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पर्यावरण व जीव रक्षा का संदेश देता - वर्षावास - ः डॉ. पुष्पेन्द्र मुनि
प्राचीन ग्रन्थों में वर्णन मिलता है, भगवान नेमिनाथ जी ने जब द्वारका नगरी में वर्षावास किया, तब श्रीकृष्ण वासुदेव ने यही प्रश्न किया - भन्ते, श्रमण चार मास तक एक स्थान पर क्यों रहते हैं? उत्तर में भगवान नेमिनाथ जी ने बताया - वर्षा के कारण पृथ्वी पर अनगिनत, असंख्य, अनन्त जीवों की उत्पति होती है। ऐसे सूक्ष्म जीव जो आंखों से दिखाई नहीं देते। उन जीवों की रक्षा के लिए श्रमण एक स्थान पर ठहरते हैं। जैन परम्परा में आषाढी पूनम से कार्तिक पूनम तक चार महीने पादविहारी जैन श्रमण एक ही स्थान पर विराजमान हो स्व धर्म साधना के साथ - साथ दूसरों को भी साधना करने की प्रेरणा प्रदान करते है। वैदिक ग्रन्थों में वशिष्ठ ऋषि का कथन है, वर्षावास में चार महीने विष्णु भगवान समुद्र में जाकर शयन करते हैं। अतः वर्षावास का यह समय धर्म आराधना में बिताना चाहिए। प्राचीन जैन साहित्य का अनुशीलन करने से पता चलता है कि आचार्यों ने तिथियों को तीन भागों में बांटा है ः- छः चारित्रा तिथियां - दो अष्टमी, दो चौदस, अमावस और पूनम - ये छह तिथियां चारित्रा तिथियां हैं। इन पर्व तिथियों में उपवास, पोषध, संवर आदि तप के चारित्र धर्म की वृद्धि करनी चाहिए। छः ज्ञान तिथियां - दो दूज, दो पंचमी और दो एकादशी - ये छः तिथियां ज्ञान तिथि कहलाती है। इनमें ज्ञान, शास्त्रा-स्वाध्याय, आगम श्रवण आदि काम करने चाहिए। शेष सभी तिथियां दर्शन तिथियां कहलाती है। इनमें सम्यकत्व, शुद्धि, स्वधर्मी-वत्सलता, देव-गुरु-वन्दन आदि शासन प्रभावना के काम करने चाहिए। हालांकि तिथियों का यह एक स्थूल वर्गीकरण है, लेकिन यदि आप इस तरह चलते हैं तो एक मासिक धर्म कार्यक्रम बना सकते हैं। धर्म आराधना की तीन बातें आवश्यक हैं - धर्म आराधना की सबसे पहली बात है श्रद्धा। धर्म व गुरु के प्रति या गुरुजनों द्वारा बताए गए व्रत-नियम आचार धर्म के प्रति गहरी श्रद्धा भक्ति होनी चाहिए। धर्म साधना के मार्ग पर सच्चा विश्वास हो। दूसरी बात है - धर्म साधना का क्रमिक ज्ञान। श्रद्धा है, विश्वास है, किन्तु धर्म आराधना कैसे करें, नियम कैसे लेवें, किस प्रकार पालन करें, इसका ज्ञान होना चाहिए। तीसरी बात है - धर्म प्रभाव का ज्ञान। आपको धर्म के प्रति श्रद्धा है साधना की प्रक्रिया का ज्ञान भी है, परन्तु जो नियम व्रत ले रहे हैं उसका आफ जीवन पर क्या प्रभाव होगा इसका ज्ञान होना भी अनिवार्य है। जैसे शास्त्राों में बताया है कि वन्दना करने से गुणीजनों के प्रति आदर भाव वढता है, क्षमापना करने से कषायों की शान्ति होती है, सामायक करने से समता भाव आता है - आदि। स्वयं को धर्म से जोडए और कुछ बातों का ध्यान रखें -
१. वर्षाकाल में जीवों की विराधना से बचने के लिए यातायात प्रवास को सीमित करें। चलने के दौरान
सतर्कता बरतें।
२. वर्षाकाल ठंडक और तरी का मौसम है। मन के भीतरी वातावरण को शीतल बनाइए। क्रोध, मान, माया,
लोभ आदि कषायों की उग्रता उष्णता को शांत करने का प्रयास कीजिए।
३. ब्रह्मचर्य व्रत की साधना का संकल्प करें। यह तन, मन, आरोग्य सभी के लिए लाभकारी है।
४. चार महीने रात्रि भोजन का त्याग करें।
५. स्वाध्याय, ध्यान, जप, मौन, स्वाद त्याग और तप की आराधना करें।