियों से वह कपड़ा वापस मंगवाया और उसे नापा। वह कल्प से अधिक निकला। स्वामीजी ने तब उन्हें उपालंभ तो दिया ही पर आगामी काल के लिए भी कल्प-विषयक अप्रतीति हो जाने के कारण पांचों को अपने संघ से पृथक् कर दिया।

*रातभर पीसा*

आचारहीन साधुओं और श्रावकों के लिए स्वामीजी का कथन था कि जिस प्रकार आंधी से बचाव किए बिना घट्टी पीसने बैठे, तो रात भर पीसने के पश्चात् भी उसके हाथ विशेष आटा नहीं लगता। उसी प्रकार दोषों से बचाव किए बिना कोई भी साधु या श्रावक अपने व्रतों का विशेष लाभ प्राप्त नहीं कर सकता। वह तो केवल 'रात भर पीसा, ढकनी में उसेरा' वाली कहावत ही चरितार्थ करता है।

*सब काला ही काला*

आचारहीन और सम्यकत्वहीन व्यक्ति स्वामीजी द्वारा की गई समीक्षाओं से बौखलाकर कहते— 'भीखणजीजी हमारा समर्थन नहीं करके केवल विरोध ही क्यों करते हैं? उन्हें यदि हमारी कुछ बातें अच्छी नहीं लगतीं, तो उनको टाल देना चाहिए।' स्वामीजी ने उदाहरण देते हुए कहा— 'एक बार कुछ अंधों ने मिलकर गोठ करने का विचार किया। उसके लिए अमावस की रात्रि का समय उपयुक्त समझा गया। कोयलों को पीसकर आटे की जगह काम में लिया गया। उसे काली हांडी में डालकर राब बनाई गई। बनाने वाले तो अंधे थे ही, पर खाने और परोसने वाले भी सब अंधे ही थे। जब सब अपनी-अपनी थाली को सामने लेकर खाने बैठे, तब खंखारा करते हुए एक-दूसरे को कहने लगे— 'सावधान! कोई काला-कलूटा न आ जाए, सब कोई ध्यान रखकर उसे टालते रहना।' अब बताओ, उसमें से क्या टाले और क्या न टाले? इसी प्रकार जहां न आचार-विशुद्धि का ध्यान दिया जाता है और न सम्यकत्व-शुद्धि पर, वहां तो सब काला ही काला एकत्रित हो जाता है। उसमें से क्या टालें और क्या न टालें?'

*आचार-विशुद्धि के प्रति स्वामी भीखणजी की तटस्थता को कुछ और प्रसंगों के माध्यम से...* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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जैन धर्म के आदि तीर्थंकर *भगवान् ऋषभ की स्तुति* के रूप में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में समान रूप से मान्य *भक्तामर स्तोत्र,* जिसका सैकड़ों-हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन श्रद्धा के साथ पाठ करते हैं और विघ्न बाधाओं का निवारण करते हैं। इस महनीय विषय पर परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की जैन जगत में सर्वमान्य विशिष्ट कृति

🙏 *भक्तामर ~ अंतस्तल का स्पर्श* 🙏

📖 *श्रृंखला -- 110* 📖

*नाम में छिपी है नागदमनी*

गतांक से आगे...

एक साधक के पास बहुत सारे पशु-पक्षी बैठे थे। कुछ क्षण बाद दूसरा साधक आया। उसके आते ही सारे पशु भाग गए। सारे पक्षी उड़ गए। विस्मित साधक ने पूछा— यह क्या हुआ? अब तक सब बैठे थे, मेरे आते ही सारे क्यों चले गए? साधक ने मुस्कुराते हुए कहा— तुमने मैत्री की साधना नहीं की है, अभय की साधना नहीं की है। जब तक मैत्री का वातावरण तुम्हारे भीतर नहीं बनता, तब तक कोई नहीं टिक पाएगा।

