Updated on 28.05.2020 23:31
🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂🙏 #आचार्य श्री #महाप्रज्ञ जी द्वारा प्रदत मौलिक #प्रवचन
👉 *#तनाव और #ध्यान* : *श्रृंखला १*
एक #प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लें।
देखें, जीवन बदल जायेगा जीने का दृष्टिकोण बदल जायेगा।
प्रकाशक
#Preksha #Foundation
Helpline No. 8233344482
📝 धर्म संघ की सम्पूर्ण एवं सटीक जानकारी आप तक पहुंचाए
https://www.facebook.com/io/
🌻 #संघ #संवाद 🌻
Updated on 28.05.2020 10:05
👉 दिल्ली-एनसीआर एवं यू पी अंचल द्वारा दो दिवसीय प्रशिक्षक कार्यशाला 'उत्कर्ष' का आंचलिक स्तर पर आयोजन👉 दिल्ली - अणुव्रत समिति कार्यसमिति सदस्या द्वारा सेवा कार्य
प्रस्तुति : 🌻 *संघ संवाद* 🌻
Updated on 28.05.2020 08:25
🪔🪔🪔🪔🙏🌸🙏🪔🪔🪔🪔जैन परंपरा में सृजित प्रभावक स्तोत्रों एवं स्तुति-काव्यों में से एक है *भगवान पार्श्वनाथ* की स्तुति में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित *कल्याण मंदिर स्तोत्र*। जो जैन धर्म की दोनों धाराओं— दिगंबर और श्वेतांबर में श्रद्धेय है। *कल्याण मंदिर स्तोत्र* पर प्रदत्त आचार्यश्री महाप्रज्ञ के प्रवचनों से प्रतिपादित अनुभूत तथ्यों व भक्त से भगवान बनने के रहस्य सूत्रों का दिशासूचक यंत्र है... आचार्यश्री महाप्रज्ञ की कृति...
🔱 *कल्याण मंदिर - अंतस्तल का स्पर्श* 🔱
🕉️ *श्रृंखला ~ 51* 🕉️
*16. विग्रह शमन का मार्ग*
गतांक से आगे...
सिद्धसेन इस प्रश्न में उलझ गए— उस व्यक्ति की स्तुति कैसे करूं, जो व्यक्ति अपने आश्रय देने वाले को भी समाप्त कर देता है। शरीर तो आश्रय देने वाला है। उसी शरीर को, आश्रयदाता को आप समाप्त कर देते हैं। यह कैसे?
अगर रूपक की भाषा में कहूं तो शायद आचार्य ने भगवान् पार्श्व से पूछा होगा— भगवन्! आप यह क्या कर रहे हैं? इसका मैं क्या समाधान दूं? एक ओर मैं आपके गुणों की स्तवना कर रहा हूं, आपकी कृपालुता, दयालुता की बात कर रहा हूं। दूसरी ओर आप शरीर का नाश कर रहे हैं, सदेह को विदेह बना रहे हैं। यह स्पष्ट विरोधाभास है।
कभी-कभी आदमी उलझ जाता है। एक मालिक ने अपने दसवर्षीय नौकर से कहा— तुम बाजार जाओ और एक शीशा ले आओ, जिसमें मेरा मुंह अच्छा दिखाई दे सके। नौकर पैसा लेकर बाजार गया। जहां-जहां दर्पण दिखाई दिए, वहां सब जगह गया। एक घंटा घूमकर खाली हाथ आ गया।
मालिक ने पूछा— 'अरे! शीशा नहीं लाया?'
'नहीं ला सका।'
'क्यों? क्या शीशा नहीं मिला?'
'मालिक! आपने कहा था कि मेरा मुंह अच्छी तरह दिखाई दे, वैसा दर्पण लाना। मैंने तो हर शीशे को ध्यान से देखा, सबमें मेरा ही चेहरा दिखाई दे रहा था। आपका चेहरा तो किसी भी शीशे में दिखाई नहीं दे रहा था। मैं शीशा कैसे लाता?'
