05.08.2020 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 05.08.2020
Updated: 05.08.2020

Updated on 05.08.2020 14:26

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जैन परंपरा में सृजित प्रभावक स्तोत्रों एवं स्तुति-काव्यों में से एक है *भगवान पार्श्वनाथ* की स्तुति में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित *कल्याण मंदिर स्तोत्र*। जो जैन धर्म की दोनों धाराओं— दिगंबर और श्वेतांबर में श्रद्धेय है। *कल्याण मंदिर स्तोत्र* पर प्रदत्त आचार्यश्री महाप्रज्ञ के प्रवचनों से प्रतिपादित अनुभूत तथ्यों व भक्त से भगवान बनने के रहस्य सूत्रों का दिशासूचक यंत्र है... आचार्यश्री महाप्रज्ञ की कृति...

🔱 *कल्याण मंदिर - अंतस्तल का स्पर्श* 🔱

🕉️ *श्रृंखला ~ 98* 🕉️

*39. याचना दुःख-बीज को समाप्त करने की*

गतांक से आगे...

नाथ कौन हो सकता है— मुनि ने इसका रहस्य समझाते हुए कहा— हर कोई आदमी नाथ नहीं बन सकता।

मुनि ने कहा— मैं कौशाम्बी नगरी में रहता था। मेरा कुल सम्पन्न था। मेरे पिता अपार धन-राशि के स्वामी थे। मेरा विवाह उच्च कुल में हुआ। एक बार मेरे असह्य अक्षि-रोग उत्पन्न हुआ। उसको मिटाने के लिए परिवार वालों ने नानाविध प्रयत्न किए, पर सब व्यर्थ गए। मेरे ज्ञातिजनों ने मेरी वेदना पर आंसू बहाए, परन्तु वेदना को वे बांट नहीं सके। यह थी मेरी अनाथता।

'यदि इस पीड़ा से मैं मुक्त हो जाऊं तो मैं मुनि बन जाऊं'— इस संकल्प के साथ मैं सोया। जैसे-जैसे रात बीती, रोग शांत होता गया। सूर्योदय तक मैं स्वस्थ हो गया। माता-पिता की आज्ञा लेकर मैं प्रव्रजित होकर सभी प्राणियों का नाथ बन गया। उन सबको मुझसे त्राण मिल गया। यह है मेरी सनाथता।

स्तुतिकार ने भी नाथ शब्द का प्रयोग किया है। आपमें क्षमता है, सामर्थ्य है, इसलिए आप मुझ पर कृपा सकते हैं।

दूसरी बात— आप *'दुःखिजनवत्सल'* हैं। दुःखी लोगों को वात्सल्य देने वाले हैं इसलिए आप मुझ पर कृपा कर सकते हैं।

तीसरी बात— आप *'शरण्य'* हैं, आपमें शरण देने की अर्हता है। इसलिए आप मुझ पर कृपा कर सकते हैं।

चौथी बात— *'कारुण्यपुण्यवसते'* आप करुणा के पवित्र घर हैं। वह आदमी दया और कृपा नहीं कर सकता जिसमें क्रूरता होती है। करुणा के आलय होने के कारण आप कृपा कर सकते हैं।

पांचवी बात— *'वशिनां वरेण्य'*— अपने पर नियंत्रण करने वालों में आप श्रेष्ठ हैं। इसलिए आप मुझ पर कृपा कर सकते हैं।

इतनी विशेषताएं आपमें हैं, इसलिए हे महेश्वर! मुझ पर दया करो। मुझ पर कृपा करने वाला कोई नहीं मिला, इसलिए मैं आपके सामने याचना कर रहा हूं।

मेरी याचना क्या है? *'दुःखांकुरोद्दलनतत्परतां विधेहि'*— दुःख का जो बीज है, उस बीज को उखाड़ फेंको। बहुत से आदमी दुःख को मिटा देते हैं। व्यक्ति भूखा है रोटी खिला दी, उसका दुःख मिट गया। कोई प्यासा है, पानी पिला दिया, दुःख मिट गया। एक घंटा बाद फिर प्यासा हो गया, भूख लग गई। जब तक दुःख का बीज समाप्त नहीं होगा तब तक दुःख पैदा होता रहेगा। दुःख का बीज मौजूद है तो दुःख पनपता रहेगा, अंकुरित होता रहेगा। प्रभो! मैं चाहता हूं कि दुःख का जो अंकुर है, उसको आप जड़ से उखाड़ फेंकें, जिससे मेरे जीवन में कभी दुःख नहीं आए।

सांख्य-दर्शन में इस विषय पर बहुत सुन्दर विवेचन है— एक आदमी ने भोजन किया, भूख समाप्त हो गई, तृप्त हो गया। क्या उसका दुःख मिट गया? दूसरे क्षण फिर भूख शुरू हो गई। दो घंटा, चार घंटा बाद वह पुनः प्रबल हो गई। भूख तब समाप्त होती है, जब बीज खत्म हो जाए।