पशु-पक्षियों में बहुत सूक्ष्म ज्ञान होता है। उनका स्थूल ज्ञान, बाह्य ज्ञान बहुत नहीं होता किंतु भीतर का ज्ञान बहुत शक्तिशाली होता है। वे दूर से ही यह पहचान लेते हैं— सामने आने वाला व्यक्ति कैसा है? वह चोट पहुंचाने के लिए आ रहा है अथवा मैत्री करने के लिए आ रहा है? उसके भाव कलुष हैं अथवा निर्मल? एक वनस्पति विशेषज्ञ ने प्रयोग किया। एक कमरे में कुछ पौधे रखे। एक व्यक्ति को कहा— तुम जाओ पांच-सात पत्तियां तोड़ लाओ। वह व्यक्ति गया, पत्तियां तोड़ लाया। पौधों की प्रतिक्रिया को सूचित करने वाले उपकरण लगाए हुए थे। उस कमरे में दूसरा वर्ग गया। पौधे शांत रहे, कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। इस बार पांच व्यक्ति गए, उनमें एक व्यक्ति वह था, जिसने पत्तियां तोड़ी थी। कमरे में प्रवेश करते ही पौधों ने प्रतिक्रिया शुरू कर दी। गैल्वेनोमीटर की सुई घूम गई। दुश्मन के आगमन की आहट पाते ही वह कांप उठा।

जहां मैत्री की साधना होती है, वहां भय नहीं होता, शत्रुता नहीं होती। जिसके मैत्री सिद्ध हो जाती है, वह सर्प से, सिंह से अथवा किसी भी प्राणी से भयभीत नहीं होता। जहां मैत्री सिद्ध होती है, वहां अहिंसा सिद्ध होती है। जहां मैत्री सिद्ध होती है, वहां अभय घटित होता है। महर्षि पतंजलि ने कहा था— जहां अहिंसा सिद्ध होती है, वहां वैर का त्याग हो जाता है। समस्या यह है— हम अहिंसा और मैत्री का संकल्प करते हैं किंतु उसे साधते नहीं है। जब तक संकल्प संकल्प बना रहेगा, सिद्धि को प्राप्त नहीं होगा, तब तक अहिंसा और मैत्री का अवतरण नहीं होगा, वैर-विरोध का शमन नहीं होगा। यह जरूरी है कि संकल्प सिद्धि का वरण करे। अनाज भी तब तक कच्चा रहता है, जब तक उसे पकाया नहीं जाता। केवल मिट्टी अथवा धातु के पात्र में रख देने मात्र से अनाज नहीं पकता। वह तब पकता है, जब उसे आंच दी जाती है। जैसे-जैसे आंच उस अन्न तक पहुंचती है, कच्चा अनाज पक जाता है, खाने योग्य बन जाता है। पकाने के लिए, सिद्धि के लिए आवश्यक है कि मैत्री के संकल्प को अनुप्रेक्षा की आंच मिले। अनुप्रेक्षा की आंच में पककर ही मैत्री का संकल्प सिद्धि को उपलब्ध हो सकता है।

नागदमनी का एक अर्थ हो सकता है— मैत्री की साधना, राग द्वेष को कम करना, उपशांत अथवा क्षीण करना। जिसका राग द्वेष क्षीण हो जाता है, उसमें अपने आप सब प्राणियों के प्रति मैत्री का भाव जाग जाता है, अभय और अहिंसा की प्रतिष्ठा हो जाती है। कोई व्यक्ति उसका शत्रु नहीं होता, आक्रांता नहीं होता। चारों ओर मैत्री का भाव विकस्वर हो जाता है भय और शत्रुता का भाव विलीन हो जाता है। ऐसी स्थिति में भयंकर विषधर भी मैत्री की धारा से अभिस्नात हो जाता है।

*भय के एक और हेतु...* के बारे में जानेंगे और समाधान पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति -- 🌻 संघ संवाद 🌻
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'सम्बोधि' का संक्षेप रूप है— सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र। यही आत्मा है। जो आत्मा में अवस्थित है, वह इस त्रिवेणी में स्थित है और जो त्रिवेणी की साधना में संलग्न है, वह आत्मा में संलग्न है। हम भी सम्बोधि पाने का मार्ग प्रशस्त करें आचार्यश्री महाप्रज्ञ की आत्मा को अपने स्वरूप में अवस्थित कराने वाली कृति 'सम्बोधि' के माध्यम से...