छोटे बच्चे में समझ कम होती है इसलिए वह उलझ जाता है, समस्याग्रस्त हो जाता है। किन्तु प्रतिभा के धनी आचार्य सिद्धसेन भी उलझ गए— भगवन्! मैं आपकी दया और कृपा की बात कैसे बताऊं?
आचार्य ने शायद समाधान पाने के लिए कुछ विराम किया होगा। पूज्य कालूगणी फरमाते थे— जब मैं सूत्रों का वाचन करता तब कोई समस्या आती अथवा कोई बात समझ में नहीं आती तो उस समय उसे छोड़ देता। दूसरे दिन पुनः पढ़ता तो समाधान सामने आ जाता। उनको ऐसा प्रतीत होता कि रात को मघवागणी आते हैं और मेरा समाधान कर देते हैं। हमारे स्थूल मन के प्रश्नों का हमारा सूक्ष्म मन अथवा अंतर्मन समाधान देता है। कभी जागृत अवस्था में, कभी स्वप्नावस्था में।
समस्या के समाधान का एक उपाय है गहराई में जाना। गहराई में गए बिना, भीतर गए बिना समस्या का समाधान नहीं मिल सकता। समस्या का समाधान पाने के लिए डुबकियां लगानी पड़ती हैं, गोता लगाना आवश्यक होता है। आचार्य गहरे ध्यान में गए और समाधान की रश्मि उपलब्ध हो गई। उन्होंने कहा— यह दुनिया का नियम है कि जो मध्यवर्ती होता है वह इधर-उधर की बात नहीं देखता। किसने अच्छा किया, किसने बुरा किया— कुछ भी नहीं देखता। विग्रह के दो अर्थ होते हैं— एक है शरीर और दूसरा है युद्ध, लड़ाई, संघर्ष, झगड़ा। जो मध्यवर्ती है वह तटस्थ और मध्यस्थ होता है। मध्यस्थ का काम है विग्रह को समाप्त करना, लड़ाई-झगड़े को समाप्त करना। प्रभो! मैं बिना मतलब उलझ गया। शरीर का एक नाम है विग्रह। सारा विग्रह कहां से पैदा होता है ? सारे ममत्व का उद्गम स्थल कौन है? शरीर। आसक्ति का उद्गम स्थल कौन है? शरीर। परिग्रह का उद्गम स्थल कौन है? शरीर।
*आचार्य सिद्धसेन को अपनी समस्या का क्या समाधान मिला...?* जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
🪔🪔🪔🪔🙏🌸🙏🪔🪔🪔🪔
🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹
शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 294* 📜
*श्रीमद् जयाचार्य*
*महान् योजनाएं*
*2. गाथा-प्रणाली*
*गाथाओं का लेखा*
गाथाओं के आय-व्यय का लेखा प्रारम्भ में तो यथावकाश किया जाता रहा, पर कालान्तर में 'मर्यादा-महोत्सव' के अवसर पर किया जाने लगा, क्योंकि साधु-वर्ग प्रायः उसी समय एकत्रित होने लगा था। कुछ साधुओं को लेखा-कार्य के लिए नियुक्त कर दिया जाता। वे दीक्षा-वृद्ध या 'साझ' के क्रम से उस कार्य को सम्पन्न कर देते।
लेखा कराने से पहले और लेखा कराने के पश्चात् अपना 'लेखा-पत्र' आचार्य को दिखाना होता। कोई भी व्यक्ति अपनी लिखित प्रति की गाथाएं तभी प्राप्त कर सकता, जब वह आचार्य को दिखाकर उसके लिए स्वीकृति प्राप्त कर लेता। उस स्वीकृति के पश्चात् वह प्रति पर संघ को समर्पण करने के लिए निर्णीत मुद्रांकन करता और फिर लेखाकर्ताओं के पास जाकर उसकी गाथाएं जमा कराता।
