08.09.2019 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 12.09.2019
Updated: 24.09.2019
👉 बोराला (महा) - कर्मणा जैन क्षेत्र में संवत्सरी पर्व की आराधना
👉 सूरत - लोगस्स पाठ व अर्हत् वंदना की लिखित प्रतियोगिता का आयोजन
👉 ओरंगाबाद - विकास महोत्सव का आयोजन
👉 रायपुर - तप अभिनन्दन समारोह का आयोजन
👉 जींद - विकास महोत्सव का आयोजन
👉 पिलीबंगा ~ हैप्पी एन्ड हॉर्मोनियस फैमिली कार्यशाला का आयोजन
👉 हुबली ~ विकास महोत्सव का आयोजन
👉 टिटलागढ़ ~ विकास महोत्सव का आयोजन
👉 हुबली ~ मंगलभावना समारोह

प्रस्तुति: 🌻 *संघ संवाद* 🌻
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🏭 *_आचार्य तुलसी महाप्रज्ञ चेतना सेवा केन्द्र,_ _कुम्बलगुड़ु, बेंगलुरु, (कर्नाटक)_*

💦 *_परम पूज्य गुरुदेव_* _अमृत देशना देते हुए_

📚 *_मुख्य प्रवचन कार्यक्रम_* _की विशेष_
*_झलकियां_ _________*

🌈🌈 *_गुरुवरो घम्म-देसणं_*

⌚ _दिनांक_: *_08 सितंबर 2019_*

🧶 _प्रस्तुति_: *_संघ संवाद_*

https://www.facebook.com/SanghSamvad/

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आचार्य तुलसी महाप्रज्ञ
चेतना सेवा केन्द्र,
कुम्बलगुड़ु,
बेंगलुरु,


महाश्रमण चरणों में

📮
: दिनांक:
08 सितम्बर 2019

🎯
: प्रस्तुति:
🌻 *संघ संवाद* 🌻

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🙏🌸*⃣🌸🙏🌸*⃣🌸🙏🌸*⃣

'सम्बोधि' का संक्षेप रूप है— सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र। यही आत्मा है। जो आत्मा में अवस्थित है, वह इस त्रिवेणी में स्थित है और जो त्रिवेणी की साधना में संलग्न है, वह आत्मा में संलग्न है। हम भी सम्बोधि पाने का मार्ग प्रशस्त करें आचार्यश्री महाप्रज्ञ की आत्मा को अपने स्वरूप में अवस्थित कराने वाली कृति 'सम्बोधि' के माध्यम से...

🔰 *सम्बोधि* 🔰

📜 *श्रृंखला -- 33* 📜

*अध्याय~~2*

*॥सुख-दुःख मीमांसा॥*

💠 *भगवान् प्राह*

*52. पुण्यपापे प्रजायते, हेतुभूते प्रमुख्यतः।*
*सुखदुःखानुभूत्योश्च, सामग्र्यां नैव निश्चितिः।।*

पुण्य मुख्यतः सुख— प्रिय संवेदन की अनुभूति का हेतु बनता है और पाप मुख्यतः दुःख— अप्रिय संवेदन की अनुभूति का हेतु बनता है। पुण्य और पाप सुख-दुःख की साधन-सामग्री में हेतु बनें, यह निश्चित नियम नहीं है।

*53. द्रव्यं क्षेत्रं तथा कालः, व्यवस्था बुद्धिपौरुषे।*
*एतानि हेतुतां यान्ति, पुण्यपापोदये ध्रुवम्।।*

पुण्य और पाप के उदय में द्रव्य, क्षेत्र, काल, व्यवस्था, बुद्धि और पौरुष— ये निश्चित हेतु बनते हैं।

*54. धार्मिको नार्थसंपन्नः, धनाढ्यः स्यादधार्मिकः।*
*नेति धर्मस्य वैफल्यं, फलं तस्यात्मनि स्थितम्।।*

धर्म का आचरण करनेवाला व्यक्ति अर्थ-संपन्न नहीं है और धर्म का आचरण न करनेवाला अर्थ-संपन्न है, इसमें धर्म की विफलता नहीं है। धर्म का फल है आत्मोदय। वह आत्मा में ही स्थित है।

*55. अनावृतं भवेद् ज्ञानं, दर्शनं स्यादनावृतम्।*
*प्रस्फुरेद् सहजानन्दः, वीर्यं स्यादपराजितम्।।*

*56. प्रवर्धते परा शान्तिः, धृतिः संतुलनं क्षमा।*
*फलान्यमूनि धर्मस्य, फलं तस्यास्ति नो धनम्।।*
*(युग्मम्)*

धर्म से ज्ञान और दर्शन अनावृत होते हैं, सहज आनंद स्फुरित होता है और वीर्य अपराजेय होता है।

धर्म से परम शांति, धृति, संतुलन और क्षमा— ये गुण बढ़ते हैं। ये सब धर्म के फल हैं। धन मिलना धर्म का फल नहीं है।

💠 *मेघः प्राह*

*57. कथमात्मतुलावादः, भगवंस्तव सम्मतः।*
*भिन्नानि सन्ति कर्माणि, कृतानि प्राणिनामिह।।*

मेघ ने पूछा— भगवन्! प्राणियों के अपने कृत कर्म भिन्न-भिन्न होते हैं। ऐसी स्थिति में आत्मतुलावाद— आत्मौप्यवाद का सिद्धांत आपको सम्मत क्यों है?

*आत्म-तुलावाद की स्वीकृति के हेतु... अहमिन्द्र की स्थापना से कर्मवाद का विघटन...* इत्यादि के बारे में पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... आगे के श्लोकों में... हमारी अगली श्रृंखला में... क्रमशः...

प्रस्तुति- 🌻 *संघ संवाद* 🌻

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🧘‍♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘‍♂

🙏 #आचार्य श्री #महाप्रज्ञ जी द्वारा प्रदत मौलिक #प्रवचन

👉 *#कैसे #सोचें *: #श्रंखला ३*

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प्रकाशक
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Helpline No. 8233344482

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🙏 *आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत मौलिक प्रवचन

👉 *प्रेक्षा वाणी: श्रंखला २४९* - *चित्त शुद्धि और लेश्या ध्यान १८*

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