🔰 *सम्बोधि* 🔰

📜 *श्रृंखला -- 19* 📜

*अध्याय~~1*

*॥स्थिरीकरण॥*

💠 *भगवान् प्राह*

*35. नाहं गन्तुं समर्थोस्मि, मुक्तिमार्गं सुदुश्चरम्।*
*यत्र कष्टानि सह्यानि, नानारूपाणि सन्ततम्।।*

*36. सर्वे स्वार्थवशा एते, मुनयोऽन्यं न जानते।*
*भीम सुदुश्चरो घोरो, निर्ग्रन्थानां तपोविधिः।।*

*37. युक्तोऽयं किमभिप्रायः, मोहमूलं विजानतः।*
*देहे मुग्धा जना लोके, नानाकष्टेषु शेरते।।*
*(त्रिभिर्विशेषकम्)*

तूने सोचा— मुक्ति का मार्ग सुदुश्चर है। उस पर चलनेवाले को निरंतर नाना प्रकार के कष्ट सहन करने होते हैं। मैं उस पर चलने में समर्थ नहीं हूं।

ये सब साधु स्वार्थी हैं, दूसरे की चिंता नहीं करते। निर्ग्रंथों की तपस्या करने की विधि बड़ी भयंकर, सुदुश्चर और घोर है।

मोह के मूल को जाननेवाले के लिए क्या ऐसा सोचना उचित है? क्या तू नहीं जानता कि शरीर में आसक्ति रखनेवाले लोग नाना प्रकार के कष्ट भोगते हैं?

*38. युक्तं नैतत् तवायुष्यमन्! तत्त्वं वेत्सि हिताहितम्।*
*पूर्वजन्मस्थितिं स्मृत्वा, निश्चलं कुरु मानसम्।।*

आयुष्मान! तेरे लिए ऐसा सोचना उचित नहीं है। क्या हित है और क्या अहित— इस तत्त्व को तू जानता है। तू पिछले जन्म की घटना को याद करके अपने मन को निश्चल बना।

*मेघकुमार का स्थिरीकरण... पूर्वजन्म का साक्षात् दर्शन... जिज्ञासा... समर्पण की भावाभिव्यक्ति और कृतज्ञता...* आगे के श्लोकों में पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली श्रृंखला में... क्रमशः...

प्रस्तुति- 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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💢 *आचार्य श्री महाश्रमण द्वारा उद्घोषित पर्युषण महापर्व कार्यक्रम*

♦ पर्युषण काल मे आयोज्य दिवस की सूची

♦ पर्युषण में प्रतिदिन करणीय आराधना

♦ स्मारणा

प्रस्तुति -🌻 *संघ संवाद*🌻

Video

🧘‍♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘‍♂

🙏 #आचार्य श्री #महाप्रज्ञ जी द्वारा प्रदत मौलिक #प्रवचन

👉 *मैं #मानसिक #संतुलन चाहता हूँ*: #श्रंखला १*

एक #प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*

प्रकाशक
#Preksha #Foundation
Helpline No. 8233344482

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🧘‍♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘‍♂

🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन

👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला २३३* - *चित्त शुद्धि और लेश्या ध्यान २*

एक *प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेकर देखें*
आपका *जीवन बदल जायेगा* जीवन का *दृष्टिकोण बदल जायेगा*

प्रकाशक
*Preksha Foundation*
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