लेखाकार लिखित प्रति के विभिन्न पृष्ठों के चार-पांच पंक्तियों के अक्षर गिनता और उन्हीं में से मध्यम कोटि की पंक्ति के आधार पर पहले एक पत्र की गाथा-संख्या निर्णीत करता, फिर उसी आधार से पूरी प्रति की गाथा-संख्या फला लेता। एक प्रति की गणना कर लेने पर वस्तुतः उस ग्रंथ की ही गाथा-संख्या निर्णीत हो जाती।
वर्तमान वर्ष में लेखा कराने वाले व्यक्ति के किस आधार से कितनी गाथाओं का आय-व्यय हुआ, उसका पूरा विवरण देते हुए शेष जमा गाथाओं की संख्या लिखकर एक पत्र लेखा कराने वाले को दे दिया जाता। तद्वर्षीय प्रत्येक व्यक्ति की जमा राशि एक दूसरे पत्र में भी लिख ली जाती। वह पत्र आचार्यश्री के पास रहता।
*व्यक्तिगत लेखन*
कोई भी साधु अपने व्यक्तिगत उपयोग के लिए कोई प्रति लिखना चाहता तो वह स्वतंत्रापूर्वक लिख सकता था, परन्तु उससे वह न तो गाथाएं प्राप्त कर सकता, न उस पर संघीय मुहर लगा सकता और न उसे संघीय भार में ही गिन सकता था। उसके दिवंगत हो जाने के पश्चात् उसकी व्यक्तिगत प्रतियों को आचार्य आवश्यक समझते तो संघीय बना सकते थे, अन्यथा व्यक्तिगत उपयोग के लिए मांगने वाले को भी दे सकते थे। किसी के न लेने पर वे स्वतः संघीय बन जातीं। खराब अक्षर लिख लाने पर या अनावश्यक प्रति लिख लाने पर जो प्रति अस्वीकृत कर दी जाती, वह भी उसके अपने व्यक्तिगत उपयोग के लिए ही रह जाती। वह उसे किसी दूसरे साधु को भी प्रदान कर सकता था।
*वस्तु-विनिमय का माध्यम*
गाथा-प्रणाली धीरे-धीरे विकास करती रही। उसमें अनेक पूरक बातें समय-समय पर जुड़ती चली गईं। जब वह मुनि-जनों के परस्पर वस्तु-विनिमय का माध्यम बनी, तब उसे धन का व्यवहार्य रूप भी प्राप्त हो गया। उस माध्यम से व्यक्तिगत प्रतियों का आदान-प्रदान किया जाने लगा। जो व्यक्ति स्वयं नहीं लिख सकते थे, परन्तु किसी ग्रन्थ को व्यक्तिगत रूप से अपनी निश्रा में रखना चाहते थे, तो वे यथावश्यक गाथाएं देकर किसी से भी यथेष्ट प्रतियां प्राप्त कर सकते थे।
*'गाथा-प्रणाली' की योजना तेरापंथ-संघ के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुई...* विस्तार से जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹
शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 294* 📜
*श्रीमद् जयाचार्य*
*महान् योजनाएं*
*2. गाथा-प्रणाली*
*गाथाओं का लेखा*
गाथाओं के आय-व्यय का लेखा प्रारम्भ में तो यथावकाश किया जाता रहा, पर कालान्तर में 'मर्यादा-महोत्सव' के अवसर पर किया जाने लगा, क्योंकि साधु-वर्ग प्रायः उसी समय एकत्रित होने लगा था। कुछ साधुओं को लेखा-कार्य के लिए नियुक्त कर दिया जाता। वे दीक्षा-वृद्ध या 'साझ' के क्रम से उस कार्य को सम्पन्न कर देते।
लेखा कराने से पहले और लेखा कराने के पश्चात् अपना 'लेखा-पत्र' आचार्य को दिखाना होता। कोई भी व्यक्ति अपनी लिखित प्रति की गाथाएं तभी प्राप्त कर सकता, जब वह आचार्य को दिखाकर उसके लिए स्वीकृति प्राप्त कर लेता। उस स्वीकृति के पश्चात् वह प्रति पर संघ को समर्पण करने के लिए निर्णीत मुद्रांकन करता और फिर लेखाकर्ताओं के पास जाकर उसकी गाथाएं जमा कराता।