आचार्य ने एक बहुत बड़ी याचना की है। किसी वस्तु या तात्कालिक दुःख समाप्ति की याचना नहीं की है। समस्या की जड़ को उखाड़ने की और बीज को समाप्त करने की याचना की है। जिसकी जड़ समाप्त हो जाती है वह पौधा पनपता नहीं है। जिसका बीज समाप्त हो जाता है उसका अंकुरण भी नहीं होता।

इतने बड़े आचार्य दया की याचना कर रहे हैं। कैसे करें? किसके सामने हाथ पसारें? सामान्य बात के लिए कहें कि मुझ पर कृपा करो तो हीनता की अनुभूति होती है। कृपा करने वाला बड़ा हो जाता है और कृपा की भीख मांगने वाला छोटा हो जाता है। परन्तु दया की याचना बहुत बड़ी याचना है और यह याचना हर किसी व्यक्ति के सामने नहीं की जा सकती। पदार्थ की याचना, धन की याचना, राज्य की याचना की जा सकती है, किन्तु दुःख के बीज को समाप्त कर दें— यह सबसे बड़ी मांग है। इससे बड़ी मांग शायद दुनिया में कोई नहीं हो सकती। इस मांग को पूरा करने वाला भी कौन मिलेगा? वीतराग के सिवाय दूसरा कोई भी व्यक्ति इस मांग को पूरा नहीं कर सकता। इसीलिए सिद्धसेन कहते हैं— प्रभो! आप नाथ हैं। दुःखीजन वत्सल हैं। शरण्य हैं। करुणा के घर हैं और जिनमें नियंत्रण की शक्ति है उन लोगों में आप श्रेष्ठ हैं। इसीलिए कृपा करो और मेरी मांग को पूरा करो।

*अभेद प्रणिधान को कैसे साधें...?* जानेंगे... समझेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।

🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞

📜 *श्रृंखला -- 341* 📜

*श्रीमद् जयाचार्य*

*जीवन-प्रसंग, अनेक रंग*

*आठ आने की समझ*

विक्रम सम्वत् 1922 (चै. 23) के प्रीष्म काल में तपस्वी मुनि उदयराजजी ने लाडनूं में आजीवन अनशन ग्रहण किया। जयाचार्य उस समय बीदासर में विराजमान थे। तपस्वी अपने अन्तिम समय में आचार्यश्री के दर्शनों की अभिलाषा रखते थे। जयाचार्य ने उसकी पूर्ति के लिए लाडनूं पधारने की तिथि घोषित कर दी। बीदासर के भाइयों ने वे समाचार लाडनूं के श्रावकों तक पहुंचा दिये। आचार्यश्री गुनोड़ा से वहां पधारने वाले थे। लोग सामने गये। लाडनूं से गुनोड़ा को अनेक मार्ग जाते थे। यह किसी को पता नहीं था कि जयाचार्य किस मार्ग से पधारेंगे। जिसके अनुमान में जो मार्ग ठीक जचा, वह उसी से सामने चला गया।

जयाचार्य जिस मार्ग से पधारे उसी पर सामने जाने वाले लोग दर्शन तथा सेवा का लाभ उठा सके। शेष तो बहुत देर तक प्रतीक्षा करने के पश्चात् निराश होकर ही वापस लौटे। उनमें से अनेक व्यक्ति सामने जाने की दूरी तथा प्रतीक्षा करने का समय बतला-बतला कर अपनी राम-कहानी सुनाने लगे। सबकी बातें प्रायः एक जैसी ही थीं, फिर भी सुनानेवालों की उत्सुकता एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर ही दिखाई दे रही थी।

जयाचार्य ने सबकी बातें सुन लेने के पश्चात् फरमाया— 'क्या तुम लोगों में आठ आने की भी समझ नहीं थी? यहां से बीदासर तक कासिद या ऊंट-सवार भेजने में आठ आने से अधिक व्यय नहीं होता होगा, फिर भी यदि कोई उचित साधनों का उपयोग न करके इधर-उधर भटकता रहे तो उसका कोई क्या करे?'

जयाचार्य की उस सामयिक झिड़की पर अवश्य ही वहां के प्रमुखों ने लज्जा का अनुभव किया होगा, क्योंकि वे प्रमुख कहलाकर भी समाज के व्यक्तियों के लिए एक साधारण-सी सुविधा भी नहीं कर पाये। वस्तुतः उस 'आठ आने की समझ' के अभाव में ही उस दिन सैकड़ों व्यक्तियों के समय और श्रम से कोई सुफल-निष्पत्ति नहीं हो पाई।

*श्रीमद् जयाचार्य अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों के नाम बहुधा लंबे समय के पश्चात् भी याद रख लिया करते थे... एक घटना प्रसंग के माध्यम से...* जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...

प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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🧘‍♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘‍♂

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