लेखाकार लिखित प्रति के विभिन्न पृष्ठों के चार-पांच पंक्तियों के अक्षर गिनता और उन्हीं में से मध्यम कोटि की पंक्ति के आधार पर पहले एक पत्र की गाथा-संख्या निर्णीत करता, फिर उसी आधार से पूरी प्रति की गाथा-संख्या फला लेता। एक प्रति की गणना कर लेने पर वस्तुतः उस ग्रंथ की ही गाथा-संख्या निर्णीत हो जाती।
वर्तमान वर्ष में लेखा कराने वाले व्यक्ति के किस आधार से कितनी गाथाओं का आय-व्यय हुआ, उसका पूरा विवरण देते हुए शेष जमा गाथाओं की संख्या लिखकर एक पत्र लेखा कराने वाले को दे दिया जाता। तद्वर्षीय प्रत्येक व्यक्ति की जमा राशि एक दूसरे पत्र में भी लिख ली जाती। वह पत्र आचार्यश्री के पास रहता।
*व्यक्तिगत लेखन*
कोई भी साधु अपने व्यक्तिगत उपयोग के लिए कोई प्रति लिखना चाहता तो वह स्वतंत्रापूर्वक लिख सकता था, परन्तु उससे वह न तो गाथाएं प्राप्त कर सकता, न उस पर संघीय मुहर लगा सकता और न उसे संघीय भार में ही गिन सकता था। उसके दिवंगत हो जाने के पश्चात् उसकी व्यक्तिगत प्रतियों को आचार्य आवश्यक समझते तो संघीय बना सकते थे, अन्यथा व्यक्तिगत उपयोग के लिए मांगने वाले को भी दे सकते थे। किसी के न लेने पर वे स्वतः संघीय बन जातीं। खराब अक्षर लिख लाने पर या अनावश्यक प्रति लिख लाने पर जो प्रति अस्वीकृत कर दी जाती, वह भी उसके अपने व्यक्तिगत उपयोग के लिए ही रह जाती। वह उसे किसी दूसरे साधु को भी प्रदान कर सकता था।
*वस्तु-विनिमय का माध्यम*
गाथा-प्रणाली धीरे-धीरे विकास करती रही। उसमें अनेक पूरक बातें समय-समय पर जुड़ती चली गईं। जब वह मुनि-जनों के परस्पर वस्तु-विनिमय का माध्यम बनी, तब उसे धन का व्यवहार्य रूप भी प्राप्त हो गया। उस माध्यम से व्यक्तिगत प्रतियों का आदान-प्रदान किया जाने लगा। जो व्यक्ति स्वयं नहीं लिख सकते थे, परन्तु किसी ग्रन्थ को व्यक्तिगत रूप से अपनी निश्रा में रखना चाहते थे, तो वे यथावश्यक गाथाएं देकर किसी से भी यथेष्ट प्रतियां प्राप्त कर सकते थे।
*'गाथा-प्रणाली' की योजना तेरापंथ-संघ के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुई...* विस्तार से जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹
Posted on 28.05.2020 07:44
📍नवीन सूचना .....दिनांक : 27/05/2020
🌻 संघ संवाद* 🌻
📍नवीन सूचना .....
दिनांक : 27/05/2020
🌻 संघ संवाद* 🌻
दिनांक : 27/05/2020
🌻 संघ संवाद* 🌻
🙏 *वंदे गुरुवरम्* 🙏
https://www.instagram.com/p/CAtk0EeJ6HB/?igshid=1pddrm5cxuvet
आज का विशेष दृश्य आपके लिए..
स्थल ~ BMIT कॉलेज सोलापुर (महाराष्ट्र)
दिनांक : 28/05/2020
*प्रस्तुति : 🌻 संघ संवाद* 🌻
https://www.instagram.com/p/CAtk0EeJ6HB/?igshid=1pddrm5cxuvet
आज का विशेष दृश्य आपके लिए..
स्थल ~ BMIT कॉलेज सोलापुर (महाराष्ट्र)
दिनांक : 28/05/2020
*प्रस्तुति : 🌻 संघ संवाद* 